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खजाने का बोझ बढ़ा रही मुफ्त की रेवड़ियां

05:48 AM Jul 22, 2025 IST | Rohit Maheshwari
खजाने का बोझ बढ़ा रही मुफ्त की रेवड़ियां
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आप मुफ्त सुविधाएं कहें, रेवड़ी कहें या फ्रीबीज... लेकिन सरकार इन्हें कल्याणकारी योजना ही साबित करना चाहती है। चाहे केंद्र की सरकार हो या राज्य की, सब इसे अपने फायदे के लिए लागू करने में कोई गुरेज नहीं करना चाहते। क्योंकि सत्ता का रास्ता अब रेवड़ी पथ से ही होकर गुजर रहा है, यानी सीधा वोट से कनेक्ट है। जब वोट ही रेवड़ियों के नाम पर मिल रहा है तो फिर इसे बांटने में कम्पीटिशन तो होगा, कौन कितना रेवड़ी बांट सकता है। जनता को भी रेवड़ी का स्वाद लग चुका है। वो जानती है कि किसकी रेवड़ी ज्यादा है, मीठी है, किसकी रेवड़ी खाना है और किसकी रेवड़ी ठुकराना है। ताजा मामला बिहार राज्य का है। बिहार 4 लाख करोड़ रुपए से अधिक कर्ज में डूबा है, जबकि उसकी प्रति व्यक्ति आय 70,000 रुपए सालाना से कम है। इसके बावजूद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने घरेलू उपभोक्ताओं को 125 यूनिट बिजली मुफ्त देने की घोषणा की है। बेशक यह नितांत ‘चुनावी रेवड़ी’ है।

बिहार में अगस्त माह में जो घरेलू बिल आएंगे, उनमें जुलाई के दौरान 125 यूनिट बिजली की खपत करने वालों का बिल ‘शून्य’ होगा। अजीब विरोधाभास यह है कि नीतीश कुमार मुफ्त बिजली सरीखी ‘चुनावी रेवड़ियों’ के धुर विरोधी रहे हैं। विधानसभा के भीतर और बाहर सार्वजनिक तौर पर उन्होंने ‘रेवड़ियों’ के खिलाफ बयान दिए हैं। मुफ्त की रेवड़ियां बांटना अब सिर्फ चुनावी वादा नहीं रह गया है, बल्कि चुनाव जीतने के लिए एक जरूरी दांव बन गया है। एक्विटास इंवेस्टमेंटस की एक रिपोर्ट के मुताबिक राजनीतिक पार्टियां वोट पाने के लिए कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर मुफ्त की चीजें बांट रही हैं। इससे सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जैसे-जैसे राजनीतिक दलों के बीच होड़ बढ़ रही है, कल्याणकारी योजनाएं और मुफ्त की रेवड़ियां चुनावी वादों से आगे बढ़कर राजनीतिक शक्ति का नया पैमाना बन गई हैं। मतलब साफ है कि राजनीतिक दलों के बीच मुफ्त की रेवड़ी बांटकर वोट हासिल करने की होड़ मची हुई है।

रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है ऐसी योजनाएं भले ही लोगों को थोड़े समय के लिए फायदा पहुंचाएं लेकिन लंबे समय में राज्यों के लिए आर्थिक संकट पैदा कर सकती हैं। मुफ्त बिजली की ‘रेवडि़यां’ बांटने के कारण राज्यों पर 96 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है। यह राशि भारत के सालाना राष्ट्रीय बजट से भी बहुत अधिक है। इस कर्ज पर 13 फीसदी ब्याज देना पड़ रहा है। ‘ग्लोबल साउथ’ के किसी भी देश की इतनी अर्थव्यवस्था नहीं है। एक राष्ट्र के तौर पर भारत पर करीब 200 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है। औसत नागरिक पर 4 लाख रुपए से अधिक का कर्ज है, लेकिन देश के सामने यह कभी भी स्पष्ट नहीं किया गया कि इतना कर्ज क्यों है? कर्ज किस वास्ते लेना पड़ा? यह स्थिति तब है, जब भारत 4 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक की अर्थव्यवस्था वाला देश है और विश्व में चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।

