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हरियाणा : चुनाव प्रचार का रूप

04:01 AM Oct 04, 2024 IST | Aditya Chopra
हरियाणा   चुनाव प्रचार का रूप

यह दीवार पर लिखी इबारत की तरह अब स्पष्ट है कि हरियाणा विधानसभा की 90 सीटों के लिए सीधा मुकाबला कांग्रेस व भाजपा के बीच होने जा रहा है। राज्य में जितने भी अन्य क्षेत्रीय दल या पार्टियां हैं सभी के उम्मीदवारों की हैसियत ‘वोट कटवा’ की तरह की हो गई है। इसकी खास वजह यह है कि राज्य में पिछले दस साल से भाजपा का शासन है और इन दस सालों के बीच हरियाणा की मुख्य नदी ‘यमुना’ से बहुत जल बह चुका है। भाजपा के शासन के दस साल के शासन के दौरान प्रदेश की बागडोर कमोबेश श्री मनोहर लाल खट्टर के हाथ में रही जिन्हें 2014 के चुनावों से पहले हरियाणावासी पहचानते तक नहीं थे। भाजपा ने हरियाणा में श्री खट्टर को मुख्यमन्त्री बनाकर एक प्रयोग किया था। पूरी तरह साफ-सुथरी छवि के खट्टर को भाजपा राजनैतिक नैपथ्य से निकाल कर लाई थी और देखना चाहती थी कि जो हरियाणा विभिन्न प्रकार के राजनैतिक वाद-विवादों व घपलों में घिरा रहता है उसमें एक कथित गैर राजनैतिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति का क्या जलवा रहता है।
भाजपा का यह प्रयोग सफल नहीं रहा क्योंकि उसने विधानसभा चुनावों से चन्द महीने पहले ही नेतृत्व परिवर्तन कर दिया और श्री खट्टर के स्थान पर नायब सिंह सैनी को मुख्यमन्त्री बना दिया। इसके पीछे लोगों में सत्ता विरोधी भावनाओं को हल्का करने का प्रयास था। मगर लोकतन्त्र में अन्ततः वही होता है जो आम जनता चाहती है। अतः भाजपा ने श्री नायब सिंह सैनी पर दांव लगाकर पुनः जनता के बीच जाने का फैसला किया और श्री खट्टर को केन्द्र की सरकार में महत्वपूर्ण बिजली व शहरी विकास मन्त्रालय से नवाजा। मगर दूसरी तरफ यह भी हकीकत है कि हरियाणा राज्य अपने गठन के बाद से ही कांग्रेस पार्टी का गढ़ रहा है। यहां के लोगों के सामने कांग्रेस पार्टी एेसी पंचमेल पार्टी रही है जिसमें सभी 36 बिरादरियों को समाहित करने का प्रयास शुरू से ही किया गया है। वर्तमान चुनावों में कांग्रेस की यही सबसे बड़ी ताकत है। मगर जो लोग हरियाणा की राजनीति को जातिवादी चश्मे से देखने की गलती करते हैं उन्हें मालूम होना चाहिए कि 1966 में हरियाणा बनने के बाद इस राज्य के पहले मुख्यमन्त्री पं. भगवत दयाल शर्मा थे। बेशक यह राज्य जाट बहुल माना जाता है परन्तु इसमें दलित जाति के लोगों की संख्या भी कम नहीं है। इस राज्य के बड़े नेताओं में स्व. चौधरी देवीलाल का नाम लिया जाता है। वह वास्तव में राष्ट्रीय स्तर के नेता थे। मगर देवीलाल की एक खूबी थी कि वह हरियाणा की राजनीति को राष्ट्रीय फलक में देखते थे।
