विभाजन के अभिशप्त महानायक
विभाजन-विभीषिका दिवस मनाने और उसके अगले दिन स्वाधीनता दिवस समारोहों की थकान व खुमारी कई दिन तक भारतीय उपमहाद्वीप में छाई रहती है। आज भी थोड़ा संदर्भ वही है। कभी-कभी लगता है कि विभाजन के लिए पहली पंक्ति वाले मुख्य किरदारों के अंतिम लम्हे भी सुखद नहीं बीते। पाकिस्तान के संस्थापक एवं सूत्रधार माने जाने वाले कायदे आज़म 30 जनवरी के गांधी जी के त्रासद अंत से अत्यंत भयभीत हो गए थे। उन्होंने कराची स्थित अपने राजकीय-आवास की सुरक्षा भी बढ़ा दी थी और कभी बाहर भी नहीं निकलते थे। उनका निधन भी एम्बुलेंस न मिलने की हालत में सड़क पर ही हो गया था। यह वही वर्ष था जब बापू गांधी की हत्या हुई थी।
कुछ लोगों की मान्यता है कि इन सबको नियति ने इस महाद्वीप में लाखों हत्याओं और करोड़ों के उजड़ने का अपराधी ठहराया था। प्रथम पंक्ति के किसी भी नेता को जीवन में सुखद लम्हे प्राप्त नहीं हो पाए थे। बापू की हत्या के बाद जिन्ना ने भी सड़क पर दम तोड़ा था। पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को भी एक जनसभा में गोली मार दी गई थी। माउंटबेटन वापिस लौटने के बाद एक मामूली नाविक की गोली का शिकार हुए थे। सरदार पटेल ने 562 भारतीय रियासतों के विलय सरीखी अद्भुत उपलब्धि के बावजूद तनावमय जीवन काटा।
भारत विभाजन की तर्कविहीन रेखाएं खींचने वाला रैडक्लिफ 17 अगस्त को अपनी अंतिम रिपोर्ट देने के तत्काल बाद भयाक्रांत स्थिति में यहां से प्रस्थान कर गया था। तो क्या ये असामयिक घटनाएं किसी अंजाने अभिशाप की परिणति थीं? चलिए, फिलहाल रैडक्लिफ की बात कर लें। सारा कुछ इतनी जल्दी में हुआ कि सभी पहलुओं को बारीकी से देख पाना मुमकिन ही नहीं था। तय तो यह था कि रैडक्लिफ अवार्ड सत्ता हस्तांतरण से कुछ दिन पहले ही घोषित हो जाएगा। इसे 16 अगस्त तक स्थगित रखा गया, माउंटबेटन के आदेश पर। वह नहीं चाहते थे कि अवार्ड की कुछेक विसंगतियों का असर भारत-पाकिस्तान के स्वाधीनता समारोहों पर पड़े। मगर इस देरी से आम लोगों में बेहद ‘कन्फ्यूजन’ फैला, अफवाहें जमकर फैली और लोग जो हाथ में आया उसी को बगल में ठूंसकर दिशाहीन स्थिति में घरों से निकल पड़े। लुटेरों व आपराधिक तत्वों के लिए यह एक ‘इलाही’ या ‘ईश्वरीय’ देन थी। उन्हें कट्टरपंथियों से भी मदद मिली। एक गलत काम यह भी हुआ कि पंजाब की सीमा का ‘रूट’ आखिरी लम्हे में बदल दिया गया। इसके लिए अलग-अलग विशेषज्ञों, विद्वानों व समकालीन इतिहासज्ञों ने माउंटबेटन, रैडक्लिफ व कुछ उच्चाधिकारियों को भी दोषी ठहराया।
