भगवान भरोसे चल रहे हैं भारतीय एयरपोर्ट?
‘शाम के वक्त घर लौटते परिंदों को भी कोई सताता है भला
ये खानाबदोश मंजर भी किसी सूनी आंखों में समाता है भला’
अहमदाबाद में एयर इंडिया विमान हादसे की त्रासदी के जख्म भले ही अभी-अभी उतने ताजा हों, पर लगता है इसके बावजूद भी विमानन मंत्रालय अपने पुराने ढर्रे पर ही चलने को मजबूर है। विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि आज की तारीख में भी कम से कम डेढ़ दर्जन भारतीय एयरपोर्ट को ‘रेग्यूलर एयरपोर्ट डायरेक्टर’ की कमी खल रही है। उनकी जगह ‘टेम्परेरी एयरपोर्ट डायरेक्टर’ से ही काम चलाया जा रहा है। कई एयरपोर्ट पर तो सेफ्टी व सिक्योरिटी के दायित्व संभालने वाले अफसरों की कई पोस्ट खाली पड़ी हैं।
सनद रहे कि एयरपोर्ट डायरेक्टर का किसी भी एयरपोर्ट के सुचारू व सुरक्षित परिचालन में सबसे अहम रोल होता है, अगर रेग्यूलर एयरपोर्ट डायरेक्टर की गैर मौजूदगी की बात हो तो आप मिसाल के तौर पर नार्थ में प्रयागराज, गोरखपुर, सेंट्रल से रायपुर का नाम ले सकते हैं, साउथ में तिरूपति, तूतीकोरन व राजा मुंद्री एयरपोर्ट, नार्थ-ईस्ट में डिब्रूगढ़, सिल्चर, जोरहाट, पश्चिम में गोवा और राजकोट एयरपोर्ट का नाम ले सकते हैं जहां रेग्यूलर एयरपोर्ट डायरेक्टर नहीं हैं। आने वाले दिनों में कोलकाता, इंदौर, जम्मू, पुणे, देहरादून के भी रेग्यूलर एयरपोर्ट डायरेक्टर रिटायर होने वाले हैं या उनका कार्यकाल पूरा होने वाला है। सूत्रों की मानें तो उनकी जगह लेने के लिए डायरेक्टर की सलेक्शन प्रक्रिया भी कई महीनों से लंबित पड़ी हुई है। ज्यादातर जगहों पर जहां से एयरपोर्ट डायरेक्टर की विदाई होती है वहां यह जिम्मेदारी अस्थायी तौर पर वहां के वरिष्ठतम अधिकारी के सुपुर्द कर दी जाती है।
सबसे आश्चर्य की बात तो यह कि वेस्टर्न रीजन के पास कोई रीजनल एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर ही नहीं है। इसी तरह मेंटेनेंस और ऑपरेशंस में भी कई पोस्ट वर्षों से खाली पड़ी हुई हैं। यहां तक कि रेग्यूलर सेफ्टी ऑफिसर की भी भरपाई अन्य विभागों से लोगों को लाकर की जा रही है, जबकि विमानन क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि ‘सेफ्टी ऑफिसर की एक खास तरह की ट्रेनिंग होती है, उन्हें ऐसी किसी ट्रेनिंग के बाद ही कोई महती जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए।’ डीजीसीए यानी नागर विमानन महानिदेशालय जो कि एयरपोर्ट सुरक्षा के लिए भी जिम्मेदार है। उसने अपनी ताजा जांच में दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े एयरपोर्ट पर सुरक्षा की बड़ी खामियों को उजागर किया है। अहमदाबाद हादसे के तुरंत बाद से ही डीजीसीए एक के बाद एक कई छोटे-बड़े एयरपोर्ट की जांच में जुटा है, जहां उसे तमाम स्तरों पर खामियां मिल रही हैं। जांच में यह भी सामने आया है कि विमानन कंपनियां और हवाई अड्डों पर आपरेटर के तौर पर सेवाएं देने वाली कंपनियां नियमों की भारी अनदेखी कर रही हैं, जो आने वाले दिनों में किसी बड़े हादसे की वजह बन सकती हैं।
इसके अलावा बीसीएएस यानी ‘ब्यूरो ऑफ सिविल एविएशन सिक्योरिटी’ जिसका काम एयरपोर्ट का ऑडिट करना भी है, डीजीसीए के साथ-साथ यहां भी मैनपॉवर की भारी कमी देखी जा सकती है। सो, ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि क्या भगवान भरोसे चल रहे हैं भारतीय एयरपोर्ट? रनवे पर रबर डिपाजिट भी बन सकता है दुर्घटना का कारण: बारिश के मौसम में रनवे मेंटेनेंस का काम और भी जरूरी व चैलेंजिंग हो जाता है, क्योंकि रनवे पर बारिश का पानी ठहरने की वज़ह से फिसलन हो सकती है ऐसे में लैंडिंग या टेकऑफ कर रहे विमानों के पायलट को भी खास सावधानी बरतनी पड़ती है। ऐसे मौसम में रनवे मेंटेनेंस का काम सुचारू रूप से चलते रहना चाहिए। आमतौर पर जब विमानों की लैंडिंग होती है तो रनवे पर टायरों के रबर डिपोजिट होने शुरू हो जाते हैं, जिसका असर रनवे की ‘फ्रिक्शन वैल्यू’ पर पड़ता है या आसान शब्दों में कहा जाए तो लगातार रबर डिपोजिट की वज़ह से रनवे की चिकनाहट बढ़ जाती है और इससे ‘लैंडिंग’ या ‘टेकऑफ’ के दौरान विमान के रनवे पर फिसलने का खतरा बना रहता है।
