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चुनाव से पहले मुफ्त रेवड़ियां

निश्चित रूप से भारत एक समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष देश है मगर…

10:54 AM Feb 13, 2025 IST | Aditya Chopra

निश्चित रूप से भारत एक समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष देश है मगर…

चुनाव से पहले मुफ्त रेवड़ियां

निश्चित रूप से भारत एक समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष देश है मगर इसका मतलब यह कभी नहीं हो सकता कि यहां के नागरिकों को सरकारें चुनाव से पहले मुफ्त सुविधाओं के नाम पर उनका भुगतान नकद रोकड़ा में करें। एेसा करते ही हम अपने नागरिकों के एक बहुत बड़े वर्ग को परजीवियों में तब्दील कर देते हैं। कोई भी देश उसके लोगों से ही बनता है और उनके सामर्थ्यवान होने से ही देश समर्थ या मजबूत बनता है अतः इस मामले में देश की सर्वोच्च अदालत का यह आंकलन कि चुनाव से पहले मुफ्त रेवड़ियां बांटने से हम समाज में ‘परजीवी’ वर्ग का निर्माण ही कर रहे हैं, पूर्णतः सामयिक है। वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत ही सुसंस्कृत शब्द का इस्तेमाल करते हुए “परजीवी’ कहा है। जबकि चलाताऊ बोली में हम बिना काम किये ही भुगतान पाने वाले लोगों (परजीवी) को भिखारी भी कह सकते हैं।

इस सन्दर्भ में हमें स्वतन्त्रता के बाद भारत के विकास की कहानी को याद रखना चाहिए कि किस प्रकार अंग्रेजों द्वारा लुटा-पिटा यह देश स्वावलम्बन की दिशा में आगे बढ़ा। बेशक महात्मा गांधी ने लोकतन्त्र में नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं को सरकार द्वारा पूरा करने को एक कर्त्तव्य माना और अपने अखबार ‘हरिजन’ में यह कई बार लिखा कि जो सरकार नागरिकों की इन आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकती उसे अराजक तत्वों का एक जमघट ही कहा जायेगा परन्तु उन्होंने गरीबी खत्म करने का रास्ता गरीब नागरिकों को धन बांटने का कभी नहीं बताया। गांधी एेसा सामाजिक-आर्थिक ढांचा खड़ा करने के पक्ष में थे जिसमें प्रत्येक नागरिक स्वावलम्बी बन सके। मनुष्य की गरिमा और उसके आत्मसम्मान के पक्ष में गांधी ने पूरे आजादी के आन्दोलन की नींव रखी। उनका ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त हमें यही मार्ग दिखाता है। गांधी चाहते थे कि भारत के गांव आत्मनिर्भर इस प्रकार बनें कि उनमें श्रम की महत्ता सर्वदा सर्वोपरि रहे। दुख इस बात का है कि हम गांधी का देश होने के बावजूद गांधी के सिद्धान्तों को भूल रहे हैं जबकि दुनिया के दूसरे लोकतान्त्रिक देशों ने इससे बहुत बड़ा सबक लिया है।

बुनियादी आवश्यकताओं में शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन व आवास व रोजगार आते हैं। दुनिया के अन्य विकसित लोकतान्त्रिक देश इन क्षेत्रों में समाजवादी रुख ही अपनाते हैं। फिनलैंड से लेकर स्विट्जरलैंड व स्वीडन तक की लोकतान्त्रिक सरकारें अपने नागरिकों को स्कूल तक मुफ्त शिक्षा व सभी नागरिकों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराती हैं। इन स्केंडनेवियाई देशों में हाई स्कूल तक शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को मुफ्त दी जाती है। अमेरिका जैसे देश में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न बीमा योजनाएं बनाई जाती हैं। भारत में लोगों को शिक्षा देने की विभिन्न सरकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं। इस मद में भारत अपने सकल उत्पाद वृद्धि का डेढ़ प्रतिशत से कुछ ज्यादा ही खर्च करता है। इसके बावजूद राज्य व केन्द्र स्तर पर जितने भी शिक्षा कार्यक्रम हैं उन पर खर्च की जाने वाली राशि को यदि हम जोड़ लें तो कक्षा आठ तक हम प्रत्येक बच्चे को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध करा सकते हैं। इसी प्रकार स्वास्थ्य सेवाओं का हाल है। हमने इस मामले में अमेरिका की नकल तो की है मगर हम भूल गये हैं कि अमेरिकी समाज और भारतीय समाज की सामाजिक-आर्थिक बुनावट में जमीन- आसमान का अन्तर है।

