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स्थायी सरकार, मजबूत विपक्ष और किंतु-परंतु

03:56 AM Jun 11, 2024 IST
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पिछले सप्ताह मैंने अपने इसी कॉलम में लिखा था कि लोकतंत्र हारा नहीं है, लोकतंत्र फिर जीता है। मैंने यह बात इसलिए लिखी क्योंकि भारतीय मतदाता के विवेक की परिपक्वता पर मुझे कभी संदेह नहीं रहा। राजनीतिक दलों को वह अपनी मूलभूत जरूरतों की कसौटियों पर तो तौलता ही है, संवैधानिक कसौटियों पर भी परखता है। मतदाता जब अपने मन की बात सुनाता है तो बाकी सारी बातें धरी की धरी रह जाती हैं। अंग्रेजी में एक कहावत है, ‘विनिंग इज नॉट आलवेज ए विक्ट्री एंड लूजिंग इज नॉट ऑलवेज ए डिफीट (जीत हमेशा विजय नहीं होती और हारना हमेशा पराजय नहीं होता)। इस चुनाव में भी यही हुआ है। मतदाताओं ने न एनडीए के 400 की हुंकार सुनी और न ही विपक्षी इंडिया गठबंधन के बहुमत की पुकार सुनी। उसने भाजपा को सबसे बड़े दल के रूप में मान्यता और एनडीए गठबंधन को बहुमत देकर अपना आदेश स्पष्ट कर दिया है। आदेश है कि एनडीए फिर सरकार बनाए लेकिन उसे मजबूत विपक्ष का सामना भी करना पड़े। स्वाभाविक सी बात है कि जब एक पक्ष पहलवान हो जाए और दूसरा पक्ष कुपोषित रह जाए तो फिर सामंजस्य नहीं बैठता। मतदाताओं ने सामंजस्य न बैठने की इस समस्या को दूर कर दिया है।

डच लेखक पॉल हेनिंगसेन की यह बात मुझे मौजूं लगती है कि लोकतंत्र को केवल विपक्ष की उपस्थिति में ही मापा जा सकता है और म्यांमार में लोकतंत्र की महान योद्धा आंग सान सू की कहती हैं कि विपक्ष को बुरा कहना लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा को न समझ पाना है और विपक्ष को दबाना तो लोकतंत्र की जड़ों को खोदने जैसा है। भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू भी यही मानते थे, मैंने इस विषय पर लगातार लिखा भी है कि लोकतंत्र को मजबूत रखना है तो विपक्ष का कद्दावर होना जरूरी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के 10 वर्षों का कार्यकाल कई उपलब्धियों और धारा 370 हटाने जैसे साहसिक फैसलों से भरा पड़ा है, उनके कार्यकाल में दुनिया के दूरदराज हिस्से तक भारत की हुंकार सुनाई दी है लेकिन मतदाताओं को कहीं न कहीं यह महसूस हो रहा था कि देश में विपक्ष निरंतर कमजोर होता जा रहा है और सत्ता इसका फायदा उठा रही है। सत्ताधारी दल से जुड़े नेताओं ने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के सपने को साकार करने की कोशिश की तो मतदाताओं के कान खड़े हो गए। लोकतंत्र में किसी पार्टी के समूल नाश के बारे में कोई सोच भी कैसे सकता है? ...और मैंने तो हमेशा यह लिखा है कि कांग्रेस को समाप्त करना किसी के बूते में नहीं है। कांग्रेस का वट वृक्ष थोड़ा मुरझाने जैसा दिख जरूर रहा था लेकिन उसकी जड़ें बहुत गहरी हैं।

जिस तरह से वट वृक्ष का एक तना भी नीचे पहुंच कर नए पेड़ का स्वरूप ग्रहण कर लेता है, उसी तरह की क्षमता कांग्रेस में भी है। अपने दल में एक-दूसरे को निपटा देने की प्रवृत्ति के कारण कांग्रेस बुरे दौर में पहुंच गई लेकिन क्षमता तो उसमें है। इस बार उसने क्षेत्रीय दलों के साथ सामंजस्य बिठाया तो मतदाताओं ने उसमें भरोसा भी जताया। अब कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को साबित करना होगा कि वह मतदाताओं के फैसले पर कितना खरा उतरते हैं। कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन की चुनौतियों की बात करने से पहले यह देखना जरूरी है कि फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती नरेंद्र मोदी के समक्ष है जिन्होंने तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली है। पहले के दो कार्यकाल में उनकी भारतीय जनता पार्टी के पास भारी संख्या बल था इसलिए एनडीए के सहयोगी किनारे खड़े थे लेकिन इस बार भाजपा बड़ा दल होने के बावजूद बहुमत के लिए अपने सहयोगी दलों पर निर्भर है। हालांकि चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, एकनाथ शिंदे और चिराग पासवान ने पूरे पांच साल साथ बने रहने का वादा किया है लेकिन नायडू और नीतीश राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं। वे मुफ्त में समर्थन नहीं देंगे। ये उनका वक्त आया है तो क्यों न वसूलें? वो कोई भाजपा के तो हैं नहीं।

ऐसी स्थिति में नरेंद्र मोदी की चुनौतियां आसानी से समझी जा सकती हैं। भारत को सशक्त-समर्थ बनाने की उनकी जो अभिलाषा है, तीसरे कार्यकाल के लिए उन्होंने जो योजनाएं तैयार कर ली थीं वो वाकई कार्यरूप में बदल पाएगा क्या? और तीसरी आर्थिक शक्ति बनने की ओर क्या अब भी तेजी से बढ़ पाएंगे? यह जगजाहिर बात है कि जब इस तरह के समर्थन वाली सरकार बनती है तो विदेशों में देश की धाक कमजोर होती है। देखने का उनका नजरिया बदल जाता है। नरेंद्र मोदी के समक्ष ये भी एक बड़ी चुनौती होगी, और सबसे बड़ी बात कि ‘मोदी की गारंटी’ का हुंकार भरने वाले शख्स के लिए क्या झुक कर चलना आसान होगा? कुछ लोग अंदाजा लगा रहे हैं कि नायडू, नीतीश, शिंदे और चिराग को काबू में रखने के लिए भाजपा दूसरे दलों से सांसदों को तोड़ सकती है लेकिन मुझे लगता है कि इस मामले में भाजपा को सावधान रहना चाहिए। भारतीय मतदाता तोड़फोड़ की इस प्रवृत्ति को पसंद नहीं करता है, विश्लेषकों की स्पष्ट राय है कि महाराष्ट्र में भाजपा की पराजय का बड़ा कारण ये तोड़फोड़ भी है।

जहां तक कांग्रेस और इंडिया गठबंधन की चुनौतियों का सवाल है तो उन्हें मजबूत लेकिन सार्थक विपक्ष के रूप में अपनी पहचान बनानी होगी। वहां भी इतने सारे दल हैं कि सबको संभाल पाना मुश्किल काम है। सबके पास आकांक्षाओं का अपना उन्मुक्त आकाश है तो उधर बहेलिया प्रलोभन का दाना लिए घूम रहा है, ये किंतु-परंतु का दौर है।

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