चुनावी जंग का गिरता स्तर
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देश के विभिन्न राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों को देखते हुए राजनीति जिस स्तर पहुंच रही है वह हमारे लोकतन्त्र की न तो मान्य परंपरा है और न ही चुनावी बाजियां जीतने के लिए इसकी जरूरत है। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब स्व. अटल बिहारी वाजपेयी 1999 का चुनाव जीत कर पुनः प्रधानमन्त्री बने थे तो उन्होंने लोकसभा में स्वीकार किया था कि ‘विपक्ष में रहते हुए उन्हें सत्तारूढ़ सरकार और उसके दल के बारे में बहुत कुछ उल्टा-सीधा भी बोलना पड़ता था क्योंकि उन्हें राजनैतिक दायित्व के निर्वाह हेतु विपक्षी धर्म निभाना होता था मगर सत्ता में आने पर असलियत उजागर होती है और जिम्मेदारियों का पता चलता है।’ यह बात उन्होंने तब कही थी जब लोकसभा में विपक्षी पार्टी कांग्रेस के मुख्य सचेतक स्व. प्रियरंजन दासमुंशी ने पाकिस्तान के मामले पर चल रही बहस के दौरान वाजपेयी सरकार और भाजपा के नेताओं द्वारा ‘शिमला समझौते’ का हवाला देते हुए कहा था कि इसके तहत पाकिस्तान अपने सारे मसले केवल बातचीत की मेज पर सुलझाने के लिए ही बन्धा हुआ है।
तब स्व. मुंशी ने श्री वाजपेयी के वक्तव्य के जारी रहते ही उठकर सवाल जड़ दिया था कि आपने तो इसका विरोध किया था। तब श्री वाजपेयी ने यह टिप्पणी की थी। हकीकत यह थी कि जब 1972 में पाकिस्तान के बिखर जाने पर और बांग्लादेश का निर्माण हो जाने पर शिमला में पाकिस्तान के मुखिया स्व. जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ इन्दिरा जी ने समझौता किया था तो उसके विरोध में तब की विरोधी पार्टी जनसंघ ने श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में ही दिल्ली के रामलीला मैदान में शिमला समझौते की प्रतियां जलाई थीं और इसे राष्ट्रहितों के खिलाफ बताया था। ठीक एेसा ही विरोध प्रदर्शन जनसंघ व स्वतन्त्र पार्टी की तरफ से इससे पूर्व सोवियत संघ के साथ हुई 20 वर्षीय रक्षा सन्धि का भी हुआ था और स्व. अटल जी के ही नेतृत्व में रामलीला मैदान में ही इस सन्धि की प्रतियां भी जलाई गई थीं और उन्होंने इसे भारत की स्वायत्तता को गिरवी रखने वाला समझौता तक बताया था परन्तु प्रधानमन्त्री के रूप में अटल जी ने ही इसी सन्धि को देशहित में बताया और रूस के साथ भारत के प्रगाढ़ रक्षा सम्बन्धों को जारी रखने की पुरजोर वकालत की, परन्तु यह भी रिकार्ड मे रहना चाहिए कि अटल जी सरीखे नेता ने कभी भी इन्दिरा गांधी की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की। वह उन पर अपनी चुनाव सभाओं में अधिनायकवादी होने का आरोप अवश्य लगाया करते थे और उनकी सरकार की नीतियों की कड़ी आलोचना भी करते थे किन्तु किसी भी कांग्रेस नेता के चरित्र हनन का प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया।
ठीक एेसा ही व्यवहार उस समय सत्ता में बैठे कांग्रेस के नेताओं की तरफ से भी होता था और वे हर आरोप का उत्तर बहुत ही शालीन ढंग से इस प्रकार देते थे कि लोगों का विश्वास कहीं से भी लोकतन्त्र की मर्यादाओं से हिलने-डुलने न पाये परन्तु अजीब किस्म की राजनीति का दौर फिलहाल देश में चल रहा है कि विपक्ष मंे रहते हुए कांग्रेस व भाजपा दोनों के ही नेता अपनी शानदार पुरानी विरासत को खुद ही पैरों तले रौंद रहे हैं और राजनीति का स्तर लगातार सड़क छाप बनाने की होड़ मे लगे हुए हैं। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष राज बब्बर प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की मां की उम्र को बीच में घसीट देते हैं तो राजस्थान के कांग्रेस नेता सी.पी. जोशी श्री मोदी की जाति को लेकर उन्हें धर्म की बात करने के अयोग्य मानते हैं। वहीं दूसरी तरफ मध्य प्रदेश के चुनावों मे अपनी पार्टी की विजय के लिए भाजपा के नेता प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष श्री कमलनाथ के खिलाफ उल्टे-सीधे आरोप लगाना शुरू कर देते हैं और उनकी कांग्रेस समर्थकों के साथ तीन महीने पहले हुई उस बैठक की वीडियो में साम्प्रदायिक रंग दिखाना शुरू कर देते हैं जिसमे वह केवल बूथ मैनेजमेंट (मतदान केन्द्र प्रबन्धन) के गुर बता रहे थे। इतना ही नहीं भाजपा के कुछ प्रवक्ताओं ने उन पर आरोप भी जड़ दिया कि मनमोहन सरकार मंे मन्त्री रहते वह वित्तीय गड़बड़ी करते थे।
श्री कमलनाथ वाणिज्य मन्त्री और भूतल परिवहन मन्त्री रहे हैं। वाणिज्य मन्त्री के रूप में तो उन्होंने विश्व व्यापार संगठन में भारत के कृषि क्षेत्र को सुरक्षित करने के लिए अमेरिका व अन्य विकसित कहे जाने वाले धनाढ्य देशों के खिलाफ इस प्रकार मोर्चा खोल दिया था कि दुनिया के दो तिहाई से अधिक देश भारत के पीछे आकर खड़े हो गये थे और व्यापार संगठन को स्वीकार करना पड़ा था कि भारत के किसानों की सब्सिडी समाप्त नहीं की जायेगी। कमलनाथ ने इसी मंच पर कहा था कि जब तक भारत के किसानों की वित्तीय स्थिति यूरोप के देशों के किसानों के बराबर नहीं हो जाती तब तक कृषि सब्सिडी समाप्त करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। कमलनाथ ने ही सड़क परिवहन मन्त्री रहते योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया से इस मुद्दे पर दो-दो हाथ कर लिये थे कि सड़क परियोजनाओं की स्वीकृति में अनावश्यक विलम्ब किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं होगा परन्तु सवाल केवल श्री कमलनाथ का नहीं है बल्कि राजनैतिक आरोप-प्रत्यारोपों का है जिनके चलते मतदाताओं को अपने-अपने पक्ष में लेने की कोशिशें हो रही हैं।
राजनीति में चुनावी मैदान में व्यक्तिगत आरोप हताशा का प्रतीक माने जाते हैं और इनका उपयोग तभी किया जाता है जब वैचारिक तर्क समाप्त हो जाते हैं। यह चुनावी राजनीति का सत्य इसलिए है कि राजनैतिक नेता मतदाताओं की प्रतिक्रियाओं से घबरा कर ही इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अब केवल उन्हें लोगों की आकांक्षाओं के प्रतीक बने नेता की चरित्र हत्या ही नैया पार करा सकती है। यह फार्मूला हर चुनाव में और हर राजनैतिक दल पर लागू होता है मगर लोकतन्त्र में हार-जीत कभी भी व्यक्तियों की नहीं होती बल्कि नीतियों की होती है क्योंकि नीतियों से ही व्यक्ति का कद बनता है।