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भारत का सम्मानः काशी-मथुरा

काशी और मथुरा के पूज्य हिन्दू देवस्थानों के परिसरों में ही इस्लामी आक्रमणों के निशानों को जिस स्थायी रूप से स्थापित करने का प्रयास मुस्लिम या मुगल शासन काल के दौरान किया गया उससे स्पष्ट होता है कि आक्रमणकारियों की मंशा इस देश पर अपनी विजय की छाप पक्के तौर पर छोड़ने की थी

03:17 AM Jun 01, 2022 IST | Aditya Chopra

काशी और मथुरा के पूज्य हिन्दू देवस्थानों के परिसरों में ही इस्लामी आक्रमणों के निशानों को जिस स्थायी रूप से स्थापित करने का प्रयास मुस्लिम या मुगल शासन काल के दौरान किया गया उससे स्पष्ट होता है कि आक्रमणकारियों की मंशा इस देश पर अपनी विजय की छाप पक्के तौर पर छोड़ने की थी

भारत का सम्मानः काशी मथुरा
काशी और मथुरा के पूज्य हिन्दू देवस्थानों के परिसरों में ही इस्लामी आक्रमणों के निशानों को जिस स्थायी रूप से स्थापित करने का प्रयास मुस्लिम या मुगल शासन काल के दौरान किया गया उससे स्पष्ट होता है कि आक्रमणकारियों की मंशा इस देश पर अपनी विजय की छाप पक्के तौर पर छोड़ने की थी और अपने मजहब की सत्ता भारतवासियों के धर्म से ऊपर दिखाने की थी क्योंकि काशी के ज्ञानवापी क्षेत्र की वीडियोग्राफी के बाहर आने से स्पष्ट होता है कि किस प्रकार औरंगजेब की फौज ने इसे भ्रष्ट करते हुए यहां स्थित ‘आदि विश्वेश्वर शिवलिंग’ परिमंडल को वुजू खाने में तब्दील करते हुए मन्दिर की दीवारों पर ही मस्जिद की मीनारें तामीर करा दी थीं। वीडियोग्राफी के सबूत चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आदि विश्वेश्वर शिवलिंग के परिमंडल के परिक्षत्र में पानी भर कर शिवलिंग को उसमें छुपाये रखा गया और उस पानी से वुजू करके कथित मस्जिद में साढे़ तीन सौ वर्षों से नमाज पढ़ी गई। मैं वुजू की तफ्सील में नहीं जाना चाहता । मगर सवाल यह है कि क्या कोई भी स्वाभिमानी देश और उसके लोग यह बर्दाश्त कर सकते हैं कि उनके पूज्य स्थालों में इस प्रकार बनाये गये अपमान-प्रतीक-स्थान उन्हें हमेशा चिढ़ाते रहें और सन्देश देते रहें कि उनके ही देश में उनकी आस्था और मान्यताओं का मर्दन स्थायी रूप में रहेगा और उन्हें यह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सहना होगा। किसी भी राष्ट्र या उसके लोगों के लिए आत्मसम्मान ‘रोटी’ से भी बड़ी प्राथमिकता होती है। बेशक हमारी भारतीय संस्कृति में यह स्थापित है कि ‘भूखे भजन न होय गोपाला’ मगर इसके साथ ही यह विचार भी हमारी नसों में दौड़ता है,
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‘‘मान सहित विष खाये के शंभू भये जगदीश
बिना मान अमृत पिये राहू कटायो शीश।’’
यह दोहा रहीम का है जो अकबर की सेना के सेनापति भी थे और मुसलमान थे। अतः यह ज्ञान उन्हें भारत की मिट्टी से ही प्राप्त हुआ था। कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि जो कौम आत्मसम्मान खोकर गुजर-बसर करना सीख जाती है उसका विनाश निश्चित होता है। इसीलिए महात्मा गांधी ने जो स्वतन्त्रता आन्दोलन चलाया उसका उद्देश्य अंग्रेजों को भारत से भगाना तो था मगर लक्ष्य भारत के आम आदमी से दासता भाव छुड़ा  कर आत्मसम्मान जागृत करना भी था और किसी भी राष्ट्र का आत्मसम्मान उसके उन राष्ट्रीय मानकों में बसता है जो आम लोगों की आस्था के विश्वास होते हैं। अतः मथुरा और काशी भारतीयों के एेसे दो विश्वास स्थल हैं जिनमें उनके सम्मान और गौरव की गाथा लिखी हुई है क्योंकि ये भारत की पहचान अपने भौतिक अस्तित्व में समेटे हुए हैं। अतः अतीत में भारत पर हुए विदेशी मुस्लिम हमलों के दौरान इनका चरित्र या स्वरूप बदलने का प्रयास हर भारतीय के सम्मान पर सीधी चोट करता है और उसे सोचने के लिए मजबूर करता है कि भारत के मुसलमान उस मुगल शासक औरंगजेब को कैसे ‘रहमतुल्ला अलै’ से नवाज सकते हैं जिसने बादशाह होते हुए भी इस देश को अपमानित किया । ज्ञानवापी क्षेत्र के परिसर में जिस तरह त्रिशूल से लेकर शंख व डमरू के आकृति चित्र मिलने के साथ ही संस्कृत में लिखे श्लोकों के प्रमाण मिल रहे हैं उससे तो स्वयं मुस्लिम उलेमाओं को इस देश के हिन्दुओं से माफी मांगते हुए औरंगजेब को देश का दुश्मन घोषित कर देना चाहिए क्योंकि साढ़े तीन सौ साल पहले ही वह हिन्दू-मुसलमानों को आपस में एक-दूसरे का बैरी बनाने की साजिश रच कर चला गया। क्या ज्ञानवापी की वीडियोग्राफी पर कोई सवाल उठा सकता है जिसमें साफ दिखाई दे रहा है कि भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक आदि विश्वेश्वर लिंग को केवल इसलिए फव्वारा बताने के प्रयास किये जा रहे