For the best experience, open
https://m.punjabkesari.com
on your mobile browser.
Advertisement

संविधान से छेड़खानी नहीं होनी चाहिए

03:50 AM Jul 03, 2025 IST | Chander Mohan
संविधान से छेड़खानी नहीं होनी चाहिए

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने कहा है कि संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए ‘समाजवादी’ और 'पंथ निरपेक्ष’ शब्दों की समीक्षा होनी चाहिए। उनका कहना है कि यह शब्द संविधान की मूल प्रस्तावना का हिस्सा नहीं थे और बाद में इंदिरा गांधी की इमरजैंसी के दौरान 1976 में 42वें संशोधन से इन्हें जोड़ा गया। इन्हें तब जोड़ा गया जब मूल अधिकार छीन लिए गए थे, संसद ठप्प थी और न्यायपालिका पंगु हो चुकी थी। कांग्रेस ने उनके बयान की आलोचना करते हुए कहा है कि आरएसएस का नक़ाब फिर उतर गया और इन्हें अम्बेडकर का संविधान नहीं मनुस्मृति चाहिए। लेकिन क्या वाक़ई संविधान में परिवर्तन करने की कोशिश हो रही है? जो होसबाले ने कहा वह ट्रायल ब्लून था,लोगों की प्रतिक्रिया जानने के लिए छोड़ा गया था?
भाजपा के शीर्ष नेता तो चुप हैं पर केन्द्रिय मंत्री जितेंद्र सिंह ने स्पष्ट कहा है कि भाजपा संविधान की प्रस्तावना से 'सेक्यूलर’ और 'सोशलिस्ट’ हटाने का समर्थन करती है। शिवराज सिंह चौहान ने भी कहा है कि संविधान से इन दो शब्दों को हटाने पर विचार होना चाहिए। पर उसके बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने जो कहा वह तो घोर चिन्ता पैदा करता है कि देश को किस तरफ़ धकेला जा रहा है? महामहिम कहते हैं, “संविधान की प्रस्तावना बहुत पवित्र है। पर इसमें धर्म निरपेक्ष और समाजवाद जोड़े गए...यह ऐसा बदलाव था जो अस्तित्वगत संकट को जन्म देता है। यह शब्द नासूर हैं। यह उथल पुथल पैदा करेंगे...यह सनातन की आत्मा का अपवित्र अनादर है”। उपराष्ट्रपति को अपने विचार प्रकट करने का अधिकार है पर एक शब्द चुभता है, नासूर ! क्या देश के उपराष्ट्रपति सचमुच समझतें हैं कि धर्म निरपेक्षता और समाजवाद ‘नासूर’ हैं? 50 वर्ष से यह चल रहें है इनसे क्या उथल-पुथल पैदा हुई है? और क्या अगर इन्हें हटा दिया जाए तो देश की सारी समस्याएं, रोटी, कपड़ा, मकान, महंगाई, रोज़गार, चीन-पाक आदि हल हो जाएंगी?
इंदिरा गांधी द्वारा लगाई इमरजैंसी देश पर सदा एक कलंक रहेगी। खुद की कुर्सी बचाने और पुत्र संजय गांधी, जो खुद को सरकार से भी ऊपर समझने लगा था, की रक्षा करने के लिए उन्होंने देश को कैदखाने में परिवर्तित कर दिया। 1.2 लाख लोगों को जेल में डाल दिया गया। अभिव्यक्ति की आज़ादी, प्रेस की आज़ादी सब छीन लिए गए। अख़बारों पर सैंसर बैठा दिया गया और 250 पत्रकारों को गिरफ्तार कर दिया गया जिनमें लाला जगत नारायण और रमेश जी भी शामिल थे। प्रताप और वीर प्रताप ने जब ख़ाली जगह छोड़नी शुरू की तो सैंसर ने उसकी भी इजाज़त नहीं दी गई। कई अख़बारों ने प्रतिरोध किया पर बहुत ने समर्पण कर दिया जिस पर लालकृष्ण आडवाणी का कटाक्ष आज तक प्रसिद्ध है कि “जब इन्हें झुकने के लिए कहा गया तो उन्होंने रेंगना बेहतर समझा”।
