यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?
यह सवाल प्रख्यात उर्दू शायर साहिर लुधियानवी ने लगभग आधी सदी पहले अपनी एक नज़्म के माध्यम से उठाया था। यही सवाल आज पांच दशक बाद भी पूरी तरह प्रासंगिक है। इस बार विभाजन-विभीषिका को लेकर देशभर में पुरानी बातें फिर से याद की गई। बचे-खुचे चंद लोग शेष बचे हैं जिन्हें वे किस्से- कहानियां अब भी याद हैं, मगर अब सारी यादें, सभी किस्से-कहानियां, ‘इवेंट मैनेजमेंट’ के खाते में सरकती जा रही हैं। अब ‘विभाजन-विभीषिका’ को ‘फेस्टिवल’ की शक्ल में मनाया गया। सम्मान समारोह, प्रदर्शनियां, किस्से-कहानियां, सब का सचित्र बयान जारी रहा। इधर, कुछ सनकी, समर्पित लोग अब भी विभाजन-पीडि़तों का दु:ख-दर्द, ‘वीडियोज़’ और यू-ट्यूब आदि के माध्यम से बांटने की मशक्कत में लगे हैं।
ऐसे ही लोगों में दो की चर्चा प्रासंगिक होगी। इन्हें इस बात का भी कोई मलाल नहीं कि उनके प्रयासों से उनका अपना खर्च भी नहीं निकल पाता, मगर जब कोई पत्रकार खुले मन से उन्हें चर्चा के केंद्र में ले आता है तो उन्हें थोड़ा सुखद एहसास होने लगता है कि ‘उनके’ काम को किसी ने सराहा तो सही। वे जो भी करते हैं किसी आर्थिक लाभ के लिए नहीं। उन्हें यह भी मालूम है कि उन्हें इस काम के लिए कोई राजकीय सम्मान भी नहीं मिल पाएगा। मगर वे हारते नहीं हैं। इनमें से दो की चर्चा इस मामले में प्रासंगिक है हालांकि जैसे प्रयास वे कर रहे हैं, ऐसे सरहद के उस पार भी कुछ समर्पित यू-ट्यूबर्स भी कर रहे हैं। फिलहाल इन पर ही एक सीमित सी चर्चा।
इनमें से एक है सौदागर सिंह चुन्नी कलां और दूसरे हैं कुरुक्षेत्र के केशु मुल्तानी। सौदागर सिंह ने 16 वर्ष तक मोहाली के केंद्रीय सरकारी संस्थान सेमीकंडक्टर में तकनीशियन की नौकरी भी की थी। जब इस इकाई में आग लगी तो नौकरी खतरे में आ गई। तब उन्होंने स्वेच्छा से रिटायरमेंट ले ली और ‘मनरेगा’ के तहत काम करने लगे। अब वह पूरा वक्त अपने इंटरनेट-सैट पर ही लगे रहते हैं। उन्हें उस दिन चैन की नींद आती है जिस दिन वे बिछुड़े लोगों या परिवारों को आपस में मिला देते हैं। उनकी अपनी आंखें अक्सर नम रहती हैं।
दूसरे शख्स हैं केशु-मुल्तानी। अब तक सैकड़ों परिवारों को मिला चुके हैं। ‘वीडियो को रिकॉर्ड करने का सिलसिला तो 2006 में शुरू हो गया था और सबसे पहले रिकार्ड किए गए थे हांसी के विधायक विनोद भयाना के पिता जी महेश भयाना जी, उसके बाद मेरे मामा भी जिनका सरहद पार दोस्त मिल गया था और उसके बाद हमारे हरियाणा प्रदेश के प्रथम रंजन राजबाड़ी 2007 में रिकार्ड किया गया, उसके बाद यह सिलसिला कुछ वर्षों तक कछुए की चाल चलता रहा और इसमें गति पकड़ी 2016 के आखिरी महीने में जिसका सफर अब तक जारी है।’
इस सफर में केशव को सिर्फ मुल्तान के लोग ही नहीं मिले, पेशावरी मिले, लाहौरी मिले, सिख मिले और राजपूत मिले और तो और मुझे ‘डकोत’ भी मिले, जिन्हें शनिदेव महाराज जी के नाम से जाना जाता है। जो घर-घर जाकर तेल मांगते थे, यहां भी और वहां भी। अब मेरे द्वारा वीडियो रिकॉर्ड की संख्या तो हजार से भी ज्यादा है।’ और 47 के दंगों में जो परिवार या कोई समुदाय बिछुड़ गए थे तो तकरीबन 300 से ज्यादा केशु मिलवा चुका है। इसी तरह कुछ और ‘यू-ट्यूबर्स’ भी इसी तरह का काम पाकिस्तान में कर रहे हैं जिनमें मोहम्मद आलमगीर नाम का शख्स और खय्याम चौहान प्रमुख हैं।
कुरुक्षेत्र के इस युवा छायाकार एवं फोटो जर्नलिस्ट ने एक ऐसा अभियान छेड़ रखा है जिसका पूरी गंभीरता से नोटिस लिया जाना चाहिए। केशव नामक यह युवा फोटो पत्रकार अब तक लगभग 160 ऐसे परिवारों को अपने यू-ट्यूब चैनल के माध्यम से परस्पर मिलवा चुका है जो भारत-पाक विभाजन के समय बिछुड़ गए थे। उसकी ज़्यादातर कवरेज मुल्तान, बहावलपुर, अहमदपुर और राजस्थान की सीमा के दोनों ओर बसे, बिछुड़े परिवारों पर केंद्रित होती है। उसे वहां यानि मुल्तान, बहावलपुर में बसे लोग भी केशु के नाम से ही पुकारते हैं और इधर कैथल, कुरुक्षेत्र, पानीपत, करनाल, सोनीपत व आसपास बसे मुल्तानी परिवार भी इसी नाम से जानते हैं। किसी बुज़ुर्ग को जब कभी अपने किसी बिछड़े यार की यादें जीवन के अंतिम पहर में सताती हैं तो वह अपने बच्चों-पोतों के माध्यम से ‘केशु’ से संपर्क करता है। केशु अपने चैनल व सम्पर्क सूत्रों के माध्यम से पुराने बिछुड़ों के बीच यादों का सैलाब ला देता है। केशु यह सारे काम मुफ्त में करता है। मैं पूछता हूं कि ‘क्या मिलता है भाई, इस मुफ्त की मशक्कत से? तो उसका जवाब होता है, ‘कभी यादों के उस सैलाब से हाथ-मुंह धोकर देखें, नई ऊर्जा मिलेगी।’
यदि रिश्तों की गर्माहट या ठंडी छांव का एहसास महसूस करना हो तो कभी केशु से बात कीजिए, चला आएगा यादों का ‘बॉयस्कोप’ उठाए और आपको मुफ्त में भीतर तक सुकून पहुंचाकर चुपचाप लौट जाएगा। ऐसे उत्साही युवा को भी नमन।