संसद सत्र क्यों छोटा होता जा रहा है ?
1953 में जब स्वतन्त्र भारत की पहली लोकसभा में इसके तत्कालीन अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रखा गया तो विपक्ष की मंशा साफ थी कि अध्यक्ष महोदय पक्षपात कर रहे हैं परन्तु यह भी स्पष्ट था कि श्री मावलंकर कांग्रेस पार्टी के सदस्य होने के बावजूद विपक्ष को लोकसभा के भीतर अपनी बात कहने का पूरा मौका दे रहे थे और यह मानते थे कि संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का ही होता है। परन्तु वह दौर स्वतन्त्रता सेनानियों का दौर था। लोकसभा में अधिसंख्य सदस्य वही थे जिन्होंने भारत की स्वतन्त्रता के लिए निजी स्वार्थ की कुर्बानियां दी थीं। इसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष में ज्यादा भेद नहीं था। केवल कुछ सांसद ही ऐसे थे जिन्होंने इस महायज्ञ में आहुति नहीं डाली थी। ऐसी पृष्ठभूमि में ही स्व. मावलंकर ने यह स्वयं स्वीकार किया था कि भारत में ऐसा समय भी आ सकता है जब अध्यक्ष पद पर बाहर से किसी निष्पक्ष व्यक्ति को बैठाने की मांग की जाये। लाख विसंगतियों के चलते अभी भारत में ऐसी मांग किसी भी तरफ से नहीं हुई है। मगर इसके विपरीत जिस तरह संसद के चलने की अवधि लगातार छोटी होती जा रही है उससे दुनिया के सबसे बड़े संसदीय लोकतन्त्र कहे जाने वाले भारत में संसद की भूमिका को लेकर चिन्ता अवश्य हो सकती है।
1952 में गठित पहली संसद में लोकसभा साल में कुल 135 दिन चली थी। राज्यसभा भी 90 दिन से ऊपर ही चली थी। दूसरी और तीसरी लोकसभा में भी यही परंपरा निभाई गई। मगर धीरे-धीरे इसमें कमी आती गई और 1971 के बाद से संसद का सत्र लगातार छोटा होता चला गया तथा 90 के दशक में 70 दिनों तक पहुंच गया। यह परंपरा भी 2014 तक चलती रही परन्तु वर्तमान में यह 55 दिनों तक सिमट गया। दुनिया के सभी खुले लोकतान्त्रिक देशों की संसद के सत्रों की तुलना में यह समयावधि बहुत कम आंकी जाती है। इसका क्या कारण है? क्या विपक्ष का हो-हल्ला इसका कारण हो सकता है? यदि ऐसा है तो क्या विपक्ष संसद में केवल सत्तापक्ष की हां में हां मिलाने के लिए बैठा हुआ होता है? जाहिर है कि ऐसा नहीं है क्योंकि लोकतन्त्र में विपक्ष की भूमिका बहुत संजीदा होती है। विपक्ष का नेता छाया प्रधानमन्त्री होता है और वह अपने विमर्श में वैकल्पिक नीतियों की वकालत करता है। जिन्हें स्वीकार या अस्वीकार करना सत्तारूढ़ दल का विशेषाधिकार होता है। विपक्ष की इसलिए आलोचना नहीं की जा सकती कि वह संसद की कार्यवाही में व्यवधान डालता है बल्कि इसलिए आलोचना की जा सकती है कि उसके पास कोई वैकल्पिक विचार नहीं है। लोकतन्त्र में विपक्ष का धर्म सत्ता पक्ष का विरोध (अंध विरोध नहीं) करना होता है और सरकारी नीतियों की खामियों को उजागर करना होता है और यदि आवश्यकता पड़े तो उसे सत्ता से बेदखल करने का भी होता है।
मुझे याद आता है कि जब 1977 में केन्द्र में पहली बार कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करके विपक्ष की पंचमेल जनता पार्टी की मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनी तो विपक्ष के नेता लोकसभा में कांग्रेस की तरफ से केरल के नेता श्री सी.एम. स्टीफन बनाये गये। श्री सी.एम. स्टीफन ने विपक्ष के नेता के तौर पर जनता पार्टी की सरकार की नीतियों के हर मोर्चे पर छक्के छुड़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कि उन्होंने भारतीय संस्कृति के मुद्दे पर जनता पार्टी में विलीन हुई जनसंघ के हिन्दुत्व को भी भारतीयता के रंग में जिस तरह परिभाषित किया उससे तत्कालीन सरकार के विदेश मन्त्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। बाद में 1980 के लोकसभा चुनावों में इन दोनों दिग्गजों की दिल्ली की नई दिल्ली लोकसभा सीट पर टक्कर भी हुई जिसमें श्री वाजपेयी बामुश्किल साढे़ तीन हजार वोटों से ही जीत पाये। श्री स्टीफन बेशक पराजित हो गये थे मगर एक दक्षिण भारतीय इसाई होने के बावजूद उन्होंने उत्तर भारत के सर्वमान्य नेता अटल बिहारी वाजपेयी को कड़ी मुश्किल में डाल दिया था। कहने का मतलब यह है कि विपक्ष के नेता का रुतबा किसी भी दृष्टि से कम करके आंकना स्वयं सत्ताधारी दल के लिए ही हानिकारक होता है। इस चुनौती का सामना संसद चलने की समयावधि घटा कर नहीं किया जा सकता है।
