आरएसएस-भाजपा रिश्तों में दूरियां नहीं !
संघ-भाजपा विचारक व प्रचारक, सुनील अंबेकर ने अपनी पुस्तक, "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ": स्वर्णिम भारत के दिशा सूत्र में जो विचार रखे हैं, उनसे प्रकट होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भाजपा एक जान दो जिस्म हैं, जिस में किसी शक की कोई गुंजाइश नहीं है। संघ एक विचारधारा है और भाजपा एक्शन, अर्थात् इस विचारधारा का व्यावहारिक व राजनीतिक निचोड़। किसी भी विचारधारा पर आधारित इस प्रकार की सक्षम व प्रथम जोड़ी विश्व में कहीं भी देखने को नहीं मिलती। इस विलेक्षण लव-कुश जैसी जोड़ी की दिल से प्रशंसा इसलिए बनती है कि ये दोनों धड़े, अपनी विचारधारा से टस से मस नहीं होते। यही कारण है कि सौ वर्ष के अनथक परिश्रम के पश्चात् आज हम देखते हैं कि कांग्रेस जैसे मज़बूत संगठन की कमियों को जनता के समक्ष रख ये सनातनी उसका विश्वास जीतने और तीसरी बार अपनी सत्ता बनाने में कामयाब रहे। मगर अब ऐसा प्रतीत होता है कि इस ताकतवर जहाज की पेंदी में कहीं सुराख बनने शुरू हो गए हैं, जिनको समय पर भरा नहीं गया तो "टाइटैनिक" की भांति इतनी मेहनत से बनाया यह जहाज डूब सकता है, जिसकी दिली मनोकामना इंडी गठबंधन की है।
वास्तव में लव-कुश की इस जोड़ी में वह पहले जैसा वात्सल्य बना नहीं दिख रहा है। आरएसएस-भाजपा के रिश्ते पहले जैसे दूध और शकर जैसे, नहीं दिखाई पड़ते। वास्तविकता में तो ये ऐसे ही जुड़े हैं, जैसे शरीर में गोश्त से नाखून। कहीं भाजपा के वरिष्ठ नेता, जगत प्रकाश नड्डा, यह कहकर आरएसएस का वजन हल्का करने का प्रयास करते हैं कि भाजपा को या सरकार को अब संघ की आवश्यकता नहीं।
उधर संघ के सुतून और कद्दावर नेता, इंद्रेश कुमारजी भी दर्द-ए-दिल आख़िरकार छलक ही जाता है, जब वे एक चैनल पर भाजपा सरकार को अहंकार से बचने के लिए नेकी का सबक देते हैं। सच्चाई तो यह है कि एक घर में जब बहुत से बर्तन होते हैं, तो कभी-कभी आपस में खड़क ही जाते हैं। जब भी इस प्रकार से संघ में, भाजपा में या दोनों के बीच कोई समस्या आती है, या चकल्लिश हो जाती है तो इस ज्वाला पर पानी डालने का काम सरसंघचालक, डा. मोहन भागवत ही करते हैं। यही नहीं, आए दिन, हिंदू-मुस्लिम रटाखों, पटाखों की ज्वाला पर भी वे पानी डाल ठंडक का वातावरण बनाते हैं। किसी स्थान पर व्याख्यान देते हुए उनकी भी दर्द की टीस निकली थी कि आज आरएसएस वह नहीं, जो हेडगेवार, गोलवलकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, वीर सावरकर, दत्तोपंत ठेंगड़ी और केदारनाथ साहनी के समय हुआ करती थी। अल्लाह जाने, उनका इशारा किस जानिब था। यह तो संगठन वाले ही जानते होंगे। जिस समय राम मंदिर की स्थापना हो रही थी, आरएसएस विश्व हिंदू परिषद की राम मंदिर स्थापना कमेटी के सर्वे सर्वा चंपत राय से खुश नहीं थी कि किस प्रकार से उसके लिए जमीन की व्यवस्था की गई, क्योंकि आरएसएस एक ऐसा संगठन है, जो ठेठ ईमानदार और इंसाफ परस्त है और इसके कार्यकर्ताओं में न तो लालच होता है, न अहं व घमंड और सबसे महत्वपूर्ण, महत्वाकांक्षा से ये कोसों दूर रहते हैं। एक सामान्य आरएसएस कार्यकर्ता अपनी जात को समाप्त कर संगठन व समाज के लिए अपने को समर्पित कर देता है, जब दिल्ली में भीम राव अंबेडकर सभागार में सावरकर पर एक संगोष्ठी पर पूछा गया कि वे पूर्ण रूप से सावरकर को समर्पित हैं तो किसी अच्छे पद पर क्यों नहीं आसीन होते, तो इस पर उन्होंने हाथ जोड़ते हुए कहा कि हेडगेवारजी ने इस प्रकार की मानसिकता से सदा दूर रहने का सबक़ दिया है। उर्दू का वह मुहावरा याद आ गया कि रंग लाती है हिना, पत्थर से पिस जाने के बाद। वैसे भी आरएसएस अपने कर्मठ कार्यकर्ताओं को संगठन से भाजपा पार्टी में समय-समय किसी पद पर भेजती रहती है।
27 सितंबर, 1925 को जब विजय दशमी के पावन दिवस पर समाज को सशक्त बनाने के उद्देश्य से डॉक्टर जी, अर्थात् हेडगेवार साहब ने समाज को सशक्त बनाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी तो उनकी आयु 36 वर्ष थी और उनके मन में राजनेता बनने की कोई महत्वकांक्षा हर्गिज नहीं थी, क्योंकि यदि वे राजनेता बनना चाहते तो बजाय संघ के एक पार्टी की स्थापना करते, मुख्यमंत्री, मंत्री आदि बनते, मगर उनका यह लक्ष्य था ही नहीं।
उन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए भी अपने को समर्पित किया हुआ था। स्वयंसेवकों के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने पर उन्हें अंग्रेज सरकार ने एक साल तक जेल में बंद रखा था खेद का विषय यह है कि डॉक्टर जी के अद्वितीय व्यक्तित्व, यथार्थवादिता और दूरदर्शिता की खूबियों के अतिरिक्त जो और उनमें अनगिनत गुण थे, आज उनके पद चिन्हों पर चलने वाले स्वयंसेवकों और भाजपाई कार्यकर्ताओं में ऐसा नहीं देखा जा रहा।