सुप्रीम कोर्ट का फैसला...
भारतीय नारी तो नारी है, वह त्याग और सुन्दर चरित्र की मूर्ति है। यह बात अलग है कि वह हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई या किसी भी धर्म की हो सकती है। उसकी पवित्रता और उसके त्याग का सबसे बड़ा उदाहरण रामायण में मिलता है। जब माता जानकी पति श्रीराम के वनवास के दौरान उनके साथ तमाम राजमहल के सुख छोड़कर वन प्रस्थान कर जाती हैं।
चार दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने भारतीय महिलाओं चाहे वह किसी भी धर्म की क्यों न हो के त्याग और घरों में उनकी भूमिका के महत्व को उजागर कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजाराभत्ता दिये जाने की जरूरत पर जोर दिया है। यह हर धर्म की भारतीय महिलाओं का सम्मान है तथा इसका हम स्वागत करते हैं। तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को उनके शोहर गुजारा भत्ता अब कानूनी रूप से देंगे। यह तब हुआ जब तेलंगाना के अब्दुल समद ने अपनी तलाकशुदा पत्नी को दस हजार रुपये महीने का गुजारा भत्ता देने के हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। यह फैसला मुस्लिम ही नहीं हर धर्म की महिलाओं से जुड़े मामलों में पूरी तरह से लागू माना जायेगा। मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के त्याग को जो महत्व दिया है वह नारी के पवित्रता भरे आचरण परित्याग पर केंद्रित है कि वह आर्थिक मदद की उस समय और भी हकदार हो जाती है जब उसका पति उसे छोड़ देता है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि पतियों को पता ही नहीं है कि जो पत्नी यानि कि घर चलाने वाली गृहिणी है वह भावनात्मक रूप से सिर्फ उसी पर निर्भर है। महिलाओं को समानता का यह उदाहरण अपने आप में ऐतिहासिक फैसला है।
मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि अगर मुस्लिम पक्ष की बात करें तो पर्सनल लॉ को या तलाक या अधिकारों के संरक्षण की बात करें तो पति लोग इसे चैलेंज करते हैं और सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाते हैं। तीन तलाक व्यवस्था पहले ही खत्म हो चुकी है तथा गुजारा भत्ता के केस में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया वह नारी के त्याग के साथ-साथ उसके संघर्ष की कहानी भी बयान करता है। महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह फैसला एक बहुत मजबूत पग के रूप में देखा जाना चाहिए। अब रही बात पुरुष और नारी को बराबरी का दर्जा देने की तो वैसे कोर्ट ने इसकी अच्छी व्यवस्था भी दी है परंतु मैं व्यक्तिगत रूप से मानती हूं कि इस मामले में पुरुषों को नारी की वर्किंग को समझना होगा। यद्यपि संविधान पुरुष और महिलाओंं को बराबरी का दर्जा देता है लेकिन व्यावहारिक रूप से ऐसा नजर नहीं आता। सही मायनों में महिला ही घर को चलाती है तो वह भावनात्मक रूप से परिवार की नींव रखती है और मुस्लिम समाज में उसी महिला को आगे चलकर ठुकरा दिया जाता है। यह बात अन्य समाजों में भी घटित हो सकती है। तो सुप्रीम कोर्ट ने उसके इसी भावनात्मक पक्ष को समझाया है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था भी दी है कि किसी भी धर्म की महिला हो पति को चाहिए कि ऐसी स्थिति में वह पत्नी के साथ ज्वाइंट खाता खुलवाए और एटीएम कार्ड देकर पत्नी को पैसा मिलना चाहिए।
मेरा खुद का मानना है कि इससे परित्यक्त महिला के जीवन में आर्थिक स्थिरता आएगी और उसे उसका न केवल हक बल्कि सम्मान भी मिल सकेगा। जब कोई पुरुष अपनी पत्नी को त्याग देता है तो सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक परेशानियों के साथ-साथ सम्मान की होती है। आमतौर पर जब महिलाओं की आर्थिक मजबूती की बात की जाती है तो सवाल यह है कि एक महिला को धन के लिए पति के पीछे-पीछे क्यों चलना पड़े? सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि गुजारा भत्ता कोई दान नहीं है बल्कि शादीशुदा महिलाओं का अधिकार है। आमतौर पर तलाक देने के बाद पुरुष लोग गुजाराभत्ता न देने के लिए अदालत का मुंह करते हैं लेकिन यहां तेलंगाना के अब्दुल समद ने हाईकोर्ट के आदेश को ही चुनौती दे डाली तो इस तरह के करोड़ों केस अब भी पेंडिंग है और उनका निष्पादन भी जल्दी हो सकेगा क्योंकि गुजारा भत्ता देने के इस फैसले को एक उदाहरण यानि कि रैफ्रेंस के रूप में नियुक्त किया जा सकेगा। महिलाओं के इस प्रकार के केस हो या उनकी भावनाओं से जुड़े या महिलाओं पर अपराध को लेकर कोई भी मामला हो उसका हल जल्दी से जल्दी निकलना चाहिए क्योंकि इंसाफ तो उसे ही कहेंगे जो समय पर मिलता है। साथ में यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कोई महिला किसी भी कानून का दुरुपयोग न करे।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के राज्य में भी महिलाओं के सम्मान के उदाहरण दिये जाते रहे हैं। लेकिन आर्थिक सुरक्षा के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो महिलाओं के त्याग को समझकर जो फैसला लिया है उससे पूरी भारतीयता भी जुड़ी है और न्याय दिलाने की दिशा में भी इसे एक सार्थक पहल के रूप में देखा जाना चाहिए। समय-समय पर महिलाओं से जुड़े मामलों पर संशोधन और परिवर्तन होते रहे हैं लेकिन यहां हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता और धर्मतटस्थ अर्थात सब धर्म बराबर है का इससे बेहतरीन उदाहरण नहीं हो सकता। आज की तारीख में तीन तलाक कानून तो पहले ही खत्म हो चुका है। शाह बानो के केस में तीन दशक पहले तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने कटरपंथियों की मांगों के आगे समर्पण कर दिया था, इस तुलना में गुजारा भत्ता महिलाओं का हक है यह एक यर्थाथ भरा उदाहरण है इसलिए सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का दिल खोलकर स्वागत किया जाना चाहिए।
अभी-अभी सेना के शहीद के माता-पिता की भी एक खबर आई है जिसका जिक्र में अगले आर्टिकल में करूंगी। उस पर कुछ सोचना पड़ेगा। क्योंकि शहीद की पत्नी जितनी महत्वपूर्ण है उतने उसके माता-पिता भी हैं, जिन्होंने बेटा खोया है।