हथियार निर्माताओं के लिए युद्ध व्यापार है
सदियों से प्राचीन साम्राज्य युद्ध में जीत का औचित्य ठहराते आये थे लेकिन बीसवीं सदी…
सदियों से प्राचीन साम्राज्य युद्ध में जीत का औचित्य ठहराते आये थे लेकिन बीसवीं सदी में युद्ध व्यापार बन गये। औद्योगिक संभ्रांत इसे युद्धभूमि से हटाकर बोर्ड रूम तक ले आये। आधुनिक डीप स्टेट दरअसल युद्ध करने वाले प्राचीन साम्राज्यों के ही उत्तराधिकारी हैं। इनके युद्ध क्षेत्र ही इनकी अर्थव्यवस्था हैं। शीतयुद्ध में जन्मा और आतंक के खिलाफ जंग में परिपक्व हुआ युद्ध अब डिजिटल दौर में फलफूल रहा है। ड्रोन के जवाब में ड्रोन और मिसाइल के जवाब में मिसाइल के जरिये यह युद्ध शांति की उम्मीद में नहीं, अगले युद्ध की तैयारी में जीता है।
युद्ध की लॉन्चिंग हैशटैग में होती है और इसमें हासिल लाभ को प्रतिशत में गिना जाता है। इन सबके बीच भारत ऐतिहासिक दोराहे पर खड़ा है। यह आर्थिक रूप से निरंतर आगे बढ़ रहा है, इसके वैश्विक असर से भी इन्कार नहीं किया जा सकता और इसका समाज शांति और समृद्धि का इच्छुक है लेकिन पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में शुरू हुए ऑपरेशन सिंदूर से साबित होता है कि युद्ध कभी खत्म नहीं होता। आगे बढ़ता, गर्वोन्नत और अपनी सुरक्षा खुद करने में सक्षम भारत फिलहाल युद्धतंत्र में फंसा हुआ है। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भारत के लिए युद्ध कभी विकल्प नहीं रहा। इसके बजाय विफल पड़ोसी द्वारा हर बार इस पर युद्ध थोप दिया जाता रहा है, जिसका वह मुंहतोड़ जवाब देता है।
इस साल भारत ने रक्षा क्षेत्र में 75 अरब डॉलर आवंटित किया जो उसके कुल बजट का 13.45 फीसदी है। कुछ लोगों का यह तर्क स्वाभाविक है कि जब सीमापार आतंकवाद का खतरा बना हुआ है तब रक्षा बजट में वृद्धि जरूरी है। पहलगाम हमले के जवाब में भारत ने जब सीमापार के आतंकी ठिकानों पर ड्रोन और मिसाइलों से सटीक हमले किये तो बाजार ने तत्काल उसका संज्ञान लिया। 13 मई को निफ्टी डिफेंस इंडेक्स में 4.32 प्रतिशत की वृद्धि हुई और ड्रोन निर्माता आइडियाफोर्ज के शेयर 20 फीसदी बढ़ गये। शहीदों के खून सूखने से पहले ही निवेशकों के पोर्टफोलियो चमकने लगे थे। वर्ष 2020 से 2025 के बीच भारत ने रक्षा क्षेत्र में 350 अरब डॉलर खर्च किये, जिनमें से 15 अरब डॉलर मानवविहीन वायु रक्षा प्रणाली में खर्च किये गये। नतीजतन भारत का राजकोषीय घाटा बढ़कर जीडीपी का 5.8 प्रतिशत हो गया। इस साल की शुरुआत में मुद्रास्फीति 6.2 प्रतिशत हो गयी, जिसका असर देश के 40 करोड़ मध्यवर्ग पर पड़ा। सीमा पर व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुआ। अकेले कश्मीर में सेब के बगीचों और हथकरघों के खामोश होने से सालाना 1.2 अरब डॉलर का नुक्सान हुआ।
वर्ष 2020 से पर्यटन में वहां 35 फीसदी की कमी आयी और दो लाख नौकरियां चली गयीं। सीमा पर तनाव के कारण सांबा जैसे शहर में 2022 के बाद से 15,000 व्यापारिक इकाइयां बंद हो गयीं। इसका सामाजिक नुक्सान भी गहरा हुआ। कश्मीर के 12 लाख लोग हमेशा डर के साये में जीते हैं। वर्ष 2020 से अब तक कश्मीर में आतंकवाद के कारण 1,200 लोग मारे गये और 3,400 से अधिक लोग घायल हुए। वर्ष 2024 का एक अध्ययन बताता है कि 30 फीसदी कश्मीरी सदमा जनित तनाव में जीते हैं। हिंसा के कारण स्कूल बंद होने से डेढ़ लाख कश्मीरी बच्चे नियमित स्कूली शिक्षा से वंचित हैं। पिछले साल जम्मू-कश्मीर में सांप्रदायिक तनाव की 320 घटनाएं हुईं, जो इसमें 25 फीसदी वृद्धि के बारे में बताती हैं। ड्रोन हमले के कारण 2022 से सीमावर्ती इलाकों के लगभग 10,000 लोगों को भागना पड़ा है जिससे कई शहर और कस्बे भुतहा स्वरूप ले चुके हैं।