दिलचस्प है कि जहां आरएसएस के कार्यकर्ता जेपी आन्दोलन की रीढ़ की हड्डी थे संघ प्रमुख बाला साहेब देवरस के विचार अलग थे। उन्होंने जेल से इंदिरा गांधी को प्रशंसा के पत्र लिखे। जब यह भी सफल नहीं हुआ तो उन्होंने विनोबा भावे को पत्र लिखा, “मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि कि प्रधानमंत्री के मन से संघ के बारे जो ग़लत प्रभाव है उसे हटाने की कोशिश करें ताकि संघ पर बैन हट सके और कार्यकर्ता जेल से छूट सकें...और प्रधानमंत्री के नेतृत्व के अधीन...प्रगति में योगदान डाल सकें”। अर्थात् तत्कालीन संघ प्रमुख इमरजैंसी के दौरान इंदिरा गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने को तैयार थे। उन्हें ‘समाजवाद’ या ‘धर्म निरपेक्षता’ से भी कोई समस्या नहीं थी। वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने यह सारा प्रसंग अपनी किताब हाउ प्राइम मिनिस्टरज़ डिसाइड में बताया है। इस बात की पुष्टि अभिषेक चौधरी अपनी किताब वाजपेयी द एसेंट ऑफ द हिन्दू राइट में करते हैं, “देवरस ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों को पुणे के यरवदा जेल से दो-दो पत्र लिखे थे...जिनमें विनती की गई थी कि संघ से प्रतिबंध हटा लिया जाए और सरकार को अपनी संस्था की सेवाएं देने की पेशकश की”। जैसे ज्योत्सना मोहन और मैंने अपनी किताब प्रताप ए डिफायंट न्यूज़ पेपर में लिखा है, “इस बात की अनदेखी की जाती है कि केवल कांग्रेस के लिए ही नहीं, संघ के लिए भी यह असुखद अध्याय था”।
इंदिरा गांधी ने इमरजैंसी क्यों लगाई? 1971 में उन्होंने पाकिस्तान के दो हिस्से करवा बंगलादेश का निर्माण करवाया था। लोकप्रियता चरम पर थी यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी ने उने ‘दुर्गा’ का रूप कहा था। पर उसके बाद संकट पर संकट आता गया। युद्ध का खर्चा, अकाल और तेल संकट से लोगों की मुश्किल बहुत बढ़ चुकीं थी। पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल जो उस वक्त सूचना और प्रसारण मंत्री थे और जिन्हें संजय गांधी के कहने पर हटा दिया गया था, ने बताया था कि ,”इंदिरा गांधी को समझ नहीं आ रहा था कि असंतोष की उठती लहर से कैसे निपटें”। रामधारी सिंह दिनकर की कविता की यह पंक्ति सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है, को लेकर जयप्रकाश नारायण ने देश भर में आन्दोलन खड़ा कर दिया। इंदिरा गांधी का दुर्भाग्य है कि उसी वक्त इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हा ने चुनावी दुराचार के आरोप में रायबरेली से चुनाव को रद्द कर दिया। यह निर्णय 12 जून 1975 को दिया गया। इंदिरा गांधी अपने छोटे पुत्र संजय के प्रभाव में आ गईं और तेरह दिन के बाद 25 जून को देश में इमरजैंसी लागू कर दी गई।
जिस तरह अचानक इमरजैंसी लगाई गई उसी तरह अचानक इसे हटा कर चुनाव की घोषणा कर दी गई। अचानक ऐसे क्यों किया गया जबकि क़ानूनी तौर पर लोकसभा के पन्द्रह महीने बाक़ी थे? संजय गांधी चुनाव करवाने के बिल्कुल विरुद्ध थे पर इंदिरा ने चुनाव करवाने का मन बना लिया था। नीरजा चौधरी अपनी किताब में लिखतीं हैं “संजय की बढ़ती ताक़त और अलोकप्रियता, उनका अपना कमजोर होता सत्ताधिकार, अंतर्राष्ट्रीय राय, आंतरिक दबाव, उनकी अपनी बेचैनी...उन्होंने फ़ैसला किया कि चुनाव करवाने में ही बेहतरी है”। इतिहासकार ज्ञान प्रकाश लिखते हैं कि ,”इंदिरा गांधी अपने शासन की वैधता चाहती थी और उनका विचार था कि चुनाव उनके शासन को वैधता देगा”।
मेरा अपना मानना है कि उनके मन में यह भी था कि वह जवाहरलाल नेहरू की पुत्री है और वह परिवार की विरासत को मिट्टी में मिला रही है। चुनाव हुए और वह बुरी तरह से हार गईं। देश की पहली ग़ैर-कांग्रेस सरकार का गठन किया गया।इंदिरा और संजय दोनों हार गए। लेकिन जनता पार्टी के नेता सम्भाल नहीं सके। अपनी-अपनी ईगो के कारण सरकार लड़खड़ाने लगी। चुनाव की नौबत आगई और इमरजैंसी लगाने के तीन वर्ष बाद ही 1980 में फिर इंदिरा गांधी सत्तारूढ़ हो गई।
