फर्जी मुठभेड़ें और मानवाधिकारों की चीखें
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फर्जी मुठभेड़ों के अतिवाद ने एक बार फिर पुलिस की कार्रवाइयों को तो कठघरे में खड़ा किया ही है लेकिन 24 वर्ष पुरानी असम फर्जी मुठभेड़ में आर्मी कोर्ट ने सेना के पूर्व मेजर जनरल ए.के. लाल समेत सेना के 7 अफसरों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। इससे भारतीय सेना के गौरवपूर्ण अतीत पर बदनामी का दाग लगा है। 1994 में असम बुरी तरह से उग्रवाद की चपेट में था। इस दौरान उल्फा उग्रवादियों ने असम फ्रंटियर टी लिमिटेड के जनरल मैनेजर रामेेश्वर सिंह की हत्या कर दी थी। इसके बाद उल्फा उग्रवादियों पर कार्रवाई के लिए आर्मी पर दबाव था लेकिन जो कुछ भी हुआ वह किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं था। सेना ने तिनसुकिया जिले में अलग-अलग ठिकानों से 9 बेगुनाह युवकों को उठा लिया। ये सभी ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के कार्यकर्ता बताए गए। सेना ने 4 लोगों को छोड़ दिया आैर 5 लोगों को डिब्रू साइखोवा नेशनल पार्क में ले जाकर मुठभेड़ दिखाते हुए इनकी हत्या कर दी। ऑल असम स्टूडेंट एसोसिएशन ने लड़ाई लड़ी और अन्ततः मामले की सीबीआई जांच शुरू की गई।
पुरस्कार और समय पूर्व पदोन्नति के चक्कर में आनन-फानन में मुठभेड़ों को गैर जिम्मेदाराना ढंग से अन्जाम दिए जाने की हजारों दास्तानें फाइलों में दर्ज हैं। पूर्वोत्तर के अशांत राज्यों में हुई मुठभेड़ों को लेकर सुप्रीम कोर्ट कई बार सवाल उठा चुका है और मानवाधिकार संगठन भी फर्जी मुठभेड़ों के खिलाफ आवाज बुलन्द करते रहते हैं। एक जनहित याचिका में मणिपुर में वर्ष 2000 से 2012 के बीच सुरक्षा बलों और मणिपुर पुलिस द्वारा 1528 न्यायेत्तर हत्याओं के मामले की जांच और मुआवजे की मांग की गई थी। अदालत ने इस जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान मानवाधिकारों का ही पक्ष लिया था आैर फर्जी मुठभेड़ों की जांच के लिए जस्टिस संतोष हेगड़े की अगुवाई में तीन जजों की समिति का गठन किया। हेगड़े आयोग ने 1528 मामलों में 62 जांच की और जांच में पाया गया कि 62 में 15 मामले फर्जी मुठभेड़ के हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेशों में बार-बार स्पष्ट किया कि सरकार, सेना और पुलिस सैन्य कार्रवाई का बहाना लेकर नागरिकों के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकतीं। सेना का इस्तेमाल नागिरक प्रशासन की मदद के लिए किया जा सकता है लेकिन यह अनिश्चितकाल के लिए नहीं चल सकता।
फर्जी मुठभेड़ों का इतिहास देखें तो इसका चलन 60 के दशक में शुरू हुआ था। तब पुलिस की डाकुओं से बीहड़ों में सीधी मुठभेड़ हुआ करती थी और राज्य सरकारें अपने बहादुर पुलिस कर्मियों को डकैतों को मार गिराने पर सम्मानित करने के अलावा नकद राशि और समय से पहले पदोन्नति दिया करती थी। इसके बाद तो फर्जी मुठभेड़ों की संख्या जिस तरह से बढ़ी, वह चिन्तित करने वाली थी। कई राज्यों में होने वाली फर्जी मुठभेड़ों में से ज्यादातर पुलिस की होती हैं, सेना में अपवाद स्वरूप कई मामले सामने आए। फर्जी मुठभेड़ तो राजनीतिक संस्कृति हो गई। 70 के दशक में प. बंगाल में तो पंजाब में 80 के दशक में इसका जमकर इस्तेमाल देखा गया। मणिपुर हो या असम, कश्मीर हो या दक्षिण भारत का तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश हो या बिहार तक का सर्वव्यापी राजनीतिक भूगोल है फर्जी मुठभेड़ों का, जिनकी कई वजह हैं, उनमें सीधे तौर पर राजनीतिक वजह भी है। कुछ वर्ष पहले राजधानी दिल्ली के कनाट प्लेस में पुलिस ने दो व्यापारियों को दुर्दान्त अपराधी बताकर शूटआउट में मार डाला था। ऐसी आैर तमाम घटनाएं समय-समय पर होती रही हैं।
अब उत्तर प्रदेश पुलिस का दामन फर्जी मुठभेड़ों के दाग से कलंकित होता जा रहा है। उत्तर प्रदेश पुलिस ने बीते एक वर्ष में 1200 से ज्यादा एनकाउंटर्स में लगभग 50 कथित अपराधियों को मार गिराया। नोएडा, बुलन्दशहर में हुई मुठभेड़ों का सच सामने आ चुका है। बुलन्दशहर फर्जी मुठभेड़ में तो 5 दारोगाओं समेत 12 सिपाहियों पर मुकद्दमा दर्ज किया गया है। एप्पल कम्पनी के मैनेजर विवेक तिवारी हत्याकांड में भी पुलिस की कार्यशैली को लेकर बवाल मच गया था। दो दिन पहले ही एक मुठभेड़ के दौरान पुलिस के जवान से गोली नहीं चली तो साथ खड़ा कांस्टेबल मुंह से गोली की ‘ठायं-ठायं’ की आवाज निकालने लगा। इससे पुलिस की जगहंसाई हुई और इस पर सोशल मीडिया पर लोगों की प्रतिक्रिया देखने वाली है। एक बहुत ही दिलचस्प कार्टून सामने आया है जिसमें कहा गया है कि उत्तर प्रदेश पुलिस को गोली चलाने की जरूरत नहीं, बस ठायं-ठायं की आवाज निकालते हैं आैर अपराधी मर जाता है।
पुलिस मुठभेड़ों पर सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला सुनाया। अदालत ने कहा है कि मुठभेड़ की तुरन्त एफआईआर दर्ज हो। जब तक जांच चलेगी, तब तक सम्बन्धित पुलिस अधिकारी को पदोन्नति या बहादुरी पुरस्कार नहीं मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट ने फर्जी मुठभेड़ों पर व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए थे लेकिन उन पर ईमानदारी से अमल नहीं हो रहा है। मानवाधिकार चीख रहे हैं लेकिन फर्जी मुठभेड़ों की निष्पक्ष जांच के लिए कोई स्वतंत्र निगरानी तंत्र नहीं है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास शक्तियां और संसाधन सीमित हैं। निर्दोष नागिरकों की फर्जी मुठभेड़ों में हत्याएं न हों, इस दृष्टि से सुप्रीम कोर्ट ने सेना और पुलिसकर्मियों को सजा देकर सही फैसला दिया है लेकिन अहम सवाल यह है कि व्यवस्था में सुधार कैसे हो जिससे मानवाधिकारों की हत्या नहीं हो। पुलिस सुधारों को लेकर भी राज्य सरकारें मौन हैं। पुलिस बलों का राजनीतिकरण ही किया जा रहा है। इससे पुलिस का अराजकता की ओर बढ़ने का खतरा है। इस प्रवृत्ति को रोकना होगा।