आमतौर पर रनवे की फ्रिक्शन वैल्यू को नियमित तौर पर मापा जाता है, इसका ‘विजुअल ऑब्जरवेशन’ भी होता है, इसके अलावा भी अगर इस पर कहीं दरार वगैरह दिखती है तो उसकी फौरी मरम्मत भी की जाती है। बाकी रनवे से रबर डिपोजिट को मैनुअली या फिर एक खास मशीन द्वारा साफ किया जाता है चूंकि इस मशीन की लागत बहुत ज्यादा है सो, हर एयरपोर्ट पर उसे रखना संभव नहीं हो पाता। सो, इस मशीन को अलग-अलग जोन में रखा जाता है और खास एयरपोर्ट के डिमांड के हिसाब से उसे वहां भेजा जाता है। कई बार मशीन के वहां पहुंचने में देर हो जाती है तो निर्दिष्ट एयरपोर्ट मैनुअली ही रबर डिपोजिट हटाने का प्रयास करते हैं। अगर ‘टच डाउन जोन’ (जहां विमान का पहिया रनवे को टच करता है) का फ्रिक्शन वैल्यू तयशुदा सीमा के अंदर हो तो यह वहां विमान उतारने के लिए उपयुक्त है। जिस टच डाउन जोन का फ्रिक्शन वैल्यू तयशुदा सीमा का उल्लंघन कर रहा होता है, एयरपोर्ट ऑथरिटी को उसे नोटिफाई करना पड़ता है। फिर ‘नोटस’ होकर यह सूचना विमान के पायलट तक पहुंच जाती है, पायलट ऐसे नोटिफाइड एरिया को अपना टच डाउन जोन नहीं बनाते हैं ताकि किसी भी प्रकार की अनहोनी से बचा जा सके।
दिल्ली में विकास और आईएएस अफसर : दिल्ली में रेखा गुप्ता की अगुवाई में भाजपा सरकार सभी विभागों को मजबूती से चलाने और दिल्ली में शानदार काम कराने के लिए देशभर के कोने-कोने से टाप क्लास आईएएस अफसरों को चार्ज दिया गया है। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि कहा जा रहा है कि रेखा गुप्ता की अगुवाई में काम करने वाले ज्यादातर मंत्रियों का प्रशासनिक अनुभव शून्य है। चार आईएएस अफसर ऐसे हैं जिनकी भूमिका सबसे अहम है। ये सभी पॉलिसी बनाने से लेकर इसे लागू करने में अपनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहे हैं। जैसे सीएम के प्रिंसिपल सैक्रेटरी ए. अन्बारासू 96 बैच के आईएएस अफसर हैं जो पुड्डुचेरी से यहां लाए गए हैं। ठीक वैसे ही दिल्ली जल बोर्ड का सीईओ 2006 बैच के यूपी कैडर के आईएएस कौशल राज शर्मा को बनाया गया है। इसी कड़ी में अन्य अफसर भी मोर्चों पर डटे हुए हैं। सो उन्हें सही कामकाज के लिए ये अफसर अलग-अलग विभागों में मोर्चा संभाले हुए हैं।
पीडब्ल्यूडी हो या दिल्ली जल बोर्ड ये सभी अफसर फ्री हैंड लेकर काम कर रहे हैं और सबको पता है कि उन्हें ऊपर से मिले आदेशों का पालन करना है। अब सभी विभागों में कामकाज तेजी से हो रहे हैं, यानि दिल्ली तेजी से विकास की सही राह पर है। बिहार में कांग्रेस राम भरोसे: बिहार कांग्रेस के नए-नवेले अध्यक्ष राजेश राम अपने करीबियों के समक्ष कई-कई दफे इस बात का दावा कर चुके हैं कि हालिया बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी अपने 85 फीसदी टिकट एससी, एसटी, पिछड़े-अति पिछड़े व मुसलमानों को देगी, यानी कि सवर्ण जातियों को कांग्रेस के कोटे से सिर्फ 15 फीसदी टिकट ही दिया जाएगा। समझा जाता है कि आरजेडी व वामपंथी दलों के साथ गठबंधन में इस बार कांग्रेस के पास 40 सीटें आ सकती हैं, इसका 15 फीसदी यानी राम साहब की मानें तो अगड़ी जातियों के लिए सिर्फ 6 सीटों की ही गुंजाइश है। कांग्रेस के पास अभी 5 निर्वाचित फॉरवर्ड विधायक हैं, इन सबको फिर से टिकट देना संभवतः हाईकमान की मजबूरी हो सकती है।
