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नये साल में आगे बढ़ें!

लिखने को आज की मतिभ्रमकारी स्थिति पर व्यंग्यात्मक शैली में बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर असली सवाल यह है कि हमारी भविष्य की दिशा कैसी होगी?

05:21 AM Jan 01, 2020 IST | Ashwini Chopra

लिखने को आज की मतिभ्रमकारी स्थिति पर व्यंग्यात्मक शैली में बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर असली सवाल यह है कि हमारी भविष्य की दिशा कैसी होगी?

नये साल में आगे बढ़ें
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नया वर्ष 2020 आ गया है और हम भारतवासी विदेश (पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बंगलादेश ) से आने वाले शरणार्थियों के धर्म को लेकर उलझन में पड़े हुए हैं कि शरण देने से पहले उसके मजहब को परख लिया जाये कि वह हिन्दू है या मुसलमान। सवाल खड़ा हो गया है कि शरणागत होने का अधिकार किसके पास है? विभिन्न राज्यों से मांग उठ रही है कि शरणागत का धर्म देख कर जो कानून उसे भारतीयता प्रदान करता है वह उसे लागू करने को तैयार नहीं है क्योंकि यह भारतीय संविधान के विरुद्ध है।
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इसी मुद्दे पर देश प्रेम और देश विरोध का तर्क-वितर्क गहराता जा रहा है और भारत की अर्थव्यवस्था 4.5 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि की सुस्त रफ्तार दर्ज करके डरा रही है कि करोड़ों युवकों को रोजगार किस तरह मिलेगा और सरकार के पास विभिन्न परियोजनाएं पूरी करने के लिए राजस्व कहां से आयेगा? राजस्व प्राप्ति में गिरावट दर्ज होने की वजह से सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रह्मण्यम कह रहे हैं कि भारत का वित्तीय घाटा बढ़ सकता है। अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य का अन्दाजा केवल आयात-निर्यात के आंकड़े को देखकर ही लग सकता है कि बीते वर्ष में इसका आयात पांच प्रतिशत से घट कर एक प्रतिशत रह गया है और निर्यात 9 प्रतिशत वृद्धि दर से नीचे आकर एक प्रतिशत घट गया है।
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सामाजिक कलह का जिस तरह विस्तार हो रहा है उससे आम भारतीय कहीं न कहीं सहमा हुआ जरूर है और उसे लग रहा है कि भारत अचानक 72 साल पीछे पहुंच कर फिर से हिन्दू-मुस्लिम के विवाद में उलझता जा रहा है। गांधी बाबा राजघाट में समाधिस्थ अचम्भे में हैं कि लोग सावरकर को भारत रत्न देने की चिन्ता में पड़े हुए हैं, परन्तु नेहरू खुश हैं कि जम्मू-कश्मीर में लगी धारा 370 पूरी तरह ‘घिस’ चुकी है और अब उसका कोई अवशेष तक नहीं बचा है। राजनीति के मैदान में सभी प्रमाणित गांधी बाहर आ चुके हैं मगर युवा पीढ़ी उन पर वाजिब गौर नहीं फरमा रही है इसके बावजूद आम गिरीजन से लेकर बहुजन स्वयं ही गांधी हो रहे हैं और अम्बेडकर के बनाये संविधान को हाथ में लेकर सड़कों पर घूम रहे हैं।
अब गर्व से कोई नहीं कहता कि हम हिन्दू हैं बल्कि भय भरते हुए बोलता है कि राम- राम जी। इन्ही राम को अब पूरी तरह तुलसी का राम मान कर कबीर और गुरुनानक के राम को छुट्टी पर भेजते हुए प्राचीन नगरी ‘साकेत’ का अयोध्या नामकरण उनके भव्य मन्दिर निर्माण की शपथ के संवैधानिक आदेश के साथ ही भारत की पहचान में बदल चुका है। हम भारत के लोग परेशान हैं कि भारत का विचार वास्तव में क्या है? मगर लोग हैं कि अम्बेडकर को भारत के विचार का सबसे बड़ा मसीहा मानते हैं और कहते हैं कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’  इसके बावजूद हम आगे बढे़ हैं और हमने समरसता को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली है।