वास्तविकता भी यही है कि हरियाणा शुरू से ही अपनी राजनीति के माध्यम से राष्ट्रीय राजनीति की चाल दिखाता रहा है। इस राज्य में जिस पार्टी का विमर्श कामयाब हो जाता है, वही विमर्श राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव डालने लगता है। 1967 में इस राज्य के पहले चुनाव से लेकर अभी तक हुए चुनावों में यही परम्परा रही है। यहां के मतदाता बेशक खड़ी बोली में अक्खड़पन के प्रतीक माने जाते हों मगर राजनीतिक सूझबूझ में बिहार के मतदाताओं से कम नहीं आंके जाते। 2014 के चुनावों में हरियाणावासियों ने भाजपा को 47 सीटें देकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनवाई। मगर 2019 में भाजपा को केवल 40 सीटें ही दीं। इसका सीधा मतलब ​निकलता है कि पांच साल के किसी भी दल के शासन की यहां के मतदाता पूरी जांच करते हैं और उसके बाद अपना निर्णय सुनाते हैं। यह बिना किसी शक के कहा जा सकता है कि 1966 में पंजाब का बंटवारा होने के बाद जब इसमें से हरियाणा व हिमाचल राज्य पृथक पूर्ण व अर्ध राज्य बने तो इस पूरे इलाके की राजनीति पर क्षेत्रवाद प्रभावी था। इसके बावजूद 1967 के चुनावों में पंजाब में अकाली दल की सरकार तभी बन पाई जब जनसंघ (भाजपा) ने उसे समर्थन दिया क्योंकि कांग्रेस पूर्ण बहुमत से पीछे रह गई थी।
हरियाणा में कांग्रेस पार्टी बहुत किनारे पर ही बहुमत से दूर रही थी मगर इस पार्टी के राव वीरेन्द्र सिंह ने कांग्रेस से विद्रोह कर दिया और कुछ विधायकों को लेकर वह अलग हो गये और विपक्षी दलों के विधायकों के साथ मिलकर उन्होंने संयुक्त विधायक दल की सरकार बनाई। यह प्रयोग असफल रहा और 1968 में पुनः कांग्रेस का बहुमत हो गया। पं. भगवत दयाल शर्मा ने अपने शिष्य स्व. बंसीलाल के सिर पर ताज रख दिया। अतः हरियाणा में जातिवाद एक नया राजनैतिक शगूफा कहा जायेगा। मगर भाजपा के साथ दिक्कत यह है कि स्व. डाॅ. मंगलसेन के बाद इसे अभी तक कोई एेसा नेता नहीं मिल पाया है जिसकी पकड़ सभी 36 बिरादरियों में हो। डाॅ. मंगलसेन की खूबी यह थी कि वह अपनी पार्टी जनसंघ (भाजपा) के हिन्दुत्ववादी विमर्श को हरियाणवी संस्कृति में भिगो कर लोगों के सामने प्रस्तुत करते थे। कांग्रेस में यह गुण पूर्व मुख्यमन्त्री श्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के पास है। इसी वजह से वह शहरों से लेकर ग्रामीणों तक में लोकप्रिय माने जाते हैं। परन्तु हरियाणा की राजनीति ग्रामीण मूलक ही रही है और इस राज्य के महान नेता स्व. छोटूराम पूरे भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता के वाहक माने जाते हैं। वर्तमान चुनावों के लिए प्रचार अब बन्द हो चुका है मगर राज्य में जिस तरह से श्री राहुल गांधी व श्रीमती प्रियंका गांधी ने प्रचार की धारा को मोड़ा है उससे राज्य की राजनीति में अजीब सी कशिश पैदा हुई है।
देखना यह होगा कि इसका परिणाम क्या होगा। जहां तक भाजपा का सवाल है तो इसके पास समर्पित कार्यकर्ताओं का बहुत बड़ा दल शुरू से ही रहा है, जिन्होंने राज्य में भाजपा के विमर्श को जन-जन तक पहुंचाने में शुरू से ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन राहुल गांधी ने हरियाणा की लड़ाई को राजनैतिक विमर्शों की लड़ाई बनाकर बहुत रोचकता पैदा कर दी है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा ये चुनाव भी प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के भरोसे ही लड़ रही है क्योंकि पिछले 2014 व 2019 के चुनावों में उसे जो भी सफलता मिली थी वह श्री मोदी के कारण ही मिली थी।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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