हिन्दू, हिन्दुस्तान और तीर्थयात्री कांवड़िये
भारत मूल रूप से तीर्थ यात्राओं का एेसा देश रहा है जिनसे इसकी भौगोलिक सीमाओं तक का निर्माण हुआ है। पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक की इसकी सीमाएं इसी आधार पर निर्मित होती रही हैं। अतः तीर्थयात्रा करना भारतवासियों के खून में शामिल कहा जा सकता है। यह भी सच्चा इतिहास है कि सावन का महीना भारतवासियों के लिए आदिकाल से ही पवित्र माना जाता रहा है क्योंकि पौराणिक गाथाओं के अनुसार लंकापति रावण भी इसी महीने में गोमुख से जल कलश भर कर अपने राज्य श्रीलंका पहुंचा था। रावण पौलत्स्य ऋषि के वंश का था और भगवान शंकर का परम भक्त था। शंकर भक्ति में विलीन रावण की कहानियों और कृत्यों से केवल रामायण ही नहीं बल्कि अन्य पौराणिक ग्रन्थ भी भरे पड़े हैं।
वर्तमान में आजकल कांवड़ियों को लेकर जो बहस और विवाद छिड़ा हुआ है वह न्यायोचित इसलिए नहीं है क्योंकि हिन्दू संस्कृति का मूल मन्त्र सहिष्णुता है। इसी वजह से भारत में बाहर से जितनी भी संस्कृतियों को मानने वाले लोग आये उनका भारत की हिन्दू संस्कृति में ही विलय हो गया। परन्तु मुस्लिम संस्कृति के बारे में कुछ इतिहासकारों का यह मत है कि इस संस्कृति की कट्टरता के कारण इसका परिमार्जन भारत की परिस्थितियों के अनुरूप आंशिक रूप से ही हो सका इसके बावजूद देश के मुसलमानों ने भारतीय संस्कृति के प्रभाव में अपने रीति-रिवाजों को भारतमूलक बनाने की कोशिश की। 1947 के बंटवारे से पहले संयुक्त पंजाब में रहने वाले हर हिन्दू-मुसलमान की पंजाबी संस्कृति थी। परन्तु पाकिस्तान बनाने वाले मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग ने इस बुनावट को तोड़ डाला और पाकिस्तान की मांग के समर्थन में जो नारे लगाये वे पूरी तरह धार्मिक उन्माद से भरे थे। तब पाकिस्तान के समर्थन में यह नारा दिया गया कि ‘पाकिस्तान का मतलब क्या –ला इलाही-इल-लिल्लाह’।
मुस्लिम लीग के इस नारे को पंजाब में बुलन्द करने के लिए उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से भी छात्र व अध्यापक तक पंजाब गये। परन्तु 90 के दशक में भारत में हुए हिन्दू पुनर्जागरण के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में हिन्दू संस्कृति का ‘हिन्दू जन-विमर्श’ उठा। दरअसल हिन्दू विमर्श जागरण भारत की हिन्दू संस्कृति का वह दौर कहा जा सकता है जिसमें मूल भारतीयता की छाप समाहित है। भारत में पैदा होने वाले जितने भी धर्म जैसे सिख, बौद्ध व जैन हैं, उन सभी में भारत की धरती के प्रति समर्पण का अन्तर्निहित भाव है। परन्तु कुछ लोग इसे साम्प्रदायिक नजरिया बताते हैं। यह नजरिया इसलिए बेमानी है क्योंकि भारत कोई किसी विशेष धर्म दर्शन के अनुसार चलने वाला देश नहीं बल्कि संविधान के अनुसार चलने वाला भौगोलिक सीमाबद्ध देश (टेरीटोरियल कंट्री) है। इसमें रहने वाले हर धर्म के मानने वाले नागरिक के एक समान अधिकार हैं। यह अधिकार संविधान देता है। इसका मतलब सीधा-सादा है कि भारत के जिस इलाके में भी जिस किसी धर्म को मानने वाला व्यक्ति बसता है वह भारतवासी है और उसके एक समान अधिकार हैं।
5 अगस्त 2019 से पहले जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के अधिकार इस राज्य के संविधान से बंधे हुए थे परन्तु इस तारीख के बाद भारतीय संविधान के सभी कायदे-कानून कश्मीरियों पर भी लागू होने लगे और दोहरापन समाप्त हुआ। इस प्रकार भारत के प्रत्येक राज्य के लोग केवल राष्ट्र के संविधान से ही चलेंगे। यह संविधान ही है जो लोगों को राष्ट्रीय स्तर पर एक सूत्र में बांधता है और इसकी विविधता को संरक्षित रखता है। अतः आजकल हिन्दू कांवड़ियों के बारे में जिस प्रकार का अनर्गल प्रचार किया जा रहा है उससे कहीं न कहीं हिन्दू संस्कृति की मूल भावना पर चोट पहुंचती है। दूसरी तरफ कांवड़ियों का भी यह दायित्व बनता है कि वे धार्मिक शालीनता बनाये रखें और भारी शोर-शराबे वाले डीजे का प्रयोग न करें क्योंकि सावन मेें आने वाली महाशिवरात्रि भारत में एक भक्ति पर्व के रूप में मनाई जाती है।
वैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फरवरी महीने में पड़ने वाली महाशिव रात्रि पर ही हरिद्वार से कांवड़ भर कर जल लाने की परंपरा है परन्तु सावन की महाशिव रात्रि का पर्व हिन्दू शास्त्रों में बहुत ऊंचे पायदान पर रख कर देखा जाता है क्योंकि इस दिन देश के अन्य भागों से भी कांवड़िये आते हैं सभी प्रमुख शंकर स्थानों तक गंगाजल ले जाते हैं। किन्तु भारत में किसी भी पर्व के मनाने वालों का राजनीतिकरण न हो यह असंभव है।
राज्य की क्षेत्रीय पार्टी समाजवादी पार्टी के कई नेताओं ने कांवड़ियों की तुलना आतंकवादियों से करने में भी गुरेज नहीं किया। यह नजरिया हिन्दू विरोधी ही नहीं जनविरोधी भी है क्योंकि कांवड़ लाने वाले श्रद्धालुओं में नब्बे प्रतिशत लोग पिछड़े हिन्दू समुदाय से ही आते हैं। हकीकत यह है कि पिछड़े वर्ग के लोग धार्मिक मान्यताओं का दिल से पालन करते हैं और किसी प्रकार का दिखावा भी नहीं करते हैं। पश्चिम उत्तर प्रदेश में तो यहां तक परंपरा है कि धार्मिक अवसरों पर होने वाले कीर्तनों में उनकी मंडलियों के मुखिया प्रायः इसी वर्ग के लोग होते हैं। इस वर्ग के लोग शारीरिक बनावट में भी मजबूत होते हैं अतः वे शिवरात्रि पर लम्बी से लम्बी यात्रा पैदल तय करने में सबसे आगे होते हैं। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि हिन्दुओं के अन्य वर्गों के लोग सावन में कांवड़ भर कर नहीं लाते। वे भी जाते हैं मगर उनकी संख्या कम होती है। कांवड़ियों को लेकर अब यह विवाद हो रहा कि हरिद्वार से आगे के यात्रा मार्ग पर बहुत से खाने-पीने के ढाबों को मुस्लिम नागरिक चलाते हैं। कुछ पर नाम बदल कर दुकानें चलाने का आरोप है। कांवड़ियों से जुड़े कुछ संगठन एेसे ढाबों के असली मालिकों के नाम का खुलासा करने का अभियान चला रहे हैं और हिन्दू प्रतीक चिन्हों का वितरण सभी ढाबों में कर रहे हैं।
समाजवादी पार्टी के कई नेता कह रहे हैं कि ढाबों पर काम करने वाले लोगों की पेंट उतरवा कर उनके धर्म का पता लगाया जा रहा है। भारत में एेसा करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती। समाजवादी पार्टी के मुखिया पूर्व मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव हैं। उन्हें अपनी पार्टी के नेताओं को अपनी जुबान को काबू में रखने की सलाह देनी चाहिए। मौलिक प्रश्न यह है कि दुकानदारों में हिन्दू- मुसलमानों का भेद करना संविधान विरोधी है। जब पहले ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ यह कह चुके हैं कि किसी भी व्यक्ति को कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए तो हिन्दू संगठनों के लोगों को इस पर अमल करना चाहिए जिससे कांवड़ियों की यात्रा सुगम हो सके।
इसके साथ ही कांवड़ियों का भी यह कर्त्तव्य बनता है कि वे नाहक ही किसी भी प्रकार से कानून- व्यवस्था में अवरोध पैदा करने की स्थिति खड़ी न करें और अपनी आस्था के अनुसार विनम्रता का परिचय दें। सावन की कांवड़ यात्रा की महत्ता को देखते हुए वे सभी धर्मों के नागरिकों का अभिनन्दन स्वीकार करें। शिव भक्तों को कभी भी हुड़दंग नहीं करना चाहिए। उनकी यात्रा को सहज बनाने के लिए ही हरिद्वार के बाद विभिन्न सड़क मार्गों को यातायात के लिए बन्द तक कर दिया जाता है। उत्तर प्रदेश सरकार उन पर पुष्प वर्षा तक कराती है। अतः यात्रा मार्ग पर मांस-मदिरा की दुकानों को भी यात्राकाल तक के लिए यदि बन्द रखा जाता है तो इसे भारतीयों की ही हम सहिष्णुता कहेंगे।