अगस्त के पहले सप्ताह में शिमला में अपने अधिकारियों के साथ लंच के समय रैडक्लिफ ने संकेत दिए कि वह जि़ला िफरोजपुर के कुछ भाग पाकिस्तान को देंगे ताकि जि़ला गुरदासपुर व जि़ला लाहौर के कुछ क्षेत्र भारत को दिए जा सकें लेकिन भौगोलिक दृष्टि से यह बेहद गलत फैसला होता। बाद में सही समय पर यह प्रस्ताव रैडक्लिफ ने स्वयं ही रद्द कर दिया। इस सारी प्रक्रिया का एक-एक पल ‘कन्फ्यूजन’ से भरा हुआ था।
अगले दो दिन तक सीमा रेखा में बदलावों का सिलसिला जारी रहा। वीपी मेनन, पंडित नेहरू, पंजाब के सिंचाई आयोग के अध्यक्ष और बीकानेर के महाराजा द्वारा प्रेषित सुझावों के आधार पर भी कुछ बदलाव लाए गए। आखिर फैसला यह हुआ कि जि़ला िफरोज़पुर को न छेड़ा जाए। महाराजा बीकानेर स्वयं भी माउंटबेटन से मिले थे। उन्होंने भी स्पष्ट किया था कि यदि जि़ला िफरोज़पुर से छेड़छाड़ हुई तो तय है कि उत्तरी राजपूताना को सिंचाई व पेय जल नहीं मिल पाएगा। जिन्ना को तब भी शिकायत थी कि उनकी प्रस्तावित ‘होमलैंड’ का भी विभाजन हो रहा था। कांग्रेस के नेता भी सभी मुद्दों पर नाराज़ थे। सिखों को अपना रंज था।
रैडक्लिफ 17 अगस्त को ही वापिस लौट गया। वह जानता था कि बहुत सी दुखद घटनाओं के लिए उसे जि़म्मेदार ठहराया जाएगा। स्वदेश वापसी पर उसे ‘लॉ-लार्ड’ का पद दिया गया। एक बार उससे एक पत्रकार ने पूछा था कि क्या वह फिर भारत जाना चाहेगा? उसका जवाब था, ‘यदि कोई राजकीय हुक्म मिला, तब भी नहीं। मुझे लगता है कि यदि गया तो वहां दोनों पक्षों के लोग मुझे गोलियों से भून डालेंगे।’
रैडक्लिफ के करीबी लोगों के अनुसार विभाजन के रक्तपात की खबरों से वह बेहद तनाव से गुज़रता रहा। मगर उसे सरकारी एवं राजकीय सम्मान मिलते रहे। 1977 में एक ‘विस्काउंट’ के रूप में उसने आखिरी सांस ली। उसे शायद जीते जी इस बात का अहसास नहीं था कि सिर्फ छह सप्ताहों की नौकरी उसे भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पृष्ठ दे डालेगी।
अब इतिहासज्ञ व विशेषज्ञ इस बात को स्वीकारते हैं कि यदि थोड़ी सावधानी और सजगता से काम लिया जाता तो विभाजन की अकल्पनीय विभीषिका से बचा जा सकता था। ऐसे अनेक मंज़र सामने आए जब किसी एक गांव को बीच में से बांटना पड़ा। एक गांव का कुछ भाग पाकिस्तान को मिला, शेष हिन्दुस्तान को। रैडक्लिफ घनी आबादी वाले क्षेत्रों के बीच विभाजक रेखा के हक में था। मगर इससे कई ऐसे घर भी बंटे जिनके कुछ कमरे भारत में गए, कुछ पाकिस्तान में। रैडक्लिफ बार-बार एक ही दलील देते ‘हम कुछ भी कर लें लोग बर्बादी तो झेलेंगे ही।’ रैडक्लिफ ने ऐसा क्यों कहा, यह शायद स्पष्ट नहीं हो पाएगा, क्योंकि भारत छोड़ने से पहले उसने सारे नोट्स (अंतिम रपट के अलावा) नष्ट कर दिए थे ताकि बाद में विवादों के मुद्दे न उठें। वैसे भी उसे भारत की आबोहवा रास नहीं आ रही थी। वह जल्दी से जल्दी स्वदेश लौटना चाहता था। समूची विभाजक कार्यवाही यथासम्भव गुप्त रखी गई। अंतिम रपट (अवार्ड) 9 अगस्त, 1947 को तैयार हो गई थी, मगर उसे विभाजन से दो दिन बाद 17 अगस्त को ही सार्वजनिक किया गया।
