देश में बढ़ते करोड़पति...
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पिछले 4 वर्ष में देश में करोड़पतियों की संख्या में 60 फीसदी वृद्धि हुई है। केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के मुताबिक ऐसे एकल करदाताओं की संख्या अब 1.40 लाख हो गई है जिन्होंने अपनी घोषित सालाना आमदनी एक करोड़ रुपए या ज्यादा बताई है। वर्ष 2014-15 में ऐसे कुल करदाता जहां 88649 थे वहीं 2017-18 में बढ़कर 1,40,139 हो गए हैं। वहीं एक करोड़ रुपए से ज्यादा सालाना आमदनी बताने वाले व्यक्तिगत करदाता 68 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहे हैं। कर संग्रह से जुड़ी संस्थाओं ने पिछले चार वर्षों में जो कानूनी, सूचनात्मक और दबावकारी कदम उठाए हैं, उनके नतीजे में यह बढ़त दर्ज हो रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी सरकार ने कालाधन बाहर निकालने के लिए ठोस कदम उठाए हैं। छोटे से छोटे और बड़े लेनदेन में पारदर्शिता आई है। अब कर चोरों को अन्य सुराख ढूंढने होंगे अन्यथा वह बच नहीं पाएंगे।
देश में करोड़पतियो और करदाताओं में संख्या में बढ़ौतरी एक अच्छा संकेत माना जा सकता है। प्रत्यक्ष करदाताओं की संख्या भी दोगुनी होकर 7.6 करोड़ तक पहुंचने की उम्मीद है। यदि हम प्रत्यक्ष कर विभाग के कामकाज को देखें तो कई कारकों मसलन कड़े अनुपालन, कर ढांचे को तर्कसंगत बनाने, सबसे निचले स्लैब को कम करना आदि उपायों से हर साल का कर संग्रहण 15 से 20 फीसदी बढ़ रहा है। भारत में आयकर रिटर्न दाखिल करने वालों की संख्या 2014 में 3.80 करोड़ थी, अब यह दोगुनी हो गई है। जैसे-जैसे वैश्विक अर्थव्यवस्था का स्वरूप बदल रहा है त्यों-त्यों भारत की अर्थव्यवस्था की विभिन्न गतिविधियों को संगठित रूप दिया गया। प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल आैर लेन-देन को पकड़ने की क्षमता की वजह से भी करदाता बढ़े हैं।
भारत में 1980 तक जीएनपी की विकास दर कम थी, लेिकन 1981 में आर्थिक सुधारों के शुरू होने के साथ ही इसने गति पकड़ ली थी। 1991 में सुधार पूरी तरह से लागू होने के बाद तो यह मजबूत हो गई थी। 1950 से 1980 के तीन दशकों में जीएनपी की विकास दर केवल 1.49 फीसदी थी। इस कालखंड में सरकारी नीतियों का आधार समाजवाद था। आयकर की दर में 97.75 प्रतिशत तक की वृद्धि देखी गई। कई उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। सरकार ने अर्थव्यवस्था पर पूरी तरह से नियंत्रण के प्रयास और अधिक तेज कर दिए थे। 1980 के दशक में हल्के से आर्थिक उदारवाद ने प्रति व्यक्ति जीएनपी की विकास दर को बढ़ाकर प्रतिवर्ष 2.89 कर दिया। 1990 के दशक में अच्छे-खासे आर्थिक उदारवाद के बाद तो प्रति व्यक्ति जीएनपी बढ़कर 4.19 फीसदी तक पहुंच गई। 2001 में यह 6.78 फीसदी तक पहुंच गई।
1991 में भारत सरकार ने महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार प्रस्तुत किए जो इस दृष्टि से वृहद प्रयास थे कि इनमें विदेश व्यापार उदारीकरण, वित्तीय उदारीकरण, कर सुधार और विदेशी निवेश के प्रति आग्रह शामिल था। इन उपायों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को गित देने में मदद की। तब से भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत आगे निकल आई है। सकल स्वदेशी उत्पाद की औसत वृद्धि दर (फैक्टर लागत पर) जो 1951-91 के दौरान 4.34 प्रतिशत थी, 1991-2011 के दौरान 6.24 प्रतिशत के रूप में बढ़ गई। 2015 में भारतीय अर्थव्यवस्था 2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से आगे निकल गई।
अक्सर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि उदारवादी आर्थिक नीतियों का लाभ अमीरों और कार्पोरेट सैक्टर ने उठाया। अमीर और अमीर होते गए और गरीबों काे इसका लाभ नहीं मिला। 125 करोड़ की आबादी वाले देश में 1.40 लाख करोड़पति होना साधारण सी बात लगती है। आज के दौर में करोड़पति होना या एक करोड़ से अधिक की सम्पत्ति होना कोई बड़ी बात नहीं। वह भी दौर था जब एक हजार रुपए वाले को धनी माना जाता था, फिर धनी होने की सीमा एक लाख तक जा पहुंची। अब एक करोड़ की कीमत क्या है, हमें इसका आकलन करना होगा। अब महानगरों और बड़े शहरों में एक-एक फ्लैट की कीमत एक करोड़ से ऊपर पहुंच चुकी है तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि दिल्ली में एक एमआईजी फ्लैट वाला भी करोड़पति है।
वेतनभोगियों के लिए आयकर की छूट सीमा ढाई लाख तक है। आज के दौर में कोई दो लाख में वर्षभर परिवार को चला सकता है? इस छूट का कोई औचित्य और अर्थ ही नहीं रह गया है। हमें यह भी देखना होगा कि करोड़पतियों की संख्या में वृद्धि से देश में असमानता की खाई तो नहीं बढ़ रही। भारत के सामने विकट समस्या है। विकास की प्रक्रिया में असमानता में वृद्धि का खतरा बढ़ जाता है। हमें यह देखना होगा कि देश के हर क्षेत्र का सर्वांगीण विकास हो। आजादी के 70 वर्षों बाद भी हम किसानों के लिए कृिष को लाभकारी नहीं बना पाए। हमें हर बार नए उपाय करने पड़ते हैं। देश में आज भी लोग भूखे पेट सोते हैं। हम गरीबी उन्मूलन के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाए। मोदी सरकार ने उज्ज्वला, मुद्रा आैर आयुष्मान भारत के अंतर्गत असमानता वृद्धि के साथ गरीबी उन्मूलन नीतियों को अपनाया है। गरीबी दूर होने से ही आम आदमी को राहत मिलेगी तो वह बढ़ती असमानता से उद्वेलित नहीं होगा। गरीबी दूर करने के लिए लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देना बहुत जरूरी है जिससे जमीनी स्तर पर अर्थव्यवस्था काेे विकास हो।