होली प्यार और सम्मान का त्यौहार
भारतीय संस्कृति तीज-त्यौहारों और मेलों- ठेलों की रंगारंग संस्कृति मानी जाती है…
भारतीय संस्कृति तीज-त्यौहारों और मेलों- ठेलों की रंगारंग संस्कृति मानी जाती है। इसमें भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं होती। वसुधैव कुटुम्बकम् का भाव भी यही है। मगर इसी भारत में आज हमें ये आवाजें सुनने को मिल रही हैं कि एक विशेष मुस्लिम समुदाय के लोगों को होली में शामिल न किया जाये। होली को धार्मिक रंग में रंगना और इसे केवल हिन्दुओं का त्यौहार बताना हिन्दू संस्कृति के ही विपरीत है। सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि धर्म व संस्कृति में बहुत बारीक अन्तर होता है। बेशक संस्कृति का आधार धर्म होता है मगर वह समग्रता में जब संस्कृति का स्वरूप लेता है तो धर्म का पक्ष गौण हो जाता है और वह मनुष्य मात्र की प्रसन्नता का सबब बन जाता है। धर्म की यह स्वतन्त्रता किसी भी मायने में संकीर्णता की दीवारों को तोड़ती है।
पूजा पद्धति अलग होने से संस्कृति नहीं बदलती औऱ वह किसी देश के विशेष लोगों तक सीमित नहीं रहती। भारत के हिन्दुओं के पर्वों की विशेषता यही है कि वे किसी पूजा पद्धति के मानने वालों तक सीमित नहीं हैं। वस्तुतः ये भारतीय पर्व होते हैं और जो दूसरे धर्मों के लोगों के साथ सांमजस्य बना कर इस तरह चलते हैं कि उनमें मनुष्यता या मानवता का भाव सर्वोपरि रहे। यह सुखद संयोग है कि इस बार रमजान के मुबारक महीने में होली पड़ रही है। रमजान का महीना भारत के हिन्दुओं के लिए भी हंसी-खुशी का पैगाम लेकर आता है क्योंकि हिन्दू कारोबारी इस महीने का बेसब्री से इन्तजार करते हैं। इसकी वजह यह नहीं है कि उनका कारोबार इस महीने की वजह से फलता-फूलता है बल्कि असली वजह यह है कि वे मुस्लिम भाइयों में दया व करुणा और सहयोग का भाव अपने चरमोत्कर्ष पर देखते हैं।
होली का इसी महीने में पड़ना सोने में सुहागा इसलिए है कि होली भी दया, करुणा व आपसी सहयोग व सहकार का प्रतीक माना जाता है। होलिका दहन का धार्मिक स्वरूप चाहे जो कुछ भी रहे मगर इसे खेलने की परंपरा पूजा पद्धति की दीवारों से ऊपर उठ कर रही है। होली के रंग खेलने का वर्णन मुस्लिम संगीतकारों औऱ गायकों ने जितने रस के साथ किया है उसका मुकाबला करना मुश्किल है । हिन्दोस्तानी संगीत में हर घराने के मुस्लिम गायकों ने ‘होरी’ रम कर गाई है। चाहे ध्रुपद गायकी के डागर बन्धु हों या आगरा घराने के फैयाज खां अथवा किराना घराने के अब्दुल करीम खां सभी ने होरी के रंगों को अपनी गायकी से सर्वत्र बिखेरा है। सभी ने यह खयाल गाया है।
‘बिरज’ में होली खेलत नन्दलाल
इस क्रम में बीसवीं सदी के शुरू 1902 में आवाज को पहली बार रिकार्ड कराने वाली गायिका गौहर जान का तो कोई सानी ही नहीं उन्होंने होली के त्यौहार को मानवता की बुलन्दियों तक पहुंचाया और अपनी गजल जो गाई उसे आज के धर्मांध लोग ध्यान से सुनें। होली की यह गजल आज भी यू-ट्यूब पर सुनी जा सकती है। यह इस प्रकार है ः
