मणिपुर में शांति बहाली बहुत जरूरी है...
मणिपुर में हिंसा के एक साल बाद भी शांति बहाली की उम्मीदें कम होती जा रही हैं। इंफाल घाटी में ड्रोन बमबारी और आरपीजी के साथ हमले बढ़ रहे हैं। स्थानीय संगठन और सुरक्षा एजेंसियों की शांति बहाली की कोशिशें जारी हैं लेकिन स्थायी समाधान अभी नहीं निकल सका है। मई 2023 में शुरू हुई हिंसा एक साल से अधिक समय होने के बावजूद संकट के समाधान के गंभीर प्रयास होते नजर नहीं आ रहे हैं।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पिछले एक साल में इस हिंसा में दोनों तबकों के 227 लोगों की मौत हो गई और करीब 70 हजार लोग विस्थापित हो गए। इनमें से करीब 59 हजार लोग अपने परिवार या परिवार के बचे-खुचे लोगों के साथ सालभर से राज्य के विभिन्न स्थानों पर बने राहत शिविरों में रह रहे हैं। इनमें से कुछ लोगों ने पड़ोसी मिजोरम में शरण ले रखी है। इस हिंसा से प्रभावित लोगों के जख्म अब नासूर बन चुके हैं। मणिपुर में जारी हिंसा में अब तक पुलिस और सुरक्षाबलों के 16 जवान भी मारे जा चुके हैं। मैतेई और कुकी दो तबकों के बीच अविश्वास का खाई इतनी गहरी हो गई है जिसका पाटना बहुत कठिन लगता है। इसी माहौल में राज्य की दोनों लोकसभा सीटों के चुनाव के दौरान भी हिंसा की घटनाएं हुईं लेकिन यह राज्य इतने बड़े पैमाने पर हिंसा झेल चुका है कि अब दो-चार लोगों की हत्या को मामूली घटना समझा जाने लगा है।
यह पहाड़ी पूर्वोत्तर भारतीय राज्य बंगलादेश के पूर्व में स्थित है और म्यांमार की सीमा से सटा हुआ है। यहां अनुमानित 3.3 मिलियन लोग रहते हैं। इनमें से आधे से अधिक लोग मैतैई हैं, जबकि लगभग 43 फीसदी कुकी और नगा हैं जो प्रमुख अल्पसंख्यक जनजातियां हैं। मणिपुर सरकार के लगातार किए जा रहे दावे के बावजूद हिंसा थम नहीं रही है। आखिर कैसे कोई राज्य सरकार अपने नागरिकों के बीच लगातार जारी हिंसा, विस्थापन तथा सामान्य जीवन पर उपजे संकट के बावजूद निष्क्रिय नजर आती है। सबसे चिंता की बात यह है कि दोनों समुदायों के बीच संघर्ष का लाभ उग्रवादी तत्व उठाते नजर आ रहे हैं। उससे ज्यादा चिंताजनक यह कि वे अत्याधुनिक हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
मणिपुर में हिंसा अब अलग ही रूप लेती जा रही है। ताजा घटनाक्रम में हिंसा की आग में जल रहे मणिपुर के इंफाल वेस्ट जिले के कौत्रुक गांव में रिमोट नियंत्रित ड्रोन का इस्तेमाल करके एक सितंबर को हमला किया गया था जिसमें दो लोगों की मौत हो गई थी और नौ अन्य घायल हो गए थे। इससे अगले दिन करीब तीन किलोमीटर दूर सेंजाम चिरांग में फिर से ड्रोन का इस्तेमाल किया गया और इस हमले में तीन लोग घायल हुए। इस बीच, 7 सितंबर की रात को जिरिबाम की हिंसा में पांच लोगों की मौत हो गई। 6 सितंबर को उग्रवादियों ने मणिपुर के पूर्व मुख्यमंत्री मायरंबम कोइरेंग के घर पर भी रॉकेट से हमला किया। ये हमला मोइरांग में हुआ जिसमें एक बुजुर्ग व्यक्ति की मौत हो गई थी और 5 लोग घायल हो गए थे। कोइरेंग साल 1963 से 1967 तक मणिपुर के मुख्यमंत्री के पद पर रहे।
