Post of Lok Sabha Deputy Speaker: लोकसभा उपाध्यक्ष का पद
भारत की संसदीय प्रणाली को पूरे विश्व में बहुत कौतूहल से देखा जाता है क्योंकि इसके माध्यम से जिस तरह शान्तिपूर्ण तरीके से देश में सत्ता बदल होता है उससे यह पता चलता है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जो विरासत छोड़ कर गये हैं वह भारत की असली तासीर है। संसद को सर्वोच्च विधायिका मानकर चलने वाले देश भारत का यह गुण भी है कि इसे चलाने के लिए जो नियम व परिपाठियां हैं वे सत्ता और विपक्ष के नजरिये से नहीं बल्कि देश के लोगों के प्रतिनिधियों के नजरिये से बनाई गई हैं और इन्हें बनाने वाले स्वयं संसद सदस्य ही हैं। सर्वसम्मति का यह भाव संसदीय प्रणाली के स्थायित्व की गारंटी देता है। संसद के भीतर हमारे जो पुरखे व्यवस्था करके गये हैं वह ‘कालजयी’ है। लोकसभा का अध्यक्ष बेशक चुने हुए सांसदों में से ही एक होता है परन्तु उसका रुतबा ऐसे ‘पंच परमेश्वर’ का होता है जो सभी के साथ बराबरी से न्याय करता है।
लोकसभा में बहुमत होने की वजह से यह पद सत्तारूढ़ दल के सांसद को ही दिया जाता रहा है मगर आसन पर विराजते ही वह ‘न्यायप्रिय विक्रमादित्य’ की भूमिका में आ जाता है। इसमें जब भी किसी प्रकार खामी आती है तो संसद का सन्तुलन बिगड़ने लगता है और यह एक अनुशासित सभा न रहकर सांसदों का जमघट बन जाती है। अफसोस की बात यह है कि पिछली लोकसभा में हमने एेसे कई दृश्यों को देखा जब थोक के हिसाब से विपक्षी सांसदों का निष्कासन किया गया और हंगामे के बीच विधेयक भी थोक के हिसाब से पारित कराये गये।
भारत की संसदीय प्रणाली की प्रतिष्ठा के अनुरूप पिछली 17वीं लोकसभा का कार्यकाल नहीं रहा। यह बिना किसी शक के कहा जा सकता है। सबसे दुखद यह रहा कि लोकसभा बिना उपाध्यक्ष का चुनाव किये ही पूरे पांच साल चलती रही और इसका कार्यकाल भी समाप्त हो गया। परन्तु एेसा लगता है कि सत्तारूढ़ दल अतीत की गलतियों से सबक लेना चाहता है जिसकी वजह से यह खबर आ रही है कि वर्तमान लोकसभा में उपाध्यक्ष का भी चुनाव होगा। लोकसभा या राज्यसभा केवल नियमों से नहीं चलती बल्कि कुछ स्थापित गौरवशाली परंपराओं से भी चलती है। पिछले कई दशकों से यह परंपरा रही है कि अध्यक्ष पद अपने पास रखने के बाद सत्तारूढ़ दल उपाध्यक्ष पद विपक्ष को देता है जिससे सदन की कार्यवाही न केवल सुचारू रूप से चले बल्कि आपसी समझदारी व सामंजस्य से भी चले।
संविधान के अनुसार लोकसभा में अध्यक्ष व उपाध्यक्ष दोनों ही होने चाहिए। उपाध्यक्ष का पद भी संवैधानिक होता है और अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसके पास सारे संसदीय अधिकार रहते हैं। मगर उपाध्यक्ष पद का चुनाव कब होगा। इस बारे में संविधान खामोश है। संविधान का 95वां अनुच्छेद कहता है कि लोकसभा का एक अध्यक्ष व उपाध्यक्ष होगा। उपाध्यक्ष पद की अधिसूचना अध्यक्ष जारी करेंगे। मगर संविधान यह नहीं कहता कि कितनी अवधि के भीतर अध्यक्ष इस पद के लिए अधिसूचना जारी करेंगे। इसी खामी का लाभ पिछली लोकसभा में उठाया गया और पूरे पांच साल तक चुनाव नहीं कराया गया। मगर इस लोकसभा में उपाध्यक्ष का चुनाव कराने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है और समझा जा रहा है कि परंपरा के अनुसार यह पद विपक्षी पार्टी कांग्रेस या उसके गठबन्धन इंडिया के किसी घटक दल को दिया जायेगा। संसद में अध्यक्ष व उपाध्यक्ष पद के लिए आपसी सहमति बनानी इसलिए जरूरी होती है जिससे सदन का कामकाज बिना किसी अवरोध या टकराहट के चल सके।
हम अक्सर देखते हैं किसी मुद्दे पर सदन के भीतर सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच गतिरोध पैदा हो जाता है और दोनों ही अपनी-अपनी जिद पर अड़ जाते हैं। ऐसी स्थिति से उबरने में अध्यक्ष या उपाध्यक्ष उत्प्रेरक का काम करते हैं क्योंकि उनका चुनाव सर्वसम्मति से हुआ होता है। दोनों ही पक्ष उन्हें अपना प्रत्याशी समझते हैं। इसी वजह से लोकसभा में अध्यक्ष पद पर सर्वसम्मति बनाई जाती है जो कि इस बार 18वीं लोकसभा में नहीं हो सका और नौबत चुनाव तक आ गई। इसके बावजूद नये लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला का चुनाव ध्वनिमत से ही हो गया और विपक्ष ने मत विभाजन के लिए जोर नहीं दिया। विपक्ष के इस कदम की प्रशंसा की जानी चाहिए क्योंकि मत विभाजन से अनावश्यक कड़ुवाहट ही पैदा होती। सत्तारूढ़ भाजपा को अब विचार करना चाहिए कि उपाध्यक्ष का पद परंपरानुसार विपक्षी सांसद को दिया जाये क्योंकि एेसा होने पर लोकसभा के भीतर सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच आपसी सौहार्द बढे़गा और फिजूल की खींचतान नहीं होगी।
सत्तारूढ़ दल को यह याद रखना चाहिए कि जब 2004 से लेकर दस वर्ष तक देश में डा. मनमोहन सिंह की कांग्रेस नीत सरकार थी तो इसके पहले कार्यकाल में अध्यक्ष पद इस सरकार को बाहर से समर्थन दे रही मार्क्सवादी पार्टी के नेता स्वयं सोमनाथ चटर्जी को दिया गया था जिन्होंने लोकसभा टीवी की शुरूआत की थी। टीवी पर तब विपक्ष को भी सत्तापक्ष के समान ही बराबर की कवरेज दी जाती थी। तब उपाध्यक्ष पद विपक्षी पार्टी भाजपा के सहयोगी अकाली दल के सांसद चरणजीत सिंह अटवाल को दिया गया था। दूसरे मनमोहन कार्यकाल में कांग्रेस ने अपना अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार को बनाया था मगर उपाध्यक्ष पद भाजपा के श्री कारिया मुंडा को दिया गया था। भाजपा ने 2014 से शुरू हुए अपने पहले कार्यकाल में अपना अध्यक्ष बनाने के साथ उपाध्यक्ष पद अपने सहयोगी दल अन्ना द्रमुक के श्री थम्बीदुरै को देना गंवारा किया जबकि अगले कार्यकाल में किसी को उपाध्यक्ष बनाया ही नहीं। यह एक गलत परंपरा पड़ी जिसे भाजपा ही अब स्वयं सुधारना चाहती है। इसे लोकसभा के लिए शुभ लक्षण कहा जायेगा। क्योंकि ये दोनों पद आलोचना से परे माने जाते हैं मगर इसके लिए इन पदों पर बैठे व्यक्तियों को भी ‘ऊंचा’ उठना पड़ता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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