भारत में सरकारी अस्पतालों का बाजार मूलक अर्थव्यवस्था लागू होने के बाद जिस प्रकार का क्षरण हुआ है और इस क्षेत्र को हमने जिस प्रकार कार्पोरेट जगत पर छोड़ा है उससे गरीब आदमी अपनी स्वास्थ्य व चिकित्सा सेवाओं की देखभाल करने में असमर्थ हो रहा है। लोकतन्त्र में सरकारें अपनी इस जिम्मेदारी से भाग नहीं सकती हैं क्योंकि स्वास्थ्य क्षेत्र में किया गया निवेश एेसा दीर्घकालिक निवेश होता है जिससे नागरिक स्वस्थ रह कर देश के विकास में अपना योगदान देते हैं। अतः शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में लोकतान्त्रिक सरकारों को सार्वजनिक निवेश करना चाहिए जिससे देश में काम करने वाले नागरिकों के हाथ मजबूत हों। भारत चूंकि ऋषि-मुनियों और पीर-फकीरों का देश है अतः हमें इसकी जड़ों में व्याप्त सामाजिक चेतना को भी समझना होगा। भारत में अंधविश्वास व रूढि़वादिता को समाप्त करने में सिख गुरुओं ने बहुत बड़ा योगदान दिया और कहा कि,

‘तू समरथ बड़ा मेरी मति थोड़ी राम

मैं पा लियो कृत कड़ा पूरन सब मेरे काम’

हालांकि भारतीय समाज में यह उक्ति भी गांवों में कही जाती है कि,

‘अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे न काम

दास मलूका कह गये सबके दाता राम’

लेकिन सिख धर्म के प्रादुर्भाव के साथ यह उक्ति भी तब्दील हुई और कहा गया,

‘नानक चिन्ता मत करो, चिन्ता तासी हेय

जल में जन्त उपायन, तिना भी ‘रोजी’ देय’

यहां ‘रोजी’ शब्द महत्वपूर्ण है। मलूक दास ने ‘रोटी’ शब्द का प्रयोग करके अकर्मण्यता को वैधता दी जबकि गुरु नानकदेव जी ने रोजी अर्थात काम को प्राथमिक माना। रोजी और रोटी में मूल अन्तर यही है कि खाली या बेरोजगार रहते हुए राम भी मदद नहीं करेंगे। सिख धर्म में ‘कड़ा’ कर्म अर्थात श्रम की महत्ता का परिचायक है। हालांकि हिन्दू धर्म के जनकवि तुलसीदास ने भी कर्म अर्थात कार्य या श्रमशीलता को ही प्रधानता दी और लिखा कि

‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा जो जस करई तस फल चाखा’

भारत में आठवीं तक शिक्षा का अधिकार मनमोहन सरकार के जमाने में तत्कालीन शिक्षा मन्त्री श्री कपिल सिब्ल ने दिया मगर इसके साथ समस्या यह है कि सरकारी स्कूल ही देश में पर्याप्त नहीं हैं और जो हैं भी वे धीरे-धीरे बन्द हो रहे हैं और निजी व महंगे स्कूलों की बाढ़ आ रही है। इसी प्रकार स्वास्थ्य क्षेत्र को लें तो स्थिति बेहतर कहीं से नहीं दिखाई देती। बेशक हम राष्ट्रीय स्तर पर आयुष्मान भारत योजना चला रहे हैं परन्तु इसकी निर्भरता निजी क्षेत्र के अस्पतालों पर ही है। इस क्षेत्र में यदि हम सरकारी अस्पतालों का मजबूत ढांचा खड़ा करते हैं तो उससे हम भारी संख्या में रोजगार भी उपलब्ध करा सकेंगे। सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी श्रम को महत्ता देने का ही विचार है। ‘काम के बदले अनाज’ जैसी पुरानी योजनाओं का नवीनीकरण करके हम रोजगार प्रदान करने के मोर्चे पर भी एक कदम आगे बढ़ायेंगे और श्रम की महत्ता को स्थापित करेंगे एेसी योजना का श्रीगणेश सबसे पहले महाराष्ट्र में ही 60 के दशक में तत्कालीन मुख्यमन्त्री स्व. वी.पी. नायक ने किया था। अतः समग्रता में सर्वोच्च न्यायालय के न्यामूर्तियों की टिप्पणी को लिया जाना चाहिए।

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