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कालेधन पर पहली बड़ी विजय

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09:20 AM Jun 17, 2017 IST | Desk Team

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पिछली मनमोहन सरकार के दौरान जब कालेधन को भारत में वापस लाने के मुद्दे पर तूफान उठ रहा था तो 21 मई, 2012 को भारत की संसद में वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने बतौर वित्तमन्त्री श्वेत पत्र रखते हुए घोषणा की थी कि स्विट्जरलैंड की सरकार के साथ भारत ने समझौता किया है कि वह अपने बैंकों में भारतीय खाता धारकों की जानकारी उपलब्ध कराने के लिए यथोचित कानून बनायेगा। तब प्रणव दा ने संसद को यह भी सूचित किया था कि भारत की सरकार विभिन्न देशों के साथ आपसी समझौते करके वित्तीय जानकारियां प्राप्त करने की तरफ तेजी से कदम उठा रही है। तब तक साठ देशों के साथ संभवत: भारत ने इस आशय के समझौते कर लिये थे, परन्तु उन्होंने तब यह भी चेताया था कि यह काम आसान नहीं है क्योंकि टैक्स हैवंस समझे जाने वाले बहुत से देशों की अर्थव्यवस्था का आधार ही उनका बैंकिंग उद्योग है जिसकी जानकारी गुप्त रखने के लिए वहां संवैधानिक नियम हैं। इसके बावजूद सरकार 36 हजार करोड़ रुपए की ऐसी धनराशि भारत में वापस लाने में सफल रही है जो भारत से कर चोरी करके विदेशों में जमा कराया गया था। विशेष रूप से स्विट्जरलैंड का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा था कि इस देश के विधान के तहत बैंकिंग नियमों में परिवर्तन करने वाले कानून को इसकी सभी जिला परिषदों में भेजा जायेगा और वहां से स्वीकृत होने के बाद ही यहां की संसद कानून पारित कर पायेगी मगर नया कानून अगली तारीखों से ही लागू होगा, पुरानी तारीखों से नहीं।

उस समय स्विट्जरलैंड की सरकार जनवरी 2012 के बाद से सभी बैंक खातों की जानकारी देने के लिए राजी थी मगर स्विट्जरलैंड ने बाद में अपने बैंकिंग कानूनों को और ज्यादा खुला बनाने की गरज से इसमें संशोधन और सुधार किये और केन्द्र में 2014 मे मोदी सरकार आने के बाद नये सिरे से बातचीत शुरू की जिसके तहत सितम्बर 2019 महीने से सभी बैंकिंग जानकारियां उपलब्ध कराने को आज 16 जून को मंजूरी मिली। स्विस बैंकों को लेकर भारत में शुरू से ही रहस्य रहा है। इस रहस्य को तोडऩे का काम भी पहली बार प्रणवदा ने ही 2012 में किया और साफ किया कि वहां के बैंकों से कालाधन निकाल कर लाना कितना पेचीदा और मुश्किलों से भरा काम है। उस समय विपक्षी दल यह मांग भी कर रहे थे कि विदेशी बैंकों में पड़े भारतीय धन को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दिया जाये। इसका जवाब भी प्रणव दा ने बहुत संजीदगी और तर्कपूर्ण तरीके से दिया था कि राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने से समस्या का समाधान किस तरह हो जायेगा? क्या मैं विदेशों में फौज भेजकर इस धन को वापस लाऊंगा? हमें नहीं भूलना चाहिए कि टैक्स हैवंस समझे जाने वाले देश स्वयंभू सरकारों वाले देश हैं। उनका अपना संविधान और बैंकिंग प्रणाली है।

कुछ तो ऐसे हैं जिनकी पूरी अर्थव्यवस्था ही उनके बैंकों में जमा धनराशियों पर टिकी हुई है। इसकी गोपनीयता बनाये रखने के लिए उनके यहां सार्वभौमिक नियम हैं मगर विश्व की परिस्थितियां बदल रही हैं और भारत लगातार विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से लेकर जी-20 देशों के मंच पर यह मुद्दा उठा रहा है कि कुछ देशों के गोपनीय बैंकिंग नियमों की वजह से वहां रखे हुए धन का उपयोग आतंकवाद के वित्तीय पोषण के लिए हो सकता है। अत: इस बारे में अब पारदर्शी नियम बनाने का समय आ गया है। इसके साथ एक और अवरोध पूरे विश्व के एक बड़े बाजार के रूप में विकसित होना भी था, जिसे हम आर्थिक भूमंडलीकरण कहते हैं। इस व्यवस्था के चलते विदेशों में छुपे कालेधन को भारत में लाना अपेक्षाकृत कठिन काम हो गया था। अत: बहुत वाजिब तौर पर समझा जा सकता है कि कालेधन को वापस करने के लिए सरकार को कड़ी मेहनत और मशक्कत की जरूरत थी। वर्तमान वित्तमन्त्री अरुण जेतली प्रशंसा के पात्र हैं कि उन्होंने इस मोर्चे पर हिम्मत नहीं हारी और वह लगातार कोशिश करते रहे जिसके तहत उन्होंने तीन दर्जन देशों के साथ नई काराधान सन्धियां कीं। दूसरी तरफ प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद के वित्त पोषण का मुद्दा महत्वपूर्ण विश्व मंचों पर जोरदार तरीके से उठाया जिससे टैक्स हैवंस समझे जाने वाले देशों के सामने उनकी बैंकिंग व्यवस्था एक समस्या बनती चली गई। अन्त में उसका हल वहीं ढूंढा गया जिसकी शुरूआत प्रणवदा ने की थी। अत: विदेशी बैंकों से कालाधन भारत में लाना न उस समय आसान था जिस समय देश में

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