त्रासदी बनती आस्था
महाकुम्भ प्रयागराज में भीड़ के कारण भगदड़ मचने से 36 लोगों की मौत के बाद…
महाकुम्भ प्रयागराज में भीड़ के कारण भगदड़ मचने से 36 लोगों की मौत के बाद नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कुम्भ स्नान के लिए जाने वाले 18 श्रद्धालुओं की मौत हो जाना दुखद त्रासदी है। मानव जीवन बेहद अनमोल है। उसे किसी भी स्थिति में कुचला नहीं जाना चाहिए। जो संसार में पैदा होता है उसका संसार से जाना तय है लेकिन मृत्यु वह होनी चाहिए जो नियति ने तय की हो। क्या प्रयागराज त्रासदी के बाद नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ में हुई मौतों को नियति मान लिया जाए। महाकुम्भ की सफलता का श्रेय केन्द्र और उत्तर प्रदेश सरकार ले रही है तो भगदड़ और मौतों का ठीकरा भी उसी के सिर फूटना चाहिए। एक ओर तो महाकुम्भ में 51 करोड़ से भी ज्यादा श्रद्धालुओं द्वारा स्नान करने के वर्ल्ड रिकॉर्ड कायम होने पर उत्सव मनाए जा रहे हैं लेकिन आस्थावान लोगों की मौत का क्या, जिनकी आस्था अधूरी रह गई। शायद यही उनकी नियति है। यह दुखद है कि ऐसे हादसों के बाद बेहतर तैयारियां तथा सुरक्षा प्रबंध पुख्ता किए जाने के दावे किए जाते हैं, मगर हादसे थमने का नाम नहीं ले रहे।
महाकुम्भ में इस बार पहले से ही अनुमान लगाया जा रहा था कि रिकॉर्ड तोड़ श्रद्धालु प्रयागराज पहुंचेंगे। सारा दबाव प्रयागराज पर था लेकिन किसी ने अनुमान ही नहीं लगाया कि नई दिल्ली रेलवे स्टेेशन पर भी भगदड़ की स्थिति हो सकती है। धार्मिक श्रद्धा का सवाल पूरी तरह से व्यक्तिगत है और आस्था प्रतिस्पर्धा या उन्माद का सवाल नहीं है लेकिन इस बार आस्थावान लोगों ने महाकुम्भ में स्नान कर पुण्य कमाने या मोक्ष प्राप्त करने की लालसा को उन्माद में बदल दिया। इसी उन्माद में उन्हें भीड़ के पांव तले कुचले जाने को विवश होना पड़ा। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ त्रासदी ने िसस्टम के पुराने जख्मों को फिर कुरेद दिया है। कारण कुछ भी रहे हों लेकिन रेलवे प्रशासन भीड़ का प्रबंधन करने में पूरी तरह से नाकाम रहा। श्रद्धालु रेलवे प्रशासन की कुव्यवस्था की नाकामी बता रहे हैं। कोई कह रहा है कि भगदड़ प्लेटफार्म बदलने से हुई, कोई यह कह रहा है कि महाकुम्भ के लिए भारी प्रचार का परिणाम यही होना था कि करोड़ों लोग डुबकी लगाने पहुंचने लगे और व्यवस्थाएं ध्वस्त होने लगीं।
विडम्बना यह भी है कि महाकुम्भ जैसे धार्मिक आयोजन को लोकप्रियता के लिए राजनीतिक यज्ञ में बदल दिया गया, जिसका परिणाम यही होना था। हमारे बड़े शहरों के रेलवे स्टेशनों पर तो सामान्य दिनों में भी काफी भीड़ रहती है। इसके बावजूद रेलवे प्रशासन ने ट्रेनों की क्षमता से अधिक रोजाना जनरल टिकट बेचे। इस पर सवाल तो खड़े होंगे ही। भारतीय धर्मभीरू लोग हैं। ऐसे आयोजनों के िलए उनकी भावनाएं ज्वार भाटे की तरह उछाल मारने लगती हैं। लिहाजा भक्त धक्के खाकर संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते हैं और गिरते-पड़ते एक-दूसरे को कुचलते हुए ट्रेनों पर सवार होने की कोशिश करते हैं। क्योंकि उन्हें अमृत स्नान करना है। आस्था के चलते भीड़ को कोई कर्त्तव्य बोध नहीं रहता। कोई अनुशासन का पालन नहीं करता। रेलवे प्रशासन मुनाफे में जुटा रहा। किसी ने अनुमान नहीं लगाया कि हालात क्या होने वाले हैं। भीड़ प्रबंधन केवल विधि-व्यवस्था बनाए रखने का विषय नहीं है, बल्कि यह मानव जीवन की सुरक्षा, सार्वजनिक स्थानों की संरचना और आपातकालीन स्थितियों से निपटने की रणनीतियों से गहनता से संबद्ध है। दुर्भाग्यवश, कई बार आयोजकों और प्रशासनिक एजेंसियों द्वारा पर्याप्त सुरक्षा उपाय नहीं किये जाते, जिससे जानमाल की हानि होती है। इस परिदृश्य में, बड़े आयोजनों में भीड़ प्रबंधन की मौजूदा स्थिति, उससे जुड़ी प्रमुख चुनौतियां, हालिया घटनाओं से मिले सबक और प्रभावी समाधानों की चर्चा करना बेहद प्रासंगिक होगा, ताकि भविष्य में ऐसी त्रासदियों से बचा जा सके। भारत और दुनिया भर में बड़े आयोजनों में भीड़ प्रबंधन के लिये विभिन्न व्यवस्थाएं अपनाई जाती हैं। सरकारें, पुलिस प्रशासन, निजी सुरक्षा एजेंसियां और आयोजनकर्ता साथ मिलकर इसे सुचारू रूप से संचालित करने का प्रयास करते हैं। हालांकि, कई बार ये व्यवस्थाएं अपर्याप्त सिद्ध होती हैं, जिसके कारण जानलेवा दुर्घटनाएं घटित होती हैं।
भीड़ का अपना मनोविज्ञान होता है। भीड़ की सघनता चंद पल में ही बदल सकती है और जब तक हालात खतरनाक लगते हैं तब तक भीड़ इतनी करीब हो चुकी होती है कि किसी व्यक्ति का उसमें से निकल पाना मुश्किल हो जाता है लेकिन खतरे को भांपने के कुछ संकेत होते हैं। इंग्लैंड की सफोक यूनिवर्सिटी में क्राउड साइंस के प्रोफेसर जी. कैथ स्टिल का कहना है कि अगर भीड़ बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रही है, इसका साफ मतलब है कि भीड़ की सघनता बढ़ रही है। भीड़ की आवाज सुनना बेहद अहम होता है, अगर आपको लोगों के असहज होने और संकट की वजह से रोने की आवाज सुनाई दे, तो यह संकेत होता कि चीजें कभी भी नियंत्रण के बाहर जा सकती हैं।
अफसोस प्रशासन भीड़ की आवाज को सुनना ही नहीं चाहता। मृतकों के परिवारों को मुआवजा, घायलों की आर्थिक सहायता आैर ढेरों संवेदनाएं भी उन परिवारों के आंसू नहीं पोंछ सकते जिन्होंने अपनों को खोया है। जब तक हम भीड़ प्रबंधन की कला नहीं सीखते त्रासदियां होती रहेंगी और अक्षम्य मानवीय अपराध भी होते रहेंगे।