आरएसएस का संविधान से रिश्ता भी उल्लेखनीय है। जिस वक्त संविधान को स्वीकार किया गया, संघ प्रमुख गोलवालकर ने इसे मानने से इंकार कर दिया था। उनकी शिकायत थी कि इसमें मनुस्मृति से कुछ नहीं लिया गया। वह हिन्दू राष्ट्र चाहते थे। गोलवालकर ने इसे पश्चिमी विचारों का पुलिंदा कहा था। लेकिन बाद में संघ ने इससे समझौता कर लिया, पर कुछ दुराव रह गया जो दत्तात्रेय होसबाले के कथन से पता चलता है। यह सही है कि प्रस्तावना में जो दो शब्द जोड़े गए वह इमरजैंसी के दौरान जब देश कैदखाना था, जोड़े गए। पर इन्हें देश की जनता ने स्वीकार किया है। जनता पार्टी की सरकार ने भी 42वें संशोधन से कई चीजें हटा दी थी पर इन दो शब्दों को हाथ नहीं लगाया। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि इन दो शब्दों को आम स्वीकृति मिली हुई है और ‘हम भारत के लोग’ स्पष्ट तौर पर इनका मतलब समझते हैं। यह वैध हैं। 1973 में केश्वानन्द भारती मामले पर अपने लैंडमार्क फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘सेक्यूलरिज़म संविधान की बुनियादी संरचना का हिससा है’। और समाजवाद जो सबको बराबरी देता है पर आपत्ति क्या है? क्या वह पूंजीवाद चाहते हैं? जहां इतनी ग़रीबी हो वहां और कौनसा ‘वाद’ चलेगा? सरकार कोई भी आर्थिक नीति बना सकती है, प्रस्तावना तो बाधा खड़ी नहीं करती। इस वक्त देश के 1 % के पास 50% सम्पत्ति है। एक शताब्दी में सबसे अधिक असमानता आज है। सरकार को संतुलन सही करने से कौन रोकता है? सेक्यूलर का अर्थ है कि सरकार की कोई भी नीति धर्म के आधार पर तय नहीं होगी।
धर्म के मामले में सरकार न्यूट्रल है। हमारी संस्कृति उदार और सहिष्णु है जो बात स्वामी विवेकानन्द ने भी बार बार कहीं है।पर इससे भी महत्वपूर्ण है कि भारत की जनता को समाजवाद और धर्म निरपेक्षता से कोई ​दिक्कत नहीं। भाजपा को तो वैसे भी सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि अगर यह प्रभाव फैल गया कि वह संविधान बदलना चाहते हैं तो बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। पिछले चुनाव में भी 400 पार बहुत महंगा पड़ा था क्योंकि प्रभाव फैल गया था कि इसके बाद वह संविधान बदलेंगे।
हमें न घोषित और न ही अघोषित इमरजैंसी चाहिए। प्रगति के लिए देश को चैन चाहिए विवाद नहीं। पहले ही भाषा को लेकर विवाद चल रहा है, आगे जाति जनगणना है जब सर फूटेंगे। बीच में अनावश्यक यह प्रस्तावना का मामला उठा लिया गया। देश की जनता को अपना संविधान पसंद है, अपनी विभिन्नताएं पसंद हैं। एक ही सांचे में डालने की कोशिश का प्रतिरोध होगा। 82 प्रतिशत हिन्दुओं के देश में भाजपा को कभी 38 प्रतिशत से अधिक मत नहीं मिले। इस बार 37प्रतिशत मिले हैं।
इसका मतलब समझिए। इमरजैंसी की ज़्यादतियों को न माफ़ किया जा सकता है, न भूला जा सकता है पर समय की कसौटी पर खरे उतरे प्रस्तावना से भी खिलवाड़ नहीं होना चाहिए। लोगों की तरफ़ से कोई मांग नहीं उठी कि वह संविधान में बदलाव चाहते हैं। और आखिर में मालिक तो जनता है, कोई नेता नहीं, कोई पार्टी नहीं,और न ही कोई अनिर्वाचित संगठन ही है।

Advertisement
Advertisement
Author Image

Chander Mohan

View all posts

Advertisement
×