कश्मीर में आधे-अधूरे चुनाव
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स्थानीय निकाय व पंचायत चुनावों के मुद्दे पर जम्मू-कश्मीर राज्य जिस प्रकार मतदान में भाग लेने के नाम पर दो हिस्सों में बंटता नजर आया है वह निश्चित रूप से चिन्ता का विषय है क्योंकि इससे पूरे सूबे के साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित होने का गंभीर खतरा खड़ा हो सकता है जिसे किसी भी सूरत में इस राज्य की अद्भुत कश्मीरी संस्कृति के दायरे में स्वीकार नहीं किया जा सकता परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि कश्मीर घाटी में उन अलगाववादी शक्तियों को यहां की जनता ने अपना परोक्ष समर्थन दिया है जिन्होंने चुनावों के बहिष्कार का आह्वान किया था। अभी तक के कुल तीन चरणों के चुनावों में जहां जम्मू क्षेत्र में 80 प्रतिशत से ऊपर मतदान हुआ है वहीं कश्मीर घाटी में मतदान क्रमशः 8.2 प्रतिशत, 3.3 प्रतिशत व 3.49 प्रतिशत रहा है। मतदान के इस प्रतिशत को किसी भी रूप में चुनावों की प्रक्रिया की सहजता के आइने में रखकर नहीं देखा जा सकता है। इन चुनावों के जो नतीजे निकलेंगे उनसे राज्य की राजनैतिक स्थिति और ज्यादा उलझ सकती है क्योंकि राज्य के एक भाग के लोगों की इनमें हिस्सेदारी नगण्य समझी जायेगी जबकि दूसरे की भरपूर।
हालांकि राज्य के दो प्रमुख क्षेत्रीय दलों नेशनल कान्फ्रेंस (फारूक अब्दुल्ला) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (महबूबा मुफ्ती) ने इन चुनावों का बहिष्कार किया था और चुनावों के समय को अनुकूल नहीं कहा था किन्तु राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस व भाजपा ने इनमें भाग लेने का फैसला किया था परन्तु इन दोनों पार्टियों की चुनावी हिस्सेदारी के बावजूद कश्मीर घाटी में लोगों के चुनाव में हिस्सा न लेने से साफ हो गया कि इस क्षेत्र में राजनैतिक परिस्थितियां क्षेत्रीय ताकतों के रुख पर ही निर्भर करती हैं और इन क्षेत्रीय पार्टियों का तालमेल वैचारिक स्तर पर उन अलगाववादी ताकतों जैसे हुर्रियत कान्फ्रेस आदि के साथ बैठता है जिन्होंने खुले तौर पर मतदान का बहिष्कार करके राज्य के नये राज्यपाल श्री सत्यपाल मलिक के चुनाव कराने के फैसले को चुनौती दी थी। बेशक श्री मलिक मूल रूप से समाजवादी विचारधारा के हैं परन्तु आम जनता की सक्रिय भागीदारी के बिना कोई भी समाजवादी विचार कार्यरूप में पूरा नहीं उतर सकता, जबकि श्री मलिक को उम्मीद थी कि उनके चुनाव कराने के फैसले का कश्मीरी अवाम स्वागत करेगी और इनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेकर स्थानीय स्तर पर अपने प्रतिनििध चुनेगी परन्तु उनका गणित उल्टा बैठ गया। इस विभाजन का सबसे गंभीर सन्देश यह है कि पूरे राज्य की एकता बनाये रखने के लिए इस खूबसूरत प्रदेश की समस्या का समग्रता से हल ढूंढा जाये और इसकी सांस्कृतिक छटा को बेदाग रखा जाये।
क्यों घाटी में शुरू से ही मजहब के नाम पर तास्सुब फैलाने वाली ताकतें इस प्रकार सक्रिय रही हैं कि उन्होंने इस राज्य की समस्या को धार्मिक चश्मे से देखने के पाकिस्तानी रुख का समर्थन किया है। मजहब को बीच में लाते ही जम्मू-कश्मीर राज्य के भारतीय संघ में विलय के उस पवित्र प्रपत्र को पाकिस्तान कागज का टुकड़ा साबित करने में लग जायेगा जिस पर 26 अक्तूबर 1947 को इस रियासत के महाराजा हरिसिंह ने दस्तखत करके इसे भारतीय संघ का हिस्सा बनाया था। याद रखना चाहिए कि महाराजा हरिसिंह की रियासत का हिस्सा समूचा जम्मू-कश्मीर राज्य था जिसमें पाक अधिकृत कश्मीर भी शामिल था। इस संवैधानिक दस्तावेज से दुनिया की कोई भी अदालत छेड़छाड़ नहीं कर सकती है क्योंकि यह स्वतन्त्र देश भारत और स्वतन्त्र रियासत जम्मू-कश्मीर के बीच था। अतः इस राज्य की एकता भारत के उस दावे के लिए बहुत जरूरी है जो यह कहती है कि ‘पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न और अटूट अंग है।’ साम्प्रदायिक आधार पर इसकी राजनीति का विभाजन इस्लामी मजहबी ताकतों की मदद ही करेगा और ये ताकतें कश्मीर में रहने वाले बहुसंख्यक मुस्लिम नागरिकों को इस तरह पेश करने में लगी हुई हैं जिससे उनकी निष्ठा को सन्देहास्पद बनाया जा सके जबकि हकीकत इसके ठीक उलट है।
कश्मीरियों और नाजायज मुल्क पाकिस्तान की संस्कृति में वह मूलभूत अन्तर है जिसे मजहब के नाम पर एक समान किसी भी रूप में नहीं दिखाया जा सकता। यहां के लोग पाकिस्तान के निर्माण के खिलाफ थे और मजहब के नाम पर भारत को बांटे जाने को पूरी तरह गलत मानते थे। यही वजह है कि पाकिस्तान के शासकों ने अपने कब्जे वाले कश्मीर के हिस्से में इसका जातीय स्वरूप बदल दिया है और मूल कश्मीरियों के स्थान पर अन्य लोगों को बसा दिया है। यहां के कश्मीरी लोगों पर बर्बर तरीके इस्तेमाल करके पाकिस्तान की सरकार उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों को समाप्त कर रही है जबकि भारत के कश्मीर में समस्या का दूसरा स्वरूप है, यहां की सरकार लोगों को लोकतान्त्रिक अधिकार देकर उन्हें शक्ति सम्पन्न बनाना चाहती है। इसके बावजूद इसका विरोध होता है तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि गड़बड़ कहां है? राज्य में विगत 18 जून तक महबूबा मुफ्ती की पीडीपी और भाजपा की सरकार काबिज थी। यह एक एेसा प्रयोग था जिसमें राज्य के लोगों की क्षेत्रीय अपेक्षाओं का समागम राष्ट्रीय धारा में समाहित होने की प्रबल संभावनाएं थीं परन्तु इसे स्वयं सत्तारूढ़ दल के ही कुछ तत्वों ने मिट्टी में मिला दिया किन्तु इतना जरूर कर लिया गया कि राजनीति में सक्रिय लोगों ने अपनी बड़ी-बड़ी सम्पत्तियां एेसे स्थानों पर बना लीं जो सुरक्षा की दृष्टि से संजीदा माने जाते हैं। राष्ट्रहित में हमें एेसे तत्वों से सावधान रहना होगा जो हर परिस्थिति में आर्थिक लाभ उठाने की जुगाड़ में लगे रहते हैं।