इस बदतर स्थिति में आने वाला भारत अकेला देश नहीं है। पाकिस्तान पहले से ही दिवालिया और विखंडित होने के कगार पर है। यूक्रेन-रूस युद्ध के लंबा खिंचने को भी डीप स्टेट के अपने हित के रूप में देखना चाहिए। वर्ष 2022 से लॉकहीड मार्टिन और रेथिअन जैसी अमेरिकी रक्षा कंपनियों को युद्ध के कारण मोटा मुनाफा हो रहा है। यूक्रेन युद्ध के कारण लॉकहीड मार्टिन को पिछले साल 14 फीसदी मुनाफा हुआ। पिछले साल युद्ध के कारण यूक्रेन के 1,200 नागरिक मारे गये। फिर भी बाजार ने खुशी मनायी, क्योंकि अमेरिकी रक्षा कंपनियों ने प्रभावशाली लोगों को अपने यहां रखा है। अप्रैल में जारी एक रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका के लगभग 700 रिटायर्ड उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारी, जिनमें जनरल और एडमिरल भी हैं, रक्षा क्षेत्र से जुड़े ठेकेदारों के लिए काम करते हैं। इस परिपाटी को खत्म करने के लिए भारत को साहस से काम लेना होगा। विकसित भारत के लक्ष्य को पूरा करने के लिए पहले उसे सीमापार आतंकवाद को खत्म करना होगा। बाद में अपना रक्षा बजट घटाकर वह शिक्षा, स्वास्थ्य, जलवायु परिवर्तन और उन्नत खुफिया नेटवर्क के क्षेत्र में निवेश बढ़ा सकता है। शांति का अर्थ सहनशीलता नहीं है, बल्कि इसका अर्थ है भविष्य में निवेश करना।
डीप स्टेट युद्ध में ही फलता-फूलता है। आत्मविश्वास से भरे भारत को इसकी जरूरत नहीं है। सवाल यह नहीं है कि भारत युद्ध जीत सकता है या नहीं। मुद्दा यह है कि अपनी आत्मा को उन रक्षा कंपनियों के पास जो भारत के दर्द से लाभ कमाती हैं, गिरवी रखे बगैर भारत शांति की दिशा में काम कर सकता है या नहीं। डीप स्टेट की रक्षा कंपनियों का उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा कतई नहीं है। वे तो हर कीमत पर अपना और अपने निवेशकों का मुनाफा बढ़ते हुए देखना चाहती हैं। लॉकहीड मार्टिन, रेथिअन, नॉर्थप ग्रमैन, बीएई सिस्टम्स सिर्फ कंपनियां नहीं हैं, बल्कि युद्ध अर्थव्यवस्था में ये नीति निर्माता और बोर्डरूम रणनीतिकार की भूमिका निभाती हैं। वर्ष 2023 में अमेरिकी रक्षा कंपनियों ने अमेरिकी कांग्रेस की लॉबीइंग में 13 करोड़ डॉलर खर्च किये। क्यों? क्योंकि हर युद्धक विमान, हर मिसाइल प्रणाली और विदेशी धरती पर हर कहीं उनके हथियारों की तैनाती का मतलब होता है मुनाफा। वर्ष 2024 में लॉकहीड मार्टिन ने 67.6 अरब डॉलर कमाये, जिसका बड़ा हिस्सा सरकारी ठेके से आया था। युद्ध ही उनका व्यापार मॉडल है। डीप स्टेट के छद्म रणनीतिकारों को इसकी परवाह नहीं कि कौन युद्ध जीतेगा। उनका लक्ष्य यह है कि युद्ध चलते रहना चाहिए। पश्चिम एशिया में इसने सऊदी अरब और इजराइल को हथियार दिये। एशिया में ताइवान और एशिया-प्रशांत पर इनकी गिद्धदृष्टि है। भारत में भी उन्हें अवसर दिख रहा है, जहां एक ताकतवर लोकतंत्र अपने उद्दंड पड़ोसी का सामना कर रहा है। अगर कोई देश वाकई संप्रभुता का इच्छुक है तो उसे युद्ध अर्थव्यवस्था से खुद को अलग कर लेना चाहिए।
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)