अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है लेकिन इस अधिकार की भी लक्ष्मण रेखा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग हिंसा, दूसरों को बदनाम करने, मानहानि करने या धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र में सबसे बड़ी चुनौती संतुलन की है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने के साथ-साथ ऐसे शब्दों और भाषणों का प्रतिकार करना भी जरूरी है जो वास्तव में हिंसा, फूहड़ता, अश्लीलता को प्रोत्साहित करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने दो मामलों में कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का ऑनलाइन दुरुपयोग हो रहा है। कार्टूनिस्ट हेमंत मालवीय द्वारा दायर याचिका पर शीर्ष अदालत की पीठ ने कार्टूनों पर कड़ी आपत्ति जताई और टिप्पणी की कि यदि अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार का आनंद लेना चाहते हैं तो यह उचित प्रतिबंधों के साथ होना चाहिए। हिन्दू देवी-देवताओं के खिलाफ आपत्तिजनक पोस्ट के लिए अलग-अलग राज्यों में दर्ज मामलों को एक साथ जोड़ने के लिए वजाहत खान की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की एक अलग पीठ ने टिप्पणी की कि नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के मूल्य पता होने चाहिए। लोगों को अपनी टिप्पणियों में संयम बरतना चाहिए।
शीर्ष अदालत ने इसके साथ ही कहा है कि वह किसी तरह की सेंसरशिप नहीं चाहते। पीठ ने राज्यों और केन्द्र से कहा है कि वे ऐसे तरीके सुझाएं जिनसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नुक्सान पहुंचाए बिना घृणास्पद भाषणों को नियंत्रित किया जा सकता है। नागरिकों को स्वयं इस बात का पता होना चाहिए कि अगर वे लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन करेंगे तो राज्य हस्तक्षेप करेगा। हालांकि कोई नहीं चाहता कि राज्य हस्ताक्षेप करे। देश की एकता और अखंडता को बनाए रखना मौलिक कर्त्तव्यों में से एक है। कम से कम सोशल मीडिया पर विभाजनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। नागरिकों को स्वयं संयम बरतना चाहिए ताकि समाज में भाईचारा बना रहे। यह भी वास्तविकता है कि राज्य सरकारों ने कानूनों का दुरुपयोग करके युवाओं का दमन करने की कोशिश की है।
किसी भी देश के लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती यह होती है कि वहां अलग-अलग विचारों या मत को जाहिर करने के मामले में ऐसी बंदिशें नहीं होती, जिसे अभिव्यक्ति के दमन के तौर पर देखा जाए। एक वैचारिक रूप से सशक्त और परिपक्व समाज अपने विवेक के स्तर पर इतना समृद्ध होता है कि वह किसी विचार में मानवीय मूल्यों और संदर्भों को दूरगामी परिप्रेक्ष्य में देख सके। विडंबना यह है कि विचारों की जिस भिन्नता की बुनियाद पर एक स्वस्थ समाज का सपना साकार हो सकता है, उसी को कई बार सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है और इस तरह उसका दमन करने की कोशिश की जाती है।
गौरतलब है कि राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ सोशल मीडिया पर उत्तेजक गीत के साथ एक संपादित वीडियो पोस्ट करने के लिए गुजरात के जामनगर में मुकदमा दर्ज किया गया था। आरोप यह था कि गाने के बोल उत्तेजक, राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले हैं। मामले की सुनवाई के बाद कथित ‘भड़काऊ’ कविता को लेकर दर्ज प्राथमिकी को रद्द करते हुए अदालत ने कहा कि साहित्य, जिसमें कविता और नाटक, फिल्में, मंचीय कार्यक्रम जैसे स्टैंड-अप हास्य, तंज और कला शामिल हैं, जीवन को और अधिक सार्थक बनाते हैं। 21वीं सदी के आरंभ (2000) में राजग के कार्यकाल में सूचना एवं प्रौद्योगिकी अधिनियम लागू किया गया था। आठ वर्ष बाद (2008 में) संप्रग-2 ने इसमें संशोधन कर धारा 66-ए को शामिल किया, जिसकी अधिसूचना फरवरी, 2009 में जारी हुई। प्रोफेसर हों या काटरूनिस्ट, लड़कियां हों या लेखक, व्यापारी हों या कर्मचारी, किशोर हों या वयस्क-अधेड़ सभी सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधित) बिल, 2008 की धारा 66-ए की गिरफ्त में आये। इस धारा के खिलाफ 21 याचिकाएं दायर की गयीं, जिनमें पहली याचिका कानून की छात्र श्रेया सिंघल ने 2012 में सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी।
बाल ठाकरे के निधन के बाद मुंबई बंद के विरोध में महाराष्ट्र की पालघर की दो लड़कियों (शहीन हाडा और रीनू श्रीनिवासन) ने फेसबुक पर पोस्ट डाली थी, तब इन दोनों के खिलाफ यह धारा लगायी गयी थी। श्रेया सिंघल ने इस धारा को चुनौती दी थी। गत 24 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर और आरएफ नरीमन की पीठ ने इससे संबंधित सभी जनहित याचिकाओं पर दिये फैसले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आधारभूत मूल्य घोषित करते हुए इस धारा को निरस्त कर दिया। आदेश में धारा 66-ए के तीन शब्दों- ‘चिढ़ाने वाला’, ‘असहज करने वाला’ और ‘बेहद अपमानजनक’ को अस्पष्ट कहा गया। हमारे गणतंत्र के 78 वर्ष के बाद भी हम इतने कमजोर नहीं दिख सकते कि सिर्फ एक कविता, कला या मनोरंजन के किसी भी रूप के प्रदर्शन से समुदायों के बीच दुश्मनी या घृणा पैदा होने का आरोप लगाया जा सकता है। जाहिर है, अभिव्यक्ति पर बंदिश के लिए जिस तरह की परिस्थितियां रची जाती हैं, पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की चुनौतियां देखी जा रही हैं, वे देश में लोकतंत्र के लिए आखिरकार नुक्सानदेह साबित होंगी। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि कोई भी लोकतंत्र तभी और ज्यादा मजबूत बनता है जब उसमें अलग-अलग विचारों के प्रति भिन्न समुदायों के भीतर सहिष्णुता के लिए पर्याप्त जगह होती है। यों भी संविधान सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। खासतौर पर बौद्धिक समाज अपने दायरे में किसी विचार के प्रति समर्थन या विरोध व्यक्त करने के लिए कई बार अलग-अलग रचनात्मक विधाओं का सहारा लेता है उसमें कानून और संविधान के तहत मिली आजादी के दायरे में वैसा आलोचनात्मक स्वर भी हो सकता है जो किसी न किसी रूप में देश में लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करे। लोकतंत्र में सभी पक्षों को अपनी-अपनी मर्यादाओं में रहकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करना होगा, तभी समाज में सौहार्द बना रहेगा।