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बिन्दु से सिंधु तक

आज मैं अपने पिता के नाम से जाना जाता हूं और इससे बड़ी शोहरत मेरे लिए…

11:42 AM Jan 17, 2025 IST | Aditya Chopra

आज मैं अपने पिता के नाम से जाना जाता हूं और इससे बड़ी शोहरत मेरे लिए…

बिन्दु से सिंधु तक

‘‘कभी अभिमान तो कभी स्वाभिमान हैं पिता,

कभी धरती तो कभी आसमान हैं पिता,

जन्म दिया है अगर मां ने,

जानेगा जिससे जग वो पहचान हैं पिता।’’

आज मैं अपने पिता के नाम से जाना जाता हूं और इससे बड़ी शोहरत मेरे लिए और कुछ नहीं हो सकती। आज मेरे पिताजी अश्विनी कुमार की पांचवीं पुण्यतिथि है। परिवार का भावुक हो जाना स्वाभाविक है। मेरी मां किरण चोपड़ा और मेरे अनुज आकाश और अर्जुन भावुक हैं। मेरे पिता के जीवन की दास्तान ऐसे व्यक्तित्व की है जिन्होंने अपने जीवन को बिन्दु से सिंधु बनाया। उनके जीवन को देखने से इस बात पर हैरानी होती है कि किस तरह से दूषित राजनीतिक वातावरण और गला काट प्रतिस्पर्धा में उलझे हुए समाज में आदर्श जीवन जिया जा सकता है और आदर्श स्थापित भी किए जा सकते हैं। उनका आदर्श जीवन हमारे लिए अनुकरणीय उदाहरण है। उनके समकालीन पत्रकार उन्हें भारतीय पत्रकारिता एवं भारतीय राजनीति का अक्षयकोष कहते हैं। वह निडर, साहसी और प्रखर व्यक्तित्व थे। साथ ही वह मानवीय चेतना के चितेरे जुझारू योद्धा रहे। बेटा होने के नाते अपने पिता के जीवन का विश्लेषण करना कोई आसान नहीं है लेकिन यह मेरे लिए भी अध्ययन का विषय है कि पिताश्री ने किस तरह से अपनी कलम के माध्यम से लाखों पाठकों को पंजाब केसरी के साथ जोड़ा और आम जनता से लेकर राजनीति के क्षेत्र में अपना उच्च मुकाम हासिल किया। मेरे लिए पिताजी जीवन का संबल, शक्ति और सुरक्षा रहे हैं। वे मेरे लिए छोटे से परिन्दे का खुला आसमान थे लेकिन पत्रकारिता जगत में वे मूल्यों पर आधारित लेखन और समाज सेवा तथा मानवीय दृष्टिकोण से समर्पित एक पत्रकार थे।

पिताजी के रहते मैंने आत्मबोध का कोई प्रयास नहीं किया। उनके रहते हमारा आकाश उज्ज्वल रहा, सूूर्य तेजस्वी लगता रहा और घर का आंगन खुशबूदार रहा। पिताजी के रहते हमारे चेहरे पर लकीरें नहीं आईं। मैंने पिताजी की डांट-फटकार भी खाई, साथ ही उनका स्नेह भी पाया। पिताश्री कभी-कभी बहुत सख्त तेवर अपनाते थे लेकिन कुछ क्षण बाद ही वे करुणामयी हो जाते थे। मैं यह सोचकर आज भी सिहर उठता हूं कि मेरे पिता अश्विनी कुमार पहले आतंकियों की गोलियों से छलनी पड़दादा लाला जी का शरीर अपनी गोद में रखकर घर तक लाए, फिर आतंकवादियों की गोली से छलनी दादा रमेश चन्द्र जी का शरीर अपनी गोद में रखकर आवास पर लाए थे। घर के वट वृक्ष गिर गए थे। कोई और होता तो कब का टूट गया होता। चुनौतियों ने उन्हें निर्भीक और साहसी बना दिया था। उन्होंने मुझे हमेशा यही समझाया कि,

‘‘लेखनी सत्य के मार्ग पर चले, लेखनी कभी रुके नहीं,

लेखन कभी झुके नहीं और यह अनैतिक समझौता भी न करे,

यह राष्ट्र की अस्मिता की संवाहक है और राष्ट्र को समर्पित हो।’’

राजनीतिज्ञ के रूप में भी वह अपनी कलम का मोह छोड़ नहीं सके। उन्होंने कलम को ही अपना ताकतवर हथियार माना और उसके जरिये ही वह व्यवस्था पर गहरे वार करते रहे। कोई और होता तो कलम छोड़ सियासत को अपना पेशा बना लेता। राष्ट्र और समाज के लिए कुछ न कुछ खास करने का जुनून उन पर सवार था। समाज के उत्थान और सामाजिक समरसता के ​लिए उन्होंने बहुत काम किया। उनकी लेखनी अंतिम सांस तक चलती रही। कैंसर से जूझते हुए भी उन्होंने अस्पताल के बेड पर अपना लेखन जारी रखकर सम्पादकीय धर्म निभाया। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘इट्स माई लाइफ’ लिखी। यह पुस्तक आज भी हमें सिद्धांतों एवं आदर्शों पर जीने की सीख देती है। मेरी मां किरण चोपड़ा के लिए वे पति होने के साथ-साथ एक मित्र और मार्गदर्शक भी थे। उनकी प्रेरणा से ही मेरी मां ने वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए वरिष्ठ नागरिक केसरी क्लब की स्थापना की। इसी क्लब के माध्यम से वह पूरी तरह से समाज को समर्पित हैं और वरिष्ठ नागरिकों की सेवा ही उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय बन चुका है। पापा के निधन के बाद मैंने जब उनकी कलम को सम्भाला तो मुझे अलग जिम्मेदारी का अहसास हुआ। हालांकि मैं उनके रहते भी लिखता था लेकिन उनकी गैर मौजूदगी में लिखना मेरे लिए चुनौतीपूर्ण रहा, क्योंकि मुझे पाठकों की कसौटी पर खरा उतरने की परीक्षा देनी थी। मैं पाठकों की कसौटी पर खरा उतरा या नहीं इसका विश्लेषण तो पाठक ही करेंगे। मैं उनके सिद्धांतों और आदर्शों पर चलने का प्रयास कर रहा हूं और पाठकों का असीम स्नेह मुझे अडिग रहने की शक्ति और सामर्थ्य प्रदान कर रहा है। मेरे लेखन, मां किरण चोपड़ा का लेखन और जन-जन की सेवा ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि है। पिताजी ने मुझे और मेरे भाइयों अर्जुन और आकाश को कुम्हार की तरह तराशा है। हमारे लिए वे तपती दोप​हरियों में छाया के समान थे। एक सफल क्रिकेटर, प्रखर पत्रकार, सफल राजनेता के रूप में उनकी अनेक छवियां उभर कर सामने आती हैं और आज भी चुनौतियों के समाधान के लिए हमें उन जैसी ऊर्जा की जरूरत है। हमें बार-बार अहसास होता है कि वे आज भी हमारे अंग-संग हैं। आसमान में असंख्य तारे देखकर उन तारों में पिताजी को तलाशते हैं। पापा….वी मिस यू।

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