बेशक ‘रेवडि़यों’ की यह चुनावी परंपरा अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में 200 यूनिट बिजली मुफ्त बांट कर शुरू की थी। उनकी यह ‘चुनावी रेवड़ी’ पंजाब में भी बेहद कामयाब साबित हुई और आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार बनी। उसके बाद ‘आप’ ने तो इसे ‘चुनावी करिश्मा’ बना लिया। देखा-देखी भाजपा और कांग्रेस ने भी खूब ‘रेवडि़यां’ बांटीं। कांग्रेस की तीन राज्य सरकारें मुफ्त बिजली बांट रही हैं। यह दीगर है कि उन राज्यों पर भी लाखों करोड़ रुपए के कर्ज हैं। तमिलनाडु में विपक्षी दल द्रमुक की सरकार है और उस पर 9 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का कर्ज है, लेकिन सरकार है और उस पर 9 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का कर्ज है, लेकिन सरकार पावरलूम कर्मचारियों को 100 यूनिट तक बिजली मुफ्त दे रही है। दरअसल इन सरकारों और राजनीतिक दलों को देश की अर्थव्यवस्था का जरा भी चिन्ता नहीं है।

प्रधानमंत्री मोदी भी खुले मंच से कह चुके हैं कि ‘मुफ्त रेवडि़यां’ देश की अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर सकती हैं। कर्नाटक इसका एक बड़ा उदाहरण है। कांग्रेस की जीत के बाद वहां कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू हुईं। गृहलक्ष्मी योजना में महिलाओं को हर महीने 2,000 रुपये मिलते हैं। इसी तरह गृह ज्योति योजना में 200 यूनिट बिजली मुफ्त है। इन दोनों योजनाओं पर करीब 52,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे। यह रकम राज्य के 2023-24 के वित्तीय घाटे का 78 प्रतिशत है। इससे कर्नाटक की आर्थिक स्थिरता पर सवाल उठ रहे हैं। बीजेपी ने राज्य में सिर्फ 2,100 करोड़ रुपये यानी घाटे का सिर्फ 3 प्रतिशत कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च करने की योजना बनाई थी।

कर्नाटक अकेला नहीं है। दूसरे राज्य भी इसी रास्ते पर चल पड़े हैं। महाराष्ट्र में लाडली बहना योजना शुरू की गई। नीतीश कुमार जब पहली बार मुख्यमंत्री बने और उनकी सत्ता को स्थायित्व मिला, तो उन्होंने महिलाओं की खातिर राज्य में शराबबंदी लागू की। हालांकि उन्हें एहसास था कि इससे खजाने को करोड़ों का घाटा होगा, लेकिन सामाजिकता की खातिर उन्होंने यह कदम उठाया। हालांकि शराबबंदी पूरी तरह जमीन पर उतर नहीं पाई, लेकिन उसका राजनीतिक और चुनावी प्रभाव गहरा रहा।
गौरतलब है कि चुनाव-दर-चुनाव फ्री स्कीम्स बढ़ती जा रही हैं। शुरुआत मुफ्त चावल, गेहूं, बिजली, पानी, साइकिल, लैपटॉप, टीवी और साड़ी हुई थी। और अब फ्रीबीज के तहत सीधे अकाउंट में नकद ट्रांसफर किए जा रहे हैं। भला पैसा किसे अच्छा नहीं लगता। बेरोजगारी भत्ता, विधवाओं को पेंशन, बुजुर्गों को पेंशन और कर्ज माफी भी अब फ्रीबीज के दायरे में शामिल हो गया है।

इस लगातार राजकोष पर बोझ बढ़ता जा रहा है। महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड, दिल्ली और पंजाब जैसे राज्य अब इसी राजकोष के घाटे से जूझ रहे हैं। बिहार की चुनावी तस्वीर मुफ्त रेवड़ियों की चुनावी राजनीति से मुक्ति की उम्मीद तो हरगिज नहीं जगाती। इसलिए राज्यों पर बढ़ते कर्ज का बोझ कम होने की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। यह भी याद रखना चाहिए कि राज्य पर कर्ज का बोझ अंतत: नागरिकों पर ही कर्ज का बोझ है, क्योंकि राजनेता तो सत्ता-सुख भोग कर आते-जाते रहेंगे।

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