सरकारें आएंगी- सरकारें जाएंगी, मगर ये देश...
खून से रंगे हाथ, नोट-चोर, वोट चोर...। अब राहुल-खड़गे का नया नारा क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। लाल किला चौक का विस्फोट और उसकी पृष्ठभूमि की साजिशें स्पष्ट संकेत दे रही हैं कि आरोपों-प्रत्यारोपों के विषैले गुब्बारे हवा में छोड़ते रहे तो हमारे राष्ट्र पर मंडराता हुआ खतरा गंभीर रूप ले सकता है। दुश्मन घर में भी हैं, पड़ौस में भी।
दूर बैठे ‘शत्रु’ भी ऐसे ‘नापाक’ पड़ौसियों को हवा देने में लगे हैं। ऐसे माहौल में बार-बार अटल जी का वह ब्रह्म-वाक्य कानों में गूंजता है- ‘सरकारें आएंगी, जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी, मगर यह देश रहना चाहिए’ और उन्हीं की एक काव्य पंक्ति यह भी थी- ‘अगणित बलिदानों से अर्जित यह स्वतंत्रता/अश्रुस्वेद शोणित से संचित स्वतंत्रता/त्याग तेज तप बल से रक्षित यह स्वतंत्रता/इसे मिटाने की साजिश करने वालों से कह दो/चिंगारी का खेल बुरा होता है/औरों के घर में आग लगाने का जो सपना/वह अपने ही घर में सदा खारा होता है’
अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि ईडी, चुनाव आयोग, ईवीएम आदि के खिलाफ रोज-रोज नए-नए आरोप चस्पां करने वालों को वक्त की दीवार पर लिखी नई इबारत को भी पढ़ना होगा। राहुल-खड़गे, तेजस्वी और अब यूपी में एमवाई (मुस्लिम-यादव) फैक्टर की सीढ़ी पर चढ़ने वालों को यह भी समझना होगा कि लोकतंत्र की परिभाषा अब देश का सामान्य-जन स्वयं गढ़ता है। उस पर अब बेपैंदे के सोशल-मीडिया या कथित बिकाऊ मीडिया की किस्सागोई का भी कोई असर नहीं होता।
जिन चुनाव-सर्वेक्षणों ने इस चुनावी-सुनामी को बिल्कुल नहीं भांपा उन्हें भी समझना होगा कि अब आने वाले समय में टीआरपी या ब्रेकिंग न्यूज या ‘छपते-छपते’ के पुराने हथियार भोथरे हो चुके हैं। दोहरे मतदान के बाद भी कुछ सर्वेक्षण इसे कांटे की टककर बता रहे थे। प्रवक्ता लोगों के बहस-मुबाहसे अब शायद दर्शक देखना भी पसंद नहीं करेगा क्योंकि निरे सरदर्द वाली कवायदें आम आदमी को अब उबाऊ लगने लगी हैं। मीडिया व सर्वेक्षण-टीमों को भी अब आत्म-निरीक्षण कर लेना चाहिए। यह उनके व्यावसायिक तकाजों की भी जरूरत है। एक तथ्य यह भी उभरा है कि नेताओं की भाषा में सभ्य आचरण लौटना चाहिए। आम आदमी बेरंगे, जहरीले शब्दों की बारिशें भी पसंद नहीं करता। तात्कालिक आवश्यता यह है कि अब सभी दलों को पूरा ध्यान देश की भीतरी अराजकता व विस्फोटक स्थिति पर केंद्रित कर लेना चाहिए।
चुनाव आएंगे, जाएंगे मगर जब देश के भीतर ‘और भी गम हैं ज़माने में चुनावों के सिवा’ की जरूरत हो तो एक जनादेश यह भी उभरा है कि सभी को देश में आतंकी एवं भारत-विरोधी तत्वों के आमूलचूल सफाए का संकल्प लेना होगा। पूरा माहौल संदिग्धों के चेहरों पर केंद्रित होने लगा है। लाल किला चौक के विस्फोट के बाद अब श्रीनगर के विस्फोट की स्थिति की गंभीरता के बारे में आंखें खोलने वाले हैं। सबक ढेरों उभरे हैं, बिहार-चुनावों की आंधी में।
1. लालू यादव-तेजस्वी परिवार, ‘जंगल राज’ का पिछला दाग अभी तक नहीं धो पाया।
2. बार-बार जातिवाद का नारा भी अब जनमानस को उबाने लगा है।
3. जनता बदलाव चाहती है मगर भाषा के गिरते हुए स्वर में भी बदलाव चाहती है। हर घर में सरकारी नौकरी सरीखे बेतुके वादों की झड़ी में भी बदलाव चाहती है। मगर सामान्यजन इस बात पर भी हैरान है कि बड़े-बड़े चुनावी पंडित भी उसकी समझ पर भरोसा क्यों नहीं टिकाते। सामान्यजन को बेतुका शोर, बेतुके नारे, बेतुके पार्टी-प्रवक्ता, बेतुके राजनीतिक टिप्पणीकार, बेतुके पत्रकारों-एंकरों से भी राहत चाहिए। सबसे बड़ा संकट कांग्रेस के लिए है। उसके भविष्य पर अब गंभीर संदेह पैदा होने लगा है। लोग अब देश के इस दूसरे सबसे बड़े व सबसे पुराने दल पर भरोसा नहीं टिका पा रहे।
हिमाचल, कर्नाटक सरीखे प्रदेशों में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के लिए कोई आकर्षण नहीं बचा। वहां के क्षेत्रीय नेताओं का अपना आभामण्डल है जो इस पार्टी का नाम जीवित रखे हुए हैं। ऐसी स्थिति में कांग्रेस को अपने ढांचे में भी आमूलचूल बदलाव लाना होगा। अब चिदम्बरम, मणि शंकर अय्यर या शशि थरूर सरीखे बुद्धिजीवी भी हाशिए पर अपने-अपने घाव सहलाने में लग चुके हैं।
जाते-जाते...
98 वर्षीया कामिनी कौशल के निधन से भारतीय फिल्म जगत व सांस्कृतिक मंच के लिए भी एक शून्य पैदा हो गया है। अपने समय की इस महान कलाकार का मूल्यांकन फिलहाल सिर्फ श्रद्धापूर्ण जि़क्र
के साथ।