संसद ही चुने हुए प्रतिनिधियों की योग्यता की पहचान कराती है और बताती है कि जनता ने अपने जो नुमाइन्दें लोकसभा में भेजे हैं उनमें से प्रत्येक की योग्यता देश को चलाने की होनी चाहिए। भारत में प्रधानमन्त्री का चुनाव सीधे जनता नहीं करती है बल्कि संसद में पहुंचे हुए प्रतिनिधि करते हैं। लोकसभा में बहुमत में पहुंचे दल के प्रतिनिधि जिस सांसद को अपना नेता चुनते हैं वही प्रधानमन्त्री बनता है। मगर हम देख रहे हैं कि संसद की अवधि 55 दिनों की रह जाने के बावजूद सरकारी विधेयकों की संख्या में कोई कमी दर्ज नहीं हो रही है। इसका नतीजा यह निकल रहा है कि संसद में अधिसंख्य विधेयक बिना समुचित चर्चा के ही पारित हो रहे हैं। संसदीय प्रणाली की यह सबसे बड़ी विसंगति है। स्व. प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री के समय में विधेयकों पर विचार करने के लिए संसद की स्थायी समिति के गठन की परंपरा की शुरुआत हुई थी। इसका उद्देश्य यही था कि विधेयक पर समिति में सर्वसम्मति से अंतिम निर्णय पर पहुंचा जा सके। समिति में संसद में मौजूद सभी प्रमुख राजनैतिक दलों का आनुपातिक प्रतिनिधित्व होता है। इसमें विधेयक पर सर्वसम्मति बना कर ही संसद को भेजा जाता है। समिति में मतदान कराने की प्रथा नहीं होती। असहमति रखने वाला सांसद अपनी पृथक टिप्पणी दर्ज करा सकता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारत का संविधान स्वयं है। संविधान सभा में विभिन्न दलों के नेता शामिल थे। इसमें जनसंघ के डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी थे औऱ समाजवादी शइब्बन लाल सक्सेना भी थे। साथ ही कई रियासतों के राजे-रजवाड़े भी थे। संविधान सभा ने नियम बनाया कि वह किसी भी मुद्दे पर मतदान नहीं करायेगी बल्कि सर्वसम्मति से ही सभी पक्षों के विचारों को लेकर अंतिम फैसले पर पहुंचेगी।
हम जो आज भारत का संविधान देख रहे हैं वह सर्वसम्मति से बना हुआ दस्तावेज ही है। मगर हमारी संसद में विशिष्ट विषयों पर मत विभाजन के प्रावधान हैं। मगर हमें ध्यान रखना होगा कि 80 के दशक में दल-बदल कानून के बन जाने के बाद हर दल के सांसदों के सामने अपनी पार्टी का व्हिप (निर्देश) मानने की मजबूरी भी है। इसके चलते सांसद अपनी अन्तर्आत्मा के अनुसार मतदान नहीं कर सकते हैं। पार्टी अनुशासन मानना उनकी मजबूरी होती है। इस बारे में अलग से बहस हो सकती है कि दल बदल कानून लोकतंत्रीय आजादी के मार्ग में कितना बड़ा अवरोध है। इसके बावजूद यदि संसद की अवधि घटती रहती है तो इसका अर्थ यही निकलता है कि हम अपने लोकतान्त्रिक दायित्व से भाग रहे हैं और विपक्ष को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं जबकि लोकतन्त्र में विपक्ष का दावा सत्ता के हर क्षेत्र में बराबर का होता है क्योंकि विपक्षी सांसदों का चुनाव भी लोकतन्त्र की असली मालिक जनता ही करती है। विचार विनिमय लोकतन्त्र की असली मुद्रा होती है। यदि संसद में इसकी गुंजाइश ही खत्म कर दी जायेगी तो संसदीय लोकतन्त्र की विश्वसनीयता पर ही सवालिया निशान लगने लगेंगे और जनता सोचने पर मजबूर होगी कि वे जिन प्रतिनिधियों को चुन कर संसद में भेजते हैं उनकी उपयोगिता आखिरकार क्या है?