यह बेहद चिंताजनक बात है कि चरमपंथी ड्रोन के जरिये बम व राकेटों से हमले कर रहे हैं। निस्संदेह, मणिपुर की हिंसा का देश-दुनिया में कोई अच्छा संदेश नहीं जा रहा है। ऐसे में राज्य सरकार राजधर्म का पालन करते नहीं दिखती। सवाल पूछे जा रहे हैं कि जब मौजूदा मुख्यमंत्री हिंसा शुरू हुए सवा साल बीत जाने के बाद भी हालात पर काबू नहीं कर पा रहे हैं तो केंद्र ने उनकी जगह सक्षम व्यक्ति को मौका क्यों नहीं दिया? दरअसल, मणिपुर के मुद्दे पर विपक्ष भी लगातार केंद्र सरकार, खासकर प्रधानमंत्री पर हमलावर रहा है। सड़क से लेकर संसद तक प्रधानमंत्री के मणिपुर न जाने के मामले में सवाल उठाए जाते रहे हैं।
अब हालत यह है कि राज्य की दोनों प्रमुख जनजातियों यानी मैतेई और कुकी के बीच विभाजन की रेखा बेहद साफ नजर आती है। मैतेई लोगों के गढ़ इंफाल घाटी में कुकी समुदाय का कोई व्यक्ति नहीं नजर आता। यही स्थिति कुकी बहुल पर्वतीय इलाकों में भी है। वहां मैतेई समुदाय का कोई व्यक्ति नजर नहीं आता। एक-दूसरे के इलाकों में सदियों से आपसी भाईचारे के साथ रहने वाले अब या तो जान से मार दिए गए हैं या अपने परिवार के साथ पलायन कर गए हैं।
इन दोनों तबके के लोग अब एक-दूसरे के इलाके में कदम रखने की कल्पना तक नहीं कर सकते। उनको पता है कि ऐसा करने का मतलब मौत को गले लगाना है। इस हिंसा के लिए कोई एक तबका दोषी नहीं है। दोनों तबके के लोगों ने जमकर हिंसा और आगजनी की है। इस हिंसा के भड़कने और इतने लंबे समय तक जारी रहने के लिए राज्य की बीजेपी सरकार को जरूर दोषी ठहराया जा सकता है। केंद्र सरकार ने भी इस मामले में हस्तक्षेप करने की बजाय चुप्पी साध रखी है।
हाल की हिंसा के बाद मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने राज्य की क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए केंद्र सरकार से कदम उठाने की मांग की है। इतना ही नहीं, उन्होंने केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों सहित एकीकृत कमान का प्रभार राज्य सरकार को सौंपने की बात भी कही है। निश्चित रूप से मैतई व कुकी समुदायों में जारी संघर्ष को समाप्त करने के लिए बातचीत शुरू करने की जरूरत है। सवाल उठाये जाते हैं कि प्रधानमंत्री ने मणिपुर जाने का निर्णय क्यों नहीं लिया?
मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की दलील रही है कि प्रधानमंत्री ने गृह मंत्री को राज्य में भेजा और अपनी चिंता का उल्लेख स्वतंत्रता दिवस के भाषण में किया था। निश्चित रूप से ऐसी कोशिशें मणिपुर की हिंसा को खत्म करने में मददगार साबित नहीं हुई हैं। खासकर पिछले दिनों चरमपंथियों द्वारा बमबारी के लिये ड्रोन व रॉकेट के इस्तेमाल ने सुरक्षा बलों की चिंता को बढ़ाया है। निश्चित रूप से हिंसा पर अंकुश लगाने व कानून का शासन बहाल करने के लिये केंद्र व राज्य को अपनी रणनीति में बदलाव करना चाहिए। साथ ही संघर्षरत पक्षों को बातचीत की मेज पर लाने की भी कोशिश नये सिरे से होनी चाहिए।
केंद्र सरकार को स्थिति की गंभीरता से समझते हुए इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए और मणिपुर शांति बहाली के स्थायी और ठोस कदम उठाने चाहिए। असल में देश में शांति का माहौल होगा, कानून का शासन होगा तभी विकास की रफ्तार बढ़ेगी। दुनिया में राजनीतिक और आर्थिक ताकत बनने के लिए शांति का बड़ा महत्व होता है। ऐसे में मणिपुर में आज भले ही परिस्थितियां प्रतिकूल हों लेकिन हमें बिना परेशान हुए, बिना व्यथित हुए प्रधानमंत्री मोदी पर अपने विश्वास को कायम रखना होगा। वे अवश्य इस मुश्किल समस्या का कोई न कोई स्थायी समाधान ढूंढ लेंगे।