चुनाव ‘सुधारों’ से चुनावी ‘रेवड़ियों’ तक
भारत के चुनाव आयोग की विश्वसनीयता में जिस प्रकार का क्षरण हो रहा है वह इस देश के लोकतन्त्र के लिए अति चिन्ता का विषय है, क्योंकि पूरे विश्व के लोकतान्त्रिक देशों में हमारे चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा किसी भी सन्देह से ऊपर मानी जाती रही है। भारत की चुनाव प्रणाली का अध्यन करने दुनिया के लोकतान्त्रिक देशों से समय-समय पर सरकारी प्रतिनिधिमंडल भी आते रहे हैं। इसकी कोई एक वजह नहीं है बल्कि कई वजहें हैं जिनमें सबसे बड़ी वजह यह है कि चुनाव आयोग को भारतीय संविधान में स्वतन्त्र व स्वायत्त संस्थान का दर्जा दिया गया है। हमारे संविधान निर्माताओं ने चुनाव प्रणाली को पूरी तरह शुद्ध व पवित्र रखने की गरज से ही यह व्यवस्था की थी और चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों के मामलों में कुछ न्यायायिक अधिकार भी दिये थे जिससे यह संस्था प्रत्येक राजनीतिक दल को संविधान के दायरे में काम करने के लिए विवश कर सकें। चुनाव आयोग को ही इस बात के लिए अधिकृत किया गया कि वह ऐसी चुनाव प्रणाली विकसित करे जो पूरी तरह पारदर्शी व पवित्र हो, परन्तु सत्तर का दशक आते-आते चुनाव प्रणाली में बहुत सी खामियां नजर आने लगीं जिसकी वजह से चुनाव सुधारों की मांग राजनीतिक क्षेत्रों से उठने लगी। इस मांग को प्रभावी तरीके से लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने उस दौर में उठाया और अपने जन आन्दोलन का इसे भी एक मुद्दा बनाया।
1973 में गुजरात से शुरू हुआ छात्र आन्दोलन जब 1974 में बिहार पहुंचा तो यह नागरिक आन्दोलन में तब्दील हो गया और लोगों की प्रार्थना पर इसे नेतृत्व देने के लिए स्व. जय प्रकाश नारायण उर्फ जेपी आगे आये। जेपी के नेतृत्व में जब यह आन्दोलन चलने लगा तो इसे समग्र क्रन्ति का नाम दिया गया और जेपी ने मांग की कि सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए सर्वप्रथम चुनाव प्रणाली में ही आधारभूत परिवर्तन किये जाएं। जेपी के आन्दोलन के साथ धीरे-धीरे देश के सभी मुख्य धारा के विपक्षी दल जुड़ते चले गये जिनमें भारतीय जनसंघ ( भाजपा) भी शामिल थी। जनसंघ के तत्कालीन नेताओं ने जेपी आन्दोलन में शामिल होते ही चुनाव प्रणाली में सुधार के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी जताई और स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार की जड़ महंगी चुनाव प्रणाली ही है। इस दौरान एक घटना यह हुई दिल्ली सदर सीट का लोकसभा चुनाव अवैध घोषित हो गया। 1971 के लोकसभा चुनावों में यह सीट कांग्रेस पार्टी के श्री अमरनाथ चावला ने जनसंघ के कंवर लाल गुप्ता को हरा कर जीती थी। स्व. गुप्ता ने श्री चावला के चुनाव को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती इस आधार पर दी कि उन्होंने अपने चुनाव में चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित खर्च राशि से अधिक धन खर्च किया है। न्यायालय में यह बात साबित हो गई और श्री चावला का चुनाव अवैध घोषित हो गया। उस समय देश की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी थी।
इस फैसले के बाद श्रीमती गांधी ने भारत के जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में जो संशोधन किया उससे चुनावों के खर्चीले होने से नहीं रोका जा सकता था। इन्दिरा सरकार ने प्रावधान किया कि चुनावों में किसी भी प्रत्याशी के चुनाव पर उसका कोई मित्र या शुभ चिन्तक अथवा संस्था (राजनीतिक दल) कितना ही खर्च कर सकते हैं। ऐसा चुनावी खर्च प्रत्याशी के चुनाव खर्चे में शामिल नहीं किया जायेगा। इसके बाद राजनीतिक दलों को चुनावों में कितना ही खर्च करने का लाइसेंस मिल गया। जेपी ने अपने आन्दोलन में जब महंगे होते चुनावों को एक मुद्दा बनाया तो अमरनाथ चावला बनाम कंवर लाल गुप्ता का मुकद्दमा उनके सामने था। जेपी चाहते थे कि भारत में चुनाव सरकारी खर्चे से कराये जाने चाहिए जिससे चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों या प्रत्याशियों को पूंजीपतियों पर निर्भर न रहना पड़े। इसके लिए उन्होंने अपने आन्दोलन के दौरान ही बम्बई उच्च न्यायालय के रिटायर मुख्य न्यायाधीश श्री वी.एम. तारकुंडे के नेतृत्व में एक समिति बनाई और उससे चुनावी खर्चों को सीमित रखने के उपाय खोजने के लिए कहा। तारकुंडे समिति ने अपनी रिपोर्ट जेपी को सौंप दी, जिसमें सुझाव दिया गया था कि सरकारी खर्च से चुनाव कराने के लिए केन्द्रीय स्तर पर एक चुनाव कोष स्थापित किया जाना चाहिए और प्रत्याशियों को प्रचार करने के लिए सरकारी साधन आदि सुलभ कराये जाने चाहिए।