तमिलनाडु के एक कस्बे के वो तीन हजार लोग अज्ञानी हैं जो हिन्दू धर्म को छोड़ कर इस्लाम में दीक्षित होना चाहते हैं। उन्हें मालूम ही नहीं है कि भारत में धर्म छोड़ने पर भी आदमी अपनी जाति नहीं छोड़ता है यह जाति ही उसे राजस्थान के नाथद्वारा मन्दिर में पूजा करने के नियम बताती है ‘चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक’ सभी इसके नियम से बन्धे होते हैं। भगवान बुद्ध और तीर्थंकर महावीर हमारी संस्कृति के सिरमौर हैं इसलिए हम उनके सिद्धान्तों को निज पर लागू करते हैं और समाज को इनसे दूर रखते हैं क्योंकि ऐसा करने से सरकारी सम्पत्ति के नुकसान की भरपाई कहां से होगी।
लिखने को आज की मतिभ्रमकारी स्थिति पर व्यंग्यात्मक शैली में बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर असली सवाल यह है कि हमारी भविष्य की दिशा कैसी होगी? समाज को जड़वत स्थिति में रख कर कोई भी देश वास्तविक तरक्की नहीं कर सकता है और इस तरक्की के ​लिए मानसिक तरक्की होना बहुत जरूरी शर्त होती है। बाबा साहेब ने जो संविधान लिखा उसमें यह निर्देश भी दिया कि सरकारें लोगों में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए कारगर उपाय करेंगी। हमारी आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक प्रगति सोच पर ही निर्भर करती है। जिस ‘स्टार्ट अप इंडिया’ ने युवा जगत को व्यापार व वाणिज्य की नई विधा से नवाजा है वह सोच की ही उत्पत्ति है। राजनीति मेें राष्ट्रवाद से लेकर समाजवाद। जनवाद, पूंजीवाद और मानवता वाद तक सोच की ही उत्पत्ति हैं। इसी सोच से कबीर व रैदास और तुकाराम जैसे मनीषियों ने जातिवाद के ढोंग को बेनकाब किया और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरुद्ध इंकलाब छेड़ा।
नये साल में यदि इस भारत के 35 वर्ष तक के युवा यह कसम उठा लें कि वे जातिवाद की बुराई को सामाजिक सम्मान के बने नियमों से अलग कर देंगे तो भारत सीधे 22वीं सदी में पहुंच जायेगा और इसके ज्ञान-विज्ञान की शक्ति के आगे स्वयं दुनिया को शीश झुकाना पड़ेगा क्योंकि जब आज के हिन्दोस्तान के युवा के आगे उसकी साफ्टवेयर शक्ति के समक्ष दुनिया सिर नवां रही है तो कौन जान सकता है कि कितने और अम्बेडकर इस मुल्क के गांवों में बिखरे पड़े हैं। हकीकत यह भी है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन के सभी प्रमुख नेताओं में डा. अम्बेडकर ही सबसे ज्यादा पढे़-लिखे ऐसे बुद्धिमान शास्त्र ज्ञाता थे, जिनके पास उच्च शिक्षा की सबसे ज्यादा डिग्रियां थीं।
अतः वह पंडित अम्बेडकर ही हुए। नये साल में हमें केवल भारतीय या हिन्दोस्तानी बन कर ही विभिन्न समस्याओं के बारे में सोचना होगा और तय करना होगा कि भारत में पिछले पाच हजार सालों से द्रविड़, काकेशसी व मंगोल ‘जाती’ के वंशज इतने भाईचारे के साथ कैसे रहते रहे हैं, परन्तु इसके लिए वैज्ञानिक सोच विकसित करने की आवश्यकता है और कुएं के मेंढक के समान ही उसे संसार मानने की भूल करना नहीं। नया साल हमें हर वर्ष आगे बढ़ने की प्रेरणा अपना नम्बर आगे बढ़ जाने के सापेक्ष ही देता है। यदि ऐसा न होता तो भारत के किसानों ने नदियों के खादर में उगने वाले ‘सरुए या सरकंडे’ में  मीठा रस भर कर उसे ‘गन्ना’ कैसे बनाया होता? इसके लिए चीजों को जान कर ही उन पर यकीन करना जरूरी था और यही वैज्ञानिक सोच है।
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Ashwini Chopra

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