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गैस से रिसते घाव

कोरोना महामारी के बीच विशाखापत्तनम में हुई त्रासदी ने 3 दिसम्बर 1984 को हुई भोपाल गैस त्रासदी की यादें ताजा कर दीं। जब गैस रिसाव हुआ तब भोपाल की ही तरह विशाखापत्तनम भी नींद की आगोश में था।

12:05 AM May 09, 2020 IST | Aditya Chopra

कोरोना महामारी के बीच विशाखापत्तनम में हुई त्रासदी ने 3 दिसम्बर 1984 को हुई भोपाल गैस त्रासदी की यादें ताजा कर दीं। जब गैस रिसाव हुआ तब भोपाल की ही तरह विशाखापत्तनम भी नींद की आगोश में था।

कोरोना महामारी के बीच विशाखापत्तनम में हुई त्रासदी ने 3 दिसम्बर 1984 को हुई भोपाल गैस त्रासदी की यादें ताजा कर दीं। जब गैस रिसाव हुआ तब भोपाल की ही तरह विशाखापत्तनम भी नींद की आगोश में था। विशाखापत्तनम की एलजी पालिमर्स में गैस रिसाव रात ढाई बजे शुरू हुआ। गैस रिसाव से लोगों को तकलीफ हुई तो वे घरों से बाहर निकले। सुबह सड़कों पर भयानक मंजर था। जो जहां था, वहीं अचेत हो गया। लोग कटे पेड़ों की तरह गिरने लगे। मनुष्य ही नहीं पशु और पक्षी भी अचेत हो गए। महिलाएं अपने छोटे बच्चों को उठाये अस्पतालों की ओर भागने लगी। आसपास के पांच गांव खाली करा लिए गए। यह कैसी प्रेत लीला थी जिसने अब तक 13 लोगों की जान ले ली है।
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इसी तरह भोपाल गैस त्रासदी के बाद पीड़ित समुदाय के लिए 36 वर्ष का समय ठहरा हुआ ही रहा। इस त्रासदी में सरकारी तौर पर मृतकों का आंकड़ा भले ही 5 हजार बताया गया लेकिन पिछले 36 वर्षों में गैस पीड़ित एक-एक करके मरते रहे हैं। गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार इस त्रासदी ने 15 हजार लोगों की जान ले ली। 5 लाख लोग प्रभावित हुए थे। भोपाल गैस त्रासदी का मुकद्दमा 23 वर्षों तक चला। केन्द्र सरकार ने अपना दायित्व नहीं निभाया और जांच एजैंसियों ने भी आधा-अधूरा काम किया। भोपाल के यूनियन कार्बाइड के कारखाने से गैस रिसाव के बाद कंपनी के शीर्ष अधिकारी वारेन एंडरसन की गिरफ्तारी, मुचलके पर रिहाई और उनको भारत से भगाने की कहानी भारतीय मीडिया में सुर्खियां बनती रही है और सियासत भी खूब हुई। भगौड़ा एंडरसन भोपाल गैस पीड़ितों को मुंह चिढ़ाते हुए अमेरिका में ऐश-ओ-आराम की जिन्दगी जीता रहा। भोपाल गैस पीड़ित आज भी पीड़ा झेल रहे हैं। हाल में खबर आई थी कि भोपाल गैस त्रासदी से बच गए 5 लोगों की कोरोना से मौत हो गई। संत कबीर ने लिखा हैं : – 
साधो यह मुरदों का गांव
पीर मरै, पैगम्बर मर गए
मर गए जिन्दा जोगी।
तत्कालीन केन्द्र सरकार और राज्य सरकार ने सही सोचा कि जब सभी की मृत्यु हो ही जानी है तो कुछ किया ही क्यों जाए। नव उदारीकरण के युग में विकास का पैमाना महज आर्थिक रह गया है। भोपाल गैस पीड़ितों का संघर्ष केवल एक प्रतीक बन कर रह गया है। उन्हें न तो पर्याप्त मुआवजा मिला, न ही उनका सही ढंग से उपचार हुआ। हजारों विकलांग हो गए, हजारों की नेत्र ज्योति प्रभावित हुई।
विशाखापत्तनम के प्लांट से रिसी गैस स्टाइरीन का प्रभाव कितना घातक साबित होगा यह कहना अभी मुश्किल है। इस औद्योगिक हादसे में पहले के ही हादसों की तरह जांच होगी। प्रबंधन इसे चूक या मानवीय भूल बता कर कुछ को बलि का बकरा बनायेगा। वास्तव में हमने भोपाल गैस त्रासदी से कोई सबक ही नहीं सीखा। सवाल यह है कि औद्योगिक सुरक्षा मानकों के मामले में घोर लापरवाही क्यों बरती जा रही है। लॉकडाउन के चलते उद्योग बंद हैं और इन्हें फिर से चालू करने में अत्यधिक सावधानी बरती जानी चाहिए। उद्योगों का प्रबंधन पैसा बचाने के ​लिए सुरक्षा मानकों को नजरंदाज करता है और लोगों को मौत के मुंह में धकेलता है। लॉकडाउन के बाद फैक्ट्री को खोलने की प्रक्रिया में कौन सी अहतियात बरती गई है या नहीं यह जांच का विषय है। यह प्लांट एलजी पॉलिमर्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड का है, 1961 में बना यह प्लांट हिन्दुस्तान पालिमर्स का था ​जिसका 1997 में दक्षिण कोरियाई कंपनी एलजी ने अधिग्रहण कर लिया था। सरकार ने लॉकडाउन के बाद फैक्ट्रियों खासकर हानिकारक उत्पादों का इस्तेमाल करने वालों को गाइडलाइन्स जारी की थी, प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है कि इन गाइडलाइंस का पालन नहीं ​किया गया। उम्मीद की जानी चाहिए कि दक्षिण कोरियाई कंपनी वैसे ही जिम्मेदारी दिखाएगी जैसा यूरोपीय संघ के किसी देश या अमरीका में होने पर करती। जिम्मेदारी कंपनी की बनती है, उसे पीड़ितों को पर्याप्त मुआवजा देना चाहिए।
देश पहले ही कोरोना वायरस से पीड़ित है ऐसी स्थिति में जहरीली गैस स्टाइरीन हवा में घुल जाए तो लोग बदहवासी में भागेंगे ही। इससे नाक और गले में जलन पैदा होती है, खांसी और गले में तकलीफ होती है और फेफड़ों में पानी भरने लगता है। हादसों के बाद खतरनाक उत्पादों का इस्तेमाल करने वाली कंपनियों की जवाबदेही तैयार करने के लिए कानून भी बनाये गए। औद्योगिक हादसों के बाद भारी जुर्माने का प्रावधान भी है लेकिन पूर्व के अनुभव बताते हैं कि विदेशी कंपनियों के लिए उदारवादी रवैया अपनाया जाता है। सरकारों को विदेशी निवेश की जरूरत है लेकिन विदेशी कंपनियों को हवा में जहर फैलाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। जो स्थानीय प्रशासन गटर की सफाई करने वाले मजदूरों को सुरक्षा उपकरण उपलब्ध नहीं करवा पाता, अनेक मजदूरों की सफाई करते समय जहरीली गैस की चपेट में आ जाने से लगातार मौतें हो रही हैं, उससे क्या कोई उम्मीद लगाई जा सकती है। आखिर लोगों को कब तक मौत के मुंह में धकेला जाता रहेगा। जहरीली गैसों से घाव रिसते जा रहे हैं, आखिर ऐसा कब तक होता रहेगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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