ऐसा करने से चुनाव अधिक पारदर्शी और सस्ते होंगे और चुनावों में कोई भी सुपात्र नागरिक खड़ा हो सकेगा, परन्तु भारत में बहु दलीय व्यवस्था होने की वजह से चुनावों में प्रत्याशियों की संख्या बढ़ भी सकती है खास तौर पर निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या को किस प्रकार रोका जा सकता है। इसके साथ ही जेपी ने अपने समग्र क्रन्ति आन्दोलन में चुने गये जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार भी मतदाताओं को देने का विचार रखा था। जेपी का मानना था कि एक बार पांच साल के लिए चुने जाने के बाद जनप्रतिनिधि जनता के प्रति अपने उत्तर दायित्व से विमुख हो जाते हैं अतः एेसे प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार भी जनता के पास होना चाहिए। तारकुंडे समिति ने इस सुझाव की ताईद तो नहीं की मगर जर्मनी की भांति आनुपातिक प्रतिनिधित्व देने की बात कही। इस व्यवस्था में विभिन्न राजनीतिक दलों को चुनाव में मिले वोट प्रतिशत के अनुपात में अपने प्रत्याशी विधानसभाओं व संसद में भेजने का अधिकार मिलता। आन्दोलन के जारी रहते ही 12 जून, 1975 का दिन आ गया और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश स्व. जगमोहन लाल सिन्हा ने उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया। इसके बाद 25 जून, 1975 को पूरे देश में इमरजेंसी लगा दी गई।
जब 21 महीने बाद इमरजेंसी उठी तो नये लोकसभा चुनावों में बाजी पलट चुकी थी और विपक्षी नेताओं के हाथ में देश की सत्ता आ चुकी थी जिसके मुखिया स्व मोरारजी देसाई थे। मोरारजी देसाई के पास जब तारकुंडे समिति की रिपोर्ट पहुंची तो उन्होंने पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री पी.एल. शकधर की अध्यक्षता में एक चुनाव सुधार आयोग का गठन कर दिया, मगर मोरारजी देसाई खुद ही हुकूमत में पूरे दो साल नहीं काट सके और उनकी सरकार गिर गई और स्व. चौधरी चरण सिंह प्रधानमन्त्री बन गये। उन्हें संसद में अपना बहुमत साबित करने का अवसर मिल पाता इससे पहले ही उनकी सरकार अल्पमत में आ गई और देश मे 1980 में पुनः लोकसभा चुनाव हुए जिसमें बहुत गाजे-बाजे के साथ इंदिरा गांधी पुनः सत्ता में आईं, इसलिए शकधर आयोग रिपोर्ट अप्रासंगिक हो गई, मगर बाद में कांग्रेस राज में चुनाव सुधारों के लिए गोस्वामी समिति बनी जिसने आर्थिक पक्ष को छुए बगैर कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिये जिन्हें लागू भी किया गया, लेकिन वर्तमान में चुनाव आयोग की ही विश्वसनीयता सन्देह के घेरे में आ गई है और बात चुनाव सुधारों की जगह मतदाता सूची के शुद्धिकरण की हो रही है।
इसके मायने ये भी निकाले जा सकते हैं कि स्वयं मतदाता ही अब चुनाव आयोग के निशाने पर हैं। इसके साथ जिस प्रकार चुनाव आने पर सरकारें मतदाताओं को सौगात में सुविधाओं की रेवड़ियां बांट रही हैं उससे पूरी चुनाव प्रणाली ही बुरी तरह दूषित होती जा रही है। चुनाव आयोग इस मामले में मूक दर्शक बना रहता है, क्योंकि सरकार चाहें किसी भी पार्टी की हो वह चुनाव घोषित होने से कुछ समय पहले ही ऐसी रेवड़ी बांट स्कीमें लेकर आती है। मतदाताओं को ललचाने का यह नया तरीका निकला है जिसकी काट राजनीतिक दल ही खोज सकते हैं क्योंकि रेवड़ी बांटने की दौड़ में इन राजनीतिक दलों में ही प्रतियोगिता हो रही है। मगर अफसोस यह है कि हमने सफर चुनाव सुधारों से किया था और हम चुनावी रेवड़ियों पर पहुंच गये। ऐसा करने से हमारा लोकतन्त्र मजबूत नहीं हो रहा है, क्योंकि हम मतदाता को याचक समझ रहे हैं, जबकि वह लोकतन्त्र का असली मालिक है।

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