बिहार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष व अगड़ी भूमिहार जाति से ताल्लुक रखने वाले अखिलेश सिंह अपने बेटे के लिए टिकट चाहते हैं, इसकी अनदेखी शायद कांग्रेस शीर्ष के लिए संभव नहीं होगा। चर्चित पत्रकार रवीश कुमार के भाई ब्रजेश पांडेय ने बिहार कांग्रेस प्रभारी कृष्णा अल्लावरू की मुलाकात लालू यादव से करवाई थी, ब्रजेश भी कांग्रेस टिकट के एक प्रबल दावेदार हैं। कहते हैं राजेश राम की ताजा मंशाओं को भांपते अगड़ी जातियों का अभी से कांग्रेस से मोह भंग होना शुरू हो गया है। कांग्रेस के कई फॉरवर्ड नेताओं ने तो सदाकत आश्रम का रुख करना ही छोड़ दिया है, वहीं राजद का कांग्रेस पर दबाव है कि वह ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट न दें। राजेश राम जो औरंगाबाद की कुटुंबा रिजर्व सीट से मौजूदा विधायक हैं, वे इस बार यहां से अपनी पत्नी को चुनाव लड़वाना चाहते हैं, उन्होंने पार्टी शीर्ष को अभी से ताकीद कर दिया है कि चूंकि उन्हें घूम-घूम कर पूरे बिहार में कांग्रेस के पक्ष में अलख जगाना है तो वे एक सीट से बंध कर नहीं रहना चाहते।
भाजपा व अकाली फिर से करीब आ रहे : लुधियाना उप चुनाव के हालिया नतीजों ने भाजपा और शिरोमणि अकाली दल को फिर से करीब आने का मौका दिया है। हालांकि अकाली दल काफी पहले से भाजपा के साथ दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाने में जुटा था। इसके बाद सुखबीर सिंह बादल ने अपने ’मैन फ्राइडे’ कहे जाने वाले मनजिंदर सिंह सिरसा के मार्फत फिर से भाजपा से पींगें बढ़ानी शुरू कर दी। सिरसा फिलवक्त दिल्ली सरकार में मंत्री हैं और 2021 में ये व्यक्तिगत कारणों का हवाला देते हुए शिरोमणि अकाली दल छोड़ भाजपा में शामिल हो गए थे। पिछले कुछ वर्षों में पंजाब में जिस तरह से छोटी-छोटी हार्डलाइनर पार्टियों का अभ्युदय हुआ है, इन पार्टियों ने अकाली दल की सियासी जमीन को और बंजर बनाने का काम किया है। सो, ऐसे में अकाली दल के सुखबीर सिंह बादल के लिए भाजपा एक बड़ी तारणाहार साबित हो सकती है। हालिया लुधियाना उप चुनाव में जहां आप के संजीव अरोड़ा 35179 वोट पाकर विजयी रहे, भाजपा यहां 20323 वोट पाने में कामयाब रही, वहीं शिरोमणि अकाली दल को 8203 वोट मिल गए तो कांग्रेस को 24542 मतों से ही संतोष करना पड़ा।
अब अकाली दल-भाजपा को मिला दें तो दोनों के संयुक्त वोट 28526 हो जाते हैं यानी राज्य की दूसरी सबसे ताकतवर पार्टी के तौर पर यह गठबंधन उभर सकता है, भाजपा यह जानती है, सुखबीर के लिए भाजपा को यह बताते रहना उनकी सियासी मजबूरी है। ...और अंत में : जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा से भाजपा के करीबी रिश्ते रहे हैं। सो, ’ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद भारत का पक्ष रखने के लिए सांसदों के जिन प्रतिनिधिमंडलों को अलग-अलग देशों में भेजा गया था उसमें से एक अहम दल की रहनुमाई इनको सौंपी गई थी। अभी पिछले दिनों केंद्र सरकार के न्याय मंत्रालय ने आनन-फानन में संजय झा की दोनों वकील बेटियों यानी अद्या झा व सत्या झा को केंद्र की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ने के लिए ग्रुप ’ए’ पैनल में शामिल कर लिया है। सनद रहे कि संजय झा की दोनों बेटियां दो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से एलएलएम की डिग्री लेकर भारत आई हैं। सत्या जहां स्टेन फोर्ड लॉ कॉलेज से पढ़कर आई हैं तो अद्या ने अपनी कानून की डिग्री हॉवर्ड लॉ स्कूल से हासिल की है। झा साहब के रसूख का जरा आप अंदाजा तो लगाइए कि केंद्र सरकार ने इनकी दोनों बेटियों को एक ही दिन में ग्रुप ’ए’ पैनल का काउंसिल बना दिया।
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