महाराष्ट्र में क्या बहनें करेंगी बेड़ा पार ?
मैं तो क्या...महाराष्ट्र का हर व्यक्ति उम्मीद लगाए बैठा था, यहां तक कि राजनीतिक दल भी उम्मीद लगाए बैठे थे कि महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव दिवाली से पहले हो जाएंगे। इस उम्मीद की वजह यह थी कि वर्ष 2009, 2014 और 2019 में दोनों राज्यों के चुनाव एक साथ हुए थे, इस बार चुनाव आयोग को लगा कि महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में अतिवृष्टि और बाढ़ के कारण स्थिति ठीक नहीं है और लोगों को उत्सव मनाने का मौका भी मिलना चाहिए, इसलिए हरियाणा के साथ जम्मू-कश्मीर के चुनाव की घोषणा तो हुई लेकिन महाराष्ट्र की नहीं। महाराष्ट्र विधानसभा का कार्यकाल 26 नवंबर को समाप्त होने वाला है और हरियाणा का 3 नवंबर को। इस तरह का कम अंतर यदि विभिन्न राज्यों के बीच होता है तो चुनाव आयोग की कोशिश होती है कि एक साथ चुनाव करा लिए जाएं। पिछले तीन चुनावों में ऐसा ही हुआ था, इस बार चुनाव आयोग का नजरिया अलग हुआ तो स्वाभाविक है कि विपक्षी दल मुद्दा तो उठाएंगे। वे यह सवाल पूछेंगे ही कि पिछले तीन चुनाव में भी तो प्रचार के दौरान बारिश का मौसम था, उत्सव के दिन थे, फिर चुनाव कैसे हुए? इस बार क्या अलग है? त्यौहार तो हरियाणा में भी है। जहां तक सुरक्षा का मसला है तो प्रधानमंत्री एक देश एक चुनाव की बात कर रहे हैं और यहां तो चुनाव आयोग एक साथ कुछ राज्यों के चुनाव में भी सुरक्षा व्यवस्था की बात कर रहा है? विपक्षी दल इन सारी बातों को संदेह की नजर से देख रहे हैं।
विपक्षी दलों का सबसे गंभीर आरोप लाडली बहना योजना को लेकर है, मूल रूप से यह योजना असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के दिमाग की उपज थी जिसे मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने लागू किया और भाजपा को इसका लाभ भी मिला। पिछले लोकसभा चुनाव में जहां पूरे देश में भाजपा को झटका लगा वहीं मध्य प्रदेश में उसका कोई बाल बांका नहीं कर पाया। इधर महाराष्ट्र की 48 सीटों में से महाविकास आघाड़ी ने 31 सीटें झपट ली हैं और एनडीए के खाते में केवल 17 सीटें ही आई हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि लोकसभा चुनाव के परिणाम को विधानसभा क्षेत्रों में बांट कर देखें तो 288 सीटों में से 154 सीटों पर महाविकास आघाड़ी को बढ़त मिली थी। इनमें कांग्रेस को 63, शिवसेना (यूबीटी) को 57 और एनसीपी (शरद) को 34 सीटों पर बढ़त हासिल थी। जबकि एनडीए को 127 सीटों पर बढ़त मिली जिनमें भाजपा को 80, शिवसेना (शिंदे) को 37 और अजित पवार वाली राकांपा को 6 सीटों पर बढ़त मिली थी लेकिन मेरा मानना है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में काफी अंतर होता है। मतदाताओं का मूड और नजरिया बिल्कुल अलग होता है, इसके ढेर सारे प्रमाण मौजूद हैं। वैसे एक दिलचस्प बात यह भी है कि लोकसभा चुनाव के ठीक बाद हुए महाराष्ट्र और हरियाणा के पिछले तीन चुनावों में ज्यादा फायदा उसी दल को हुआ जिसकी केंद्र में सरकार रही है। इस बार केंद्र में एनडीए की सरकार है लेकिन अपने दम पर भाजपा के पास बहुमत नहीं है, तो यह सवाल पैदा होना स्वाभाविक है कि इस बार महाराष्ट्र में क्या होगा?
बहरहाल, भाजपा ने मध्य प्रदेश वाली राह पकड़ी है और लाडली बहना योजना की यहां भी शुरुआत कर दी। योजना के तहत आवेदन की अंतिम तिथि 31 अगस्त है, 14 अगस्त तक 1.62 करोड़ महिलाओं ने इस योजना के तहत पंजीकरण कराया है। इनमें से 80 लाख महिलाओं के खाते में 1500 रुपए प्रतिमाह के हिसाब से दो महीने के 3000 रुपए जमा भी हो चुके हैं। विपक्षी दलों को लगता है कि चुनाव में थोड़ी देरी से सरकार को इस योजना के तहत सभी पात्र महिलाओं के खाते में पैसा भेजने का मौका मिल जाएगा, लेकिन सवाल यह है कि क्या एनडीए को इसका फायदा वास्तव में मिल पाएगा? केंद्र सरकार पूरे देश में करीब 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दे रही थी लेकिन क्या चुनाव में इसका फायदा भाजपा को मिला? महाराष्ट्र के संदर्भ में लाड़ली बहना योजना से लाभ का जवाब वक्त के गर्भ में है। अब चलिए जरा जम्मू-कश्मीर, 2014 के बाद वहां विधानसभा के चुनाव नहीं हुए। पिछले चुनाव में वहां 87 सीटें थीं जिनमें लद्दाख की 4 सीटें भी शामिल थीं। जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख दोनों ही केंद्र शासित प्रदेश हैं, फर्क इतना है कि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा है जिसकी 90 सीटें हैं। परिसीमन कुछ ऐसा हुआ है कि जम्मू संभाग में 6 सीटें बढ़ीं तो घाटी वाले इलाके में केवल 1 सीट का इजाफा हुआ है, राज्यपाल अलग से 5 सदस्यों का मनोनयन करेंगे।
2019 में अनुच्छेद 370 हटने के बाद वहां बहुत कुछ बदल चुका है, जम्मू-कश्मीर ने एक नया उजाला देखा है। विकास की नई धारा प्रवाहित होने से हमारा पड़ोसी पाकिस्तान जल-भुन गया है, इसलिए उसने वहां आतंकवादी हरकतें बढ़ा दी हैं। हम चुन-चुन कर आतंकवादियों को मार रहे हैं लेकिन हमारे कई सैन्य अधिकारी और जवान भी शहीद हुए हैं। जम्मू-कश्मीर के पूर्व डीजीपी एस.पी. वैद की मानें तो पाकिस्तानी सेना के 600 कमांडो कश्मीर में घुस चुके हैं। उनका सफाया तो हमारी सेना कर देगी। असली मुद्दा यह है कि घाटी के लोग आतंकियों से कैसे निपटते हैं, निश्चय ही जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए चुनावी पिटारे से अमन का दूत पैदा करने का यह सुनहरा मौका है।