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पितामह : कौण दिलां दियां जाणे

आज पंजाब केसरी के संस्थापक और पूज्य पितामाह लाला जगत नारायण जी का बलिदान दिवस है। कैसे भूल जाऊ 9 सितम्बर 1981 की वह शाम?

04:47 AM Sep 09, 2019 IST | Ashwini Chopra

आज पंजाब केसरी के संस्थापक और पूज्य पितामाह लाला जगत नारायण जी का बलिदान दिवस है। कैसे भूल जाऊ 9 सितम्बर 1981 की वह शाम?

आज पंजाब केसरी के संस्थापक और पूज्य पितामाह लाला जगत नारायण जी का बलिदान दिवस है। कैसे भूल जाऊ 9 सितम्बर 1981 की वह शाम? लालाजी जालन्धर से 200 किलोमीटर दूर पटियाला में नेत्र चिकित्सा शिविर के समापन समारोह की अध्यक्षता करने गये थे। नियति मानो अपने क्रूर खेल की तैयारी कर चुकी थी। मेरे पितामह को वापसी पर जालन्धर-लुधियाना हाईवे पर एक राइस शैलर के निकट आतंकवादियों ने अपनी गोलियों का निशाना बना डाला। हमें फोन पर खबर मिली। पूज्य पिताजी रमेश चन्द्र को इतना भावुक और विह्ल मैंने कभी नहीं देखा था। मैं कदम-कदम पर उनके साथ था। पूज्य लालाजी के पार्थिव शरीर के शीष को मैं अपनी गोद में रखकर जालन्धर लाया था। 11 सितम्बर को शवयात्रा में जन सैलाब थामे नहीं थमता था। महाप्राण का महाप्रयाण हो चुका था। हर वर्ष आंखें नम होती हैं, हर वर्ष भावनाओं में बह जाता हूं। कभी-कभी तो लगता है कि लालाजी का जीवन तो बस कुछ ऐसा ही था।
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जिंदगी और मौत के फासले सब मिट गये थे। मौत से मिला के आंखें मैं जिंदगी को जी रहा था। लालाजी देश के लिये जिए, देश के लिये मर मिटे, पहले भारत माता की गुलामी की जंजीरें काटने के लिये अंग्रेजी हकूमत के जुल्म सहे, जेल काटी फिर देश की एकता और अखंडता की रक्षा करते हुये जीवन का बलिदान दे दिया। मैंने एक बार अपने पूज्य पिता शहीद श्री रमेश चन्द्र से बातों ही बातों में पूछा था- आदरणीय दादा जी के जीवन का सर्वाधिक चमकदार पहलू कौन सा रहा? पिता जी का जवाब था-पत्रकारिता।
मैं भी जालंधर में अपने पैतृक घर में रोजाना देखता था कि लाला जी हर रोज बिना नागा सम्पादकीय तो लिखते ही थे, दिन भर वह चाहे कहीं कितने भी व्यस्त रहें, शाम को कार्यालय पहुंच कर हमारी तीनों अखबारों पंजाब केसरी (हिन्दी),जगबाणी (पंजाबी) और हिन्द समाचार (उर्दू) के हर पन्ने और हर कालम को बड़ी सूक्ष्मता से पढ़ते थे। जहां कहीं कोई गलती नजर आती थी उसे सुधारते थे। यह क्रम शाम आठ बजे शुरू होता था और साढ़े दस बजे तक चलता था। 
