Gotmar Mela: जानलेवा बना MP का मेला, किसी का पैर टूटा किसी का कंधा,1000 घायल; 5 की हालत नाजुक
Gotmar Mela: मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के पांढुर्णा में शनिवार को परंपरागत गोटमार मेले का आयोजन हुआ। जाम नदी के किनारे आयोजित इस आयोजन में पांढुर्णा और सावरगांव के हजारों लोग एकत्र हुए और पारंपरिक रीति से एक-दूसरे पर पत्थर बरसाए। जी हां, एक दूसरे पर पत्थर मारना ही खेल है। सुबह शुरू हुआ यह आयोजन देर शाम तक चलता रहा, जिसमें करीब 1000 लोग घायल हो गए। कई लोगों के हाथ, पैर और कंधे टूट गए, वहीं दो गंभीर रूप से घायलों को नागपुर रेफर किया गया है। पांच लोगों की हालत नाजुक बताई गई है।
Gotmar Mela: प्रशासन की तैयारी और सुरक्षा उपाय
घटनास्थल पर कलेक्टर अजय देव शर्मा द्वारा धारा 144 लागू की गई थी, लेकिन इसका विशेष असर नजर नहीं आया। मेले के दौरान किसी भी आपात स्थिति से निपटने के लिए प्रशासन ने नदी किनारे 6 अस्थायी स्वास्थ्य केंद्र बनाए थे, जिनमें 58 डॉक्टर और 200 मेडिकल स्टाफ को तैनात किया गया था। सुरक्षा के मद्देनज़र 600 पुलिस जवानों को भी तैनात किया गया।

घायलों में पांढुर्णा के ज्योतिराम उईके का पैर टूट गया, जबकि निलेश जानराव का कंधा फ्रैक्चर हो गया। हर साल की तरह पत्थरबाजी सुबह 10 बजे शुरू होकर रात 7:30 बजे तक चलती रही।
MP Pandhurna Mela: गोटमार की परंपरा कैसे होती है
गोटमार मेले की शुरुआत जाम नदी में चंडी माता की पूजा से होती है। इसके बाद सावरगांव के लोग जंगल से पलाश का पेड़ काटकर लाते हैं और उसे नदी के बीच गाड़ते हैं। इस परंपरा को निभाने की जिम्मेदारी सावरगांव निवासी सुरेश कावले के परिवार की होती है, जो वर्षों से यह कार्य कर रहा है।
पेड़ (जिसे झंडा माना जाता है) को नदी में गाड़ने के बाद पांढुर्णा और सावरगांव के लोगों के बीच पत्थरबाजी होती है। सावरगांव के लोग पेड़ की रक्षा लड़की के प्रतीक रूप में करते हैं, जबकि पांढुर्णा के लोग उसे निकालने का प्रयास करते हैं। दोनों पक्षों के बीच जबर्दस्त पत्थरबाजी होती है। अंत में जब पांढुर्णा के लोग झंडे पर कब्जा कर लेते हैं, तब दोनों पक्ष मिलकर चंडी माता की पूजा करते हैं और मेला समाप्त होता है।
अब तक 13 मौतें, कई घायल
इस परंपरा की शुरुआत कब हुई, इसका कोई स्पष्ट रिकॉर्ड नहीं है, लेकिन सुरेश कावले का कहना है कि यह करीब 400 साल पुरानी है। 1955 में इस आयोजन के दौरान पहली मौत हुई थी। तब से लेकर 2023 तक कुल 13 लोगों की जान जा चुकी है। इनमें तीन लोग एक ही परिवार के थे। इसके अलावा कई लोग इस आयोजन में अपनी आंखें, हाथ या पैर भी गंवा चुके हैं। बावजूद इसके, यह परंपरा आज भी हर वर्ष निभाई जाती है। जिन परिवारों ने अपने परिजन इस आयोजन में खोए हैं, उनके लिए यह दिन शोक का होता है।
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