एक बात बाद में बदली गई। सतलुज नहर का पूर्वी भाग पाकिस्तान के बजाय भारत को दिया गया हालांकि उस क्षेत्र में दो तहसीलें मुस्लिम बहुल जनसंख्या वाली थीं। चर्चित लेखिका आयशा जलाल ने अपनी एक पुस्तक ‘दी सोल स्पोक्समैन : जिन्ना’ में इस बात का खुलासा भी किया है कि जिन्ना ने ‘मुस्लिम फैक्टर’ का प्रयोग मज़हबी कारणों से कम और सियासी कारणों से ज़्यादा किया था। दरअसल मुस्लिम लीग, कभी कट्टर धार्मिक पार्टी थी ही नहीं। ‘मिल्ल्त’ के लोग वैसे भी जिन्ना व लियाकत में ज़्यादा भरोसा नहीं रखते थे। इसलिए बंटवारे से जुड़ी बातों पर उनकी पैनी व कड़ी नजर बराबर बनी हुई थी।
रैडक्लिफ की उम्र उस समय सिर्फ 48 वर्ष थी। 8 जुलाई, 1947 से लेकर 9 अगस्त तक उसने किसी भी सामाजिक समारोह या गतिविधि में शिरकत नहीं की। वह सिर्फ अपने काम में ही व्यस्त रहा। थोड़ी सी अवधि में बहुत बड़े काम को अन्जाम देना आसान नहीं था। यह काम कितना टेढ़ा था इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि शुरूआती दौर में माउंटबेटन ने यह काम यूएनओ को सौंपने का मन बना लिया था। मगर बाद में पंजाब व बंगाल के लिए दो सीमा आयोगों को बेहतर विकल्प माना गया।
ज्यादातर मुसलमान तब भी यही मानते थे कि पाकिस्तान बनने के बाद भी हिन्दुस्तान में आने-जाने की सहूलियत कायम रहेगी। अनेक समृद्ध मुसलमानों ने अपनी कई सम्पत्तियां बम्बई व दिल्ली में बदस्तूर बनाए रखीं। जिन्ना ने मालाबार हिल बम्बई (अब मुम्बई) स्थित अपनी कोठी बेची नहीं थी हालांकि दिल्ली वाली कोठी उन्होंने बेच दी थी। बम्बई से जिन्ना अनेक मामलों में जुड़े हुए थे। इनमें से एक कारण रत्ती की स्मृतियां भी थीं। रैडक्लिफ व्यावहारिक मामलों में कोरा था। अपनी नियुक्ति से पहले उसने वेतन भत्तों, परिवार खर्च, नि:शुल्क यात्रा, नि:शुल्क रहन-सहन जैसी छोटी-छोटी शर्तें भी अपनी सरकार से लिखित में मनवाईं। ज़ाहिर है वह न तो राजनीतिज्ञ था, न ब्यूरोक्रेट। उसकी नियुक्ति उसकी पेशेवराना योग्यताओं के मद्देनज़र ही हुई थी। मगर उसके महत्व का अंदाज़ा सबको तब लगा जब कांग्रेस व मुस्लिम लीग के शिखर नेताओं को अपना-अपना मांग पत्र उसे देने के लिए स्वयं जाना पड़ा। उसे एक पंजाबी अंगरक्षक दिया गया जो सदा कमर में दो पिस्तौलें रखता था। उसके एक हाथ में बंदूक होती थी मगर वह पुलिस यूनिफार्म में नहीं होता था। वह छाया की तरह रैडक्लिफ के साथ चिपका रहता।
- डॉ. चन्द्र त्रिखा