मैंने घर में हर दूसरे-तीसरे रोज शाम की चाय पर लाला जी को जालंधर के प्रमुख पत्रकारों के साथ राष्ट्रीय, प्रांतीय तथा विदेशी मामलों पर चर्चा करते देखा। ऐसी बैठकों में वह अपनी बात तो कहते ही, साथी पत्रकारों की बातों को भी वजन देते थे। घर में होने वाली चर्चाओं से मुझे पता चला कि जब मेरे पिता जी की शादी हुई तो लाला जी पंजाब के शिक्षा मंत्री थे। वह मंत्री होते हुए भी जालंधर के सभी हिन्दी, उर्दू और पंजाबी समाचारपत्रों  के कार्यालयों में गए और छोटे-बड़े सभी पत्रकारों को नवविवाहित जोड़े के स्वागत समारोह में पधारने का न्यौता दिया। लाला जी कहा करते थे कि मेरा परिवार पत्रकार हैं, मेरी बिरादरी भी पत्रकार हैं और अपने इस कथन को उन्होंने जीवन की अंतिम सांस तक निभाया। अखबारी दुनिया के सभी लोग उन्हें पत्रकार जगत का पितामह मानते थे।
लाला जी ने मुझे अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया, जीना सिखाया। वह मेरे पितामह होने के साथ-साथ मेरे मार्गदर्शक भी थे। मैंने पत्रकार के रूप में उन्हें धुन का पक्का पाया। वह पत्रकार की व्याख्या कवि की इन पंक्तियों में किया करते थेः
अपनी ही आवाज को बेशक कान में रखना,
लेकिन शहर की खामोशी भी ध्यान में रखना,
कल तारीख यकीनन खुद को दोहराएगी,
आज के इक-इक मंजर को पहचान के रखना।
स्वयं अपने पूर्वजों के बारे में लिखना जरा मुश्किल होता है परन्तु मेरे पितामह उस इतिहास का हिस्सा थे जो इतिहास कभी हमें पढ़ाया ही नहीं गया और उन षड्यन्त्रों का शिकार हो गये जो हर उस संत पुरुष की नियति है जो राजनीति में आये थे जबकि पंजाब की पूरी राजनीति भारत की स्वाधीनता से 30 वर्ष पहले अगर लालाजी की शहादत तक उन्हीं के इर्द-गिर्द घुमती थी।
पूज्य लालाजी की प्रेरणा से जब मैंने पहली बार कुछ पंक्तियां लिखी तो मुझे याद है पितामह ने मुझे सीख दी कि यह कलम एक तलवार की तरह है। जैसे कोई बहादुर सैनिक किसी निहत्थे निरीह, निर्दोष के खिलाफ अपने हथियार का इस्तेमाल नहीं करता, उसी तरह यह कलम भी सिर्फ जुल्म और अन्याय के खिलाफ तथा देशहित में उठनी चाहिये। यह कलम किसी की दोस्त है न दुश्मन। यह अन्याय के खिलाफ जंग में एक तेज ​हथियार है जो कभी कुंद नहीं होनी चाहिये। उन्होंने मुझे यह बात भी जिंदगी भर पल्ले बांधने को कहा कि हमेशा सच्चाई का साथ दो और सच चाहे कितना ही कड़वा क्यों न हो, उसे कहने की हिम्मत कभी ना छोड़ों।
पूज्य पिता श्री रमेश चन्द्र जी की शहादत के बाद मैंने जब उनकी कलम को थामा तो पितामह की शिक्षाओं का हमेशा पालन करने की कोशिश की। आज के दिन मैं स्वयं को एक बार फिर पितामह की अंगुली पकड़ घर के आंगन में गिरता- उठता महसूस कर रहा हूं किंतु वास्तविकता की आंखें खुलते ही सोचता हूं कैसे लौट के आयेंगे वे दिन? आज जब मैं परिवार की ओर नजर दौड़ाता हूं तो महसूस करता हूं कि रिश्तों की मर्यादायें, संवेदनायें सब खत्म हो चुकी हैं-कौण दिलां दियां जाने! नम आंखों से मैं पितामह एक संत पुरुष के चरणों में नमन करता हूं और संकल्प दोहराता हूं कि-अन्याय के खिलाफ कभी समझौता नहीं करूंगा। अंतिम सांस तक जी-जान से लाड़ूंगा।
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