राज्यपाल बनाम न्यायपालिका
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला, राज्यपाल की भूमिका पर उठे सवाल…
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद तमिलनाडु सरकार ने पहली बार बिना राज्यपाल की मंजूरी के 10 कानूनों को अधिसूचित कर दिया। भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा दस विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजने को अवैध और गलत करार दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने विधेयकों को राष्ट्रपति की कार्रवाई का उल्लेख नेक नीयत नहीं के रूप में दिया। यह फैसला विधेयकों पर राज्यपालों के कार्रवाई करने के लिए निश्चित समय सीमा तय करता है और यह सुनिश्चित करता है कि राज्यपाल अब समीक्षा के बहाने कानून बनाने में बेमियादी देरी नहीं कर सकेंगे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एक संवैधानिक सिद्धांत की पुष्टि की है कि राजभवनों को पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ काम करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने सीधे तौर पर राष्ट्रपति को कोई समय-सीमा तय करने संबंधी निर्देश दिया है। राष्ट्रपति को निर्देश दिए जाने के मामले पर एक नई बहस छिड़ गई है कि क्या सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करके लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया है। केन्द्र सरकार इस मामले में पुनर्विचार याचिका दायर करने की तैयारी कर रही है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का प्रभाव काफी दूरगामी होगा।
राज्यपालों की भूमिका पर विवाद उठने का इतिहास बहुत पुराना है। राज्यों और राज्यपालों में नियुक्तियों, फैसलों, अधिकारों और शक्तियों को लेकर टकराव होते रहे हैं। आजादी के 77 वर्ष बाद भी राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठना दुर्भाग्यपूर्ण है। तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि, केरल के राज्यपाल रहे आरिफ मोहम्मद खान, महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी, पंजाब के पूर्व राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित की भूमिका पर शीर्ष अदालत पहले ही टिप्पणियां कर चुकी है। पश्चिम बंगाल में भी राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच टकराव चल रहा है। टकराव के चलते बहुत सी चीजें जटिल हो गई हैं। फैसला अपनी जगह है लेकिन मुख्य सवाल यह है कि संघीय मूल्य किसी भी कीमत पर प्रभावित नहीं होने चाहिए। राज्यपाल के रूप में हमारे पास ऐसी संस्था है जिससे उम्मीद की जाती है कि वे दलगत राजनीति से उठकर बिना किसी पक्षपात के काम करेंगे लेकिन अब देखा जा रहा है कि वे स्वयं उस पार्टी के पक्ष में काम करते नजर आते हैं जिस पार्टी ने उन्हें यह पद दिया है।
राज्यपाल की तरफ से मंत्रिपरिषद के मित्र, दार्शनिक और मार्ग दर्शक की भूमिका निभाने की सारी बातें इतिहास के कूढ़ेदान में बहुत पहले ही फेंक दी गई थी। राज्यपालों की नियुक्ति, खास तौर पर अब राज्यों में विपक्ष के नेतृत्व वाली सरकारों को गलत दिशा में ले जाने के स्पष्ट इरादे से की जाती है। तमिलिसाई सुंदरराजन का उदाहरण लें। सरकारिया आयोग ने सिफारिश की थी कि केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी के किसी राजनेता को आदर्श रूप से ऐसे राज्य का राज्यपाल नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए जहां विपक्षी पार्टी या अन्य पार्टियों का गठबंधन शासन करता हो लेकिन 2021 में भाजपा ने अपनी तमिलनाडु इकाई की प्रमुख सुरंदरराजन को तेलंगाना का राज्यपाल नियुक्त किया। उन्होंने अपना अधिकांश कार्यकाल बीआरएस सरकार के साथ टकराव में बिताया। फिर इस साल की शुरूआत में तुरंत इस्तीफा दे दिया और 2024 के लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए बीजेपी में वापस चली गईं।
राज्यपालों से उम्मीद की जाती है कि यह राज्य कैबिनेट के दार्शनिक, मार्ग दर्शक और मित्र के रूप में काम करेंगे न कि केन्द्र की कठपुतली के रूप में। नवम्बर 2023 में पंजाब सरकार और राज्यपाल के बीच हुई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल का संवैधानिक प्रमुख होने के नाते परम्पराओं की सुरक्षा राज्यपाल की ज्यादा जिम्मेदारी है। संविधान में केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है। राज्यपालों को इनका अनुपालन करना चाहिए। कोई समय था जब गैर राजनीतिक व्यक्तियों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों की नियुक्ति की जाती थी लेकिन बाद में राजनीतिक व्यक्तियों को राज्यपाल बनाकर सुशोभित किया जाने लगा। इस स्थिति के लिए किसी एक पार्टी को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। केन्द्र में सत्तारूढ़ सरकारों ने राज्यपालों का दुरुपयोग किया है। जहां तक सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति को दिशा-निर्देश देने का मामला है इस पर अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने इस पर सवाल उठाए हैं।
उन्होंने कहा कि इस मामले में राष्ट्रपति को सुने बिना फैसला लिया गया जो ठीक नहीं हैं। वेंकटरमणि ने तर्क दिया कि राष्ट्रपति इस मामले में पूरी तरह से बाहर थीं। उन्हें सुना जाना चाहिए था। उन्होंने यह भी संकेत दिया कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका लगाई जा सकती है। राष्ट्रपति को विधेयक प्राप्त होने के तीन महीने के भीतर निर्णय लेने के फैसले को अटॉर्नी जनरल ने संवैधानिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप माना। वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने हालांकि कोर्ट के फैसले का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल और राष्ट्रपति को एक ही स्तर पर रखना उचित है। इंदिरा गांधी के शासनकाल में राज्यपालों का पद ही खत्म करने को लेकर बहस छिड़ी थी लेकिन हमारा लोकतंत्र परम्पराओं से चल रहा है। अब समय आ गया है कि राज्यपालों की नियुक्तियों का कोई अलग ढंग तलाशा जाए ताकि टकराव कम से कम हो और संघीय व्यवस्था का महत्व बना रहे।