मेरे हजरत ने मदीने में मनाई होली
उनके एहसाब ने क्या खूब रचाई होली
शेर हर हाथ में पिचकारी लिये आते हैं
उस पर धूम मची है कि वो आयी होली
वहशते इश्क का रंग एेसे बन के फैला
सारे आलम की है नजरों में समाई होली
मुझको उम्मीद न थी अब ये मकबूल हुई
तूने किस शान की गौहर ये मनाई होली
गौहर जान अपने जमाने की एेसी विशिष्ट गायिका थीं जो उस जमाने में एक गाने के तीन हजार रु. लेती थीं। बड़े-बड़े राजा-नवाब उनकी आवभगत में उठ कर खड़े हो जाते थे। जब वह होली की गजल गाती हैं तो भारत की संस्कृति का ही बखान करती हैं और बताती हैं कि भारत की संस्कृति में मजहबों का कोई बन्धन नहीं है। लेकिन आज की वैज्ञानिक 21वीं सदी में कुछ लोग एसी मांग कर रहे हैं कि मुसलमानों को होली के त्यौहार से अलग रखो जबकि होली का उद्देश्य ही यही है कि लोगों में आपसी प्रेम व ऊंच-नीच का भाव न रहे। एक ही रंग में सभी लोगों को रंग कर उनमें आपसी मनमुटाव समाप्त किया जाये। मुझे अपने बचपन की याद है कि किस प्रकार बिजनौर जिले के नजीबाबाद कस्बे में होली का पर्व बिना किसी भेदभाव के मनाया जाता था और हर अमीर-गरीब को होली का ‘टका’ दिया दिया जाता था। उस समय नजीबाबाद नगर पालिका के चेयरमैन स्व राजेन्द्र कुमार रंघर हुआ करते थे। उन्हें हाथ में पिचकारी लिये राह चलता बच्चा भी टका दे देता था और कहता था कि
एक टका रंधर जी को दो
इनकी होली मुबारक हो
मेरे मुसलमान साथी बच्चे भी मेरे साथ होली खेला करते थे जमकर एक-दूसरे को रंग लगाने के बाद टका दिया करते थे। नजीबाबद नगर पालिका के चेयरमैन जब एक मुस्लिम नागरिक जब्बार हुसैन साहब हुए तो सायंकाल को एक विद्यालय के प्रांगण में होली मिलन समारोह हुआ करता था और उसमें कवि सम्मेलन व मुशायरा एक साथ ही हुआ करता था। हमारी सांस्कृतिक विरासत यही है। होली का सन्देश भी यही है। सभी हिन्दू-मुसलमान मिल कर होली खेलें तभी तो हम अपनी संस्कृति की विरासत अगली पीढि़यों को दे पायेंगे। वरना केवल हिन्दू-मुसलमान में भेद करते हुए ही भारत की आत्मा को चोट पहुंचाने का काम करेंगे। यह इतिहास कैसे मिटाया जा सकता है कि केवल औरंग जेब को छोड़ कर हर मुगल बादशाह होली का त्यौहार मनाता था। मुगल दरबारों में जहां फारसी के विद्वान रहते थे वहीं संस्कृत के विद्वान भी रहते थे।
हिन्दुओं के पर्वों को भी मुस्लिम बादशाह मनाया करते थे। होली-दीवाली सभी पर्व मुगल दरबारों में मनाये जाते थे। इसी प्रकार मीठी ईद का त्यौहार भी मनाया जाता था। इस बार 14 मार्च की होली है और 28 मार्च की मीठी ईद। इन त्यौहारों को हम मिल कर मनाये और भारत को भीतर से और मजबूत करें। भीतर से यह देश जितना मजबूत होगा उतना ही अधिक इसका विकास होगा। हाल ही में सम्पन्न महाकुंभ में भी कुछ लोगों ने मांग की थी कि मुसलमान इस महापर्व से दूर रहें मगर उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने एेसे लोगों को सबक सिखाते हुए कहा था कि कुंभ एक सांस्कृतिक पर्व है जो धर्म के भेदभाव से ऊपर है। हम सब सबसे पहले भारतीय हैं उसके बाद हिन्दू- मुसलमान।