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चीन पड़ोसी का धर्म निभाये

लद्दाख में नियंत्रण रेखा पर भारत-चीन के बीच बने तनाव को कम करने के लिए दोनों देशों की सेनाओं के लेफ्टि. जनरल स्तर की वार्ता का तीसरा दौर अभी जारी है तो दूसरी तरफ अमेरिका के विदेशमन्त्री माइख पोम्पिओ ने कह दिया है

12:03 AM Jul 02, 2020 IST | Aditya Chopra

लद्दाख में नियंत्रण रेखा पर भारत-चीन के बीच बने तनाव को कम करने के लिए दोनों देशों की सेनाओं के लेफ्टि. जनरल स्तर की वार्ता का तीसरा दौर अभी जारी है तो दूसरी तरफ अमेरिका के विदेशमन्त्री माइख पोम्पिओ ने कह दिया है

लद्दाख में नियंत्रण रेखा पर भारत-चीन के बीच बने तनाव को कम करने के लिए दोनों देशों की सेनाओं के लेफ्टि. जनरल स्तर की वार्ता का तीसरा दौर अभी जारी है तो दूसरी तरफ अमेरिका के विदेशमन्त्री माइख पोम्पिओ ने कह दिया है कि अमेरिका यूरोप से अपनी फौजें कम करके हिन्द महासागर व दक्षिणी चीन सागर की तरफ भेजेगा क्योंकि चीन से भारत को एवं अन्य दक्षिण एशियाई देशों को खतरा है। गौर से देखा जाये तो अमेरिकी विदेशमन्त्री का यह कथन भी स्वयं किसी खतरे से कम नहीं हैं क्योंकि इसमें हिन्द महासागर क्षेत्र के जंग का मैदान बनने का अन्देशा छिपा हुआ है। जो कि किसी भी रूप में भारत के पक्ष में नहीं जाता है। चीन के साथ भारत को अपने तनाव स्वयं ही समाप्त करने होंगे और इस तरह करने होंगे कि राष्ट्रीय सम्मान पर किसी तरह की आंच न आ पाये।
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 स्व. इंदिरा गांधी व राजीव गांधी के समय तक भारत लगातार यह मांग करता रहा था कि हिन्द महासागर क्षेत्र को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति क्षेत्र घोषित किया जाये जिससे समूचे दक्षिण एशिया की सुरक्षा की गारंटी हो सके। परन्तु समय बदलने के साथ चीन के महाशक्ति बनने पर हिन्द महासागर व प्रशान्त सागर क्षेत्र में अमेरिका व चीन के बीच सामरिक व आर्थिक प्रतियोगिता शुरू हो गई जिसकी जद में प्रशान्त व हिन्द महासागर क्षेत्र भी हैं। यह चीन की जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने सबसे निकट के पड़ोसी देश भारत के साथ दोस्ताना ताल्लुकात रखे साथ ही भारत के हक में पूरी तरह तटस्थ बने रहना हितकारी होगा क्योंकि अमेरिकी खेमे में जाने पर भारी जोखिम होगा।  क्योंकि चीन और अमेरिका दोनों ही पाकिस्तान के पोषक इस तरह रहे हैं कि यह कभी चीन की बाहों में झूला झूल कर तो कभी अमेरिका की गोदी में बैठ कर भारत के विरुद्ध युद्ध लड़ता रहा है। हालांकि पिछले सभी युद्धों में अमेरिका ने ही अभी तक इसका साथ दिया है परन्तु आजकल  चीन इसे अपनी पीठ पर बैठाये घूम रहा है।  चीन पूरे एशिया को सड़क मार्ग से जोड़ने की खातिर पाक अधिकृत कश्मीर  से शुरू करके  60 अरब डालर की ‘सी पैक’ परियोजना को लागू कर रहा है।  कुछ रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि इसी परियोजना की सड़क को गलवान घाटी से जोड़ने के लिए चीन ने पूरे लद्दाख में भारत के साथ खिंची नियन्त्रण रेखा को विवादास्पद बनाने की ठान ली है और वह इसके चार स्थानों पर अतिक्रमण कर बैठा है और पिछले तीन महीने से उसने हठधर्मिता अख्तियार कर रखी है।
 भारत उसे अपने क्षेत्र से ही बाहर करना चाहता है और इसी वजह से सैनिक वार्ताओं के दौर भी चल रहे हैं। यह भी पहली बार हो रहा है कि भारत व चीन के बीच उच्च स्तरीय सैनिक वार्ताओं के दौर चल रहे हैं। इससे पूर्व यह कार्य कूटनीतिक स्तर पर ही होता रहा है। ऐसा संभवतः चीन के अड़ियल रुख की वजह से ही हो रहा है क्योंकि कूटनीतिक स्तर पर दोनों देशों के बीच पिछले 15 साल से ऐसा सुगठित वार्ता तन्त्र स्थापित है जो केवल सीमा विवाद सुलझाने का ही काम करता है। इस पर दोनों देशों में सहमति वाजपेयी सरकार के शासनकाल में हुई थी जब भारत ने तिब्बत को चीन का अंग स्वीकार किया था।  इसके बाद मनमोहन सिंह सरकार के दौरान यह वार्ता तन्त्र स्थापित हुआ।  इसमें भारत की ओर से वार्ता दल का नेतृत्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार करते हैं। इस वार्ता तन्त्र की अभी तक 22 बैठकें हो चुकी हैं और नतीजा कुछ नहीं निकला है। जबकि इसके उलट पहली बार  दोनों देश नियन्त्रण रेखा की अवधारणा को लेकर इतना लम्बा उलझे हैं कि हमारे बीस सैनिक भी इसी वजह से शहीद हो गये।
 दरअसल नियन्त्रण रेखा पूरी तरह स्पष्ट है, इसे स्वयं चीन ने ही 2013 में स्वीकार कराया था। उस वर्ष भी  काराकोरम दर्रे के निकट देपसंग घाटी के मैदानी इलाके में दौलकबेग ओल्डी सेक्टर में चीनी सीमाएं नियन्त्रण रेखा को पार करके आ गई थीं मगर तीन सप्ताह बाद वे वापस चली गई थीं।  मगर इस बार इस इलाके में भी चीनी सेनाएं 18 कि.मी. अन्दर तक आ गई हैं और वापस नहीं जा रही हैं। इसकी वजह यह मानी जा रही है कि चीन लद्दाख से होकर जाने वाली सड़क से सी पैक परियोजना तक पहुंच बनाना चाहता है और यह भारतीय क्षेत्र में अतिक्रमण करने से ही संभव होगा। यही वजह है कि चीन लद्दाख में पूरी नियन्त्रण रेखा को ही बदल देना चाहता है।  इसमें उसके सामरिक व आर्थिक दोनों ही हित छिपे हुए हैं जबकि भारत का जबर्दस्त सामरिक हित इस तरह है कि नियन्त्रण रेखा बदलने पर उसकी पहुंच अक्साई-चीन तक ही नहीं हो सकेगी बल्कि काराकोरम दर्रे तक पहुंच भी बाधित हो जायेगी जिससे चीन और  पाकिस्तान भारत को भारी नुकसान पहुंचाने की हैसियत में आ सकते हैं।  चीन को यही समझना है कि भारत के साथ दोस्ती में उसका लाभ है या तनाव पैदा करने में।  भारत की नीति तो नेहरूकाल से ही प्रेम, भाईचारा व शान्ति की रही है परन्तु चीन ने ही 1962 में धोखा देकर भारत पर आक्रमण किया था और अक्साई चिन को हड़प लिया था। मूल प्रश्न आज यह है कि दोनों  देशों की सेनाओं के कमांडरों के बीच आज जो वार्ता चल रही है, उसका नतीजा वही निकले जो न्याय और तर्क कहता है।  यह तर्क और न्याय यही है कि चीनी सेनाएं नियन्त्रण रेखा पर अपनी पुरानी जगहों पर लौटें और भारतीय क्षेत्र में किसी प्रकार का निर्माण आदि का कार्य न करें।  मगर इसके उलट चीन पेगोंग-सो झील इलाके में हेलीपैड बना रहा है और गलवान घाटी की उसी चौकी नम्बर 14 पर भारतीय क्षेत्र में जमा हुआ है जिसकी रक्षार्थ कर्नल बी. सन्तोष बाबू व 19 अन्य भारतीय सैनिकों ने शहादत दी थी।  इसके साथ ही अपने इलाके के अन्दरूनी भागों में भारी सैन्य जमावड़ा कर रहा है। जरूरी है कि चीन धौंस दिखाने के बजाये अच्छे पड़ोसी का धर्म निभाये और सह अस्तित्व की भावना को समझे।
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