चीन को ‘मुंहतोड़’ जवाब दो
गलवान घाटी में जिस तरह चीनी सैनिकों ने भारत के 20 वीर सैनिकों काे शहीद किया उसने दोनों देशों के बीच सरहद पर हुए शान्ति व भाईचारा बनाये रखने के सभी समझौतों की धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं
12:04 AM Jun 19, 2020 IST | Aditya Chopra
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गलवान घाटी में जिस तरह चीनी सैनिकों ने भारत के 20 वीर सैनिकों काे शहीद किया उसने दोनों देशों के बीच सरहद पर हुए शान्ति व भाईचारा बनाये रखने के सभी समझौतों की धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं। 1962 में भी चीन ने यही किया था लेकिन 1967 में भी जब सिक्किम की सरहद पर उसने ऐसा ही करने का प्रयास किया तो भारतीय सैनिकों ने चीनी सेना को उसके इलाके में खदेड़ कर उसके 400 सैनिकों को हलाक कर दिया था। बेशक भारत के भी 60 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए थे। उसके बाद पहली बार चीन ने भारतीय क्षेत्र में नीतिगत तरीके से जबरन पैर जमाने की हिमाकत की है और इस तरह की है कि 40 दिनों से लगातार वह हमारे लद्दाख की नियन्त्रण रेखा के पार आकर जमा हुआ है और इस बीच दोनों देशों के बीच हुए विभिन्न समझौतों का हवाला देकर हमारे सैनिकों को ही शहीद कर रहा है, जमीन भी हमारी और सैनिक भी हमारे और ऊपर से द्विपक्षीय समझौतों की दुहाई। गलवान घाटी कोई चीनी सैनिकों के लिए ‘खाला का घर’ नहीं है कि वे अपनी शर्तों पर हमसे ‘मेहमान नवाजी’ की तवक्कों रखें और हमारे सैनिक हाथ बांध कर उनकी आवभगत करें। जब गलवान घाटी में भारतीय सेना के कमांडर कर्नल सन्तोष बाबू को चीनी सैनिकों ने शहीद कर डाला था तो सारे समझौतों की मर्यादा खत्म हो गई थी। किसी सिपहसालार की उसके सैनिकों के सामने ही हत्या कोई साधारण घटना नहीं होती। चीन को यह हमलावर साबित करती है और हमला करने वाली फौज काे जवाब सेना अपने नियम कायदों और ‘शस्त्राचार’ से देती है। इससे ज्यादा भारत को उकसाने का प्रमाण और क्या हो सकता है कि पत्थारबाजी और लोहे की राडों से उन्हें जख्मी करके शहीद किया जाये।
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भारत के जांबाज सैनिक जान हथेली पर रख कर लद्दाख जैसे दुर्गम इलाके में अपनी मातृभूमि की रक्षा में रात-दिन सन्नद्ध रहते हैं। उनका बलिदान किसी भी हालत में व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। अरुणाचल के तिब्बत से लगती तवांग घाटी के छावनी में लगा सूबेदार जोगिन्दर सिंह का स्मारक गवाह है कि किस तरह अकेला राइफलधारी भारतीय सैनिक सौ-सौ चीनियों पर भारी पड़ता है। सर पर कफन बांध कर लड़ने वाले भारतीय सैनिक हमेशा वीरों की मौत मरना पसन्द करते हैं मगर चीन ने जो कायराना हमला गलवान घाटी में किया है उससे जबर्दस्त सबक लेने की जरूरत है। यह देश किसी समझौते को नहीं मानता है और पड़ोसी को कभी फलता-फूलता नहीं देख सकता। जरूरत इस बात की है कि उसे भारतीय सेना के दम-खम का एहतराम कराया जाये जिससे वह भविष्य में नियन्त्रण रेखा को लक्ष्मण रेखा समझ कर उसे पार करने से डरे। समझौता तो यह भी है कि दोनों देशों के सैनिक नियन्त्रण रेखा को पार नहीं करेंगे और नियंत्रण रेखा को लेकर किसी प्रकार की कोई गलतफहमी भी नहीं है। इस गफलत से भारतवासी और देश का मीडिया बाहर निकले कि नियन्त्रण रेखा को लेकर किसी प्रकार की गलतफहमी है। नियन्त्रण रेखा खींची ही इसलिए गई थी जिससे दोनों देश सीमा रेखा को लेकर किसी प्रकार के भ्रम में न रहें क्योंकि सीमा को लेकर दोनों देशों के दावे अलग-अलग हैं और इसकी वजह 1914 में खिंची वह मैकमोहन रेखा है जिसे चीन ने कभी स्वीकार नहीं किया क्योंकि यह सीमा रेखा भारत-तिब्बत व चीन के बीच खिंची थी।
चीन आखिर किस गलवान घाटी की बात कर रहा है? यह सदियों से लद्दाख का हिस्सा है और इसी लद्दाख का हिस्सा वह ‘अक्साई चिन’ भी है जिसे 1962 से चीन अपने कब्जे में लिए बैठा है। इसी से लगते काराकोरम इलाके को पाकिस्तान ने 1963 में उसे भेंट में दे दिया। यह सारा इलाका लद्दाख में ही आता है। लद्दाख के एक हिस्से को हड़पने वाला चीन अब हमारे घर के भीतर घुस कर ही हमें आंख दिखा रहा है और कह रहा है कि यह इलाका उसका है। यह चीन की बदगुमानी है कि पाकिस्तान और नेपाल को साथ लेकर वह भारत के अन्दर घुस कर उसे धमकी दे सकता है और सैनिकों के साथ भेडि़या धसान कर सकता है। उसे क्या याद दिलाना होगा कि यह ब्रिगेडियर उस्मान और हवलदार अब्दुल हमीद का देश है। आज हमारा धर्म और युद्ध शिष्टाचार कहता है कि भारत की सीमा में आने वाले चीनी सैनिकों को बन्धक बना लिया जाये और ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाये। समझौते कागज के टुकड़े नहीं होते बल्कि जमीन पर अमल करने के लिए होते हैं मगर चीन उन्हें कागज का टुकड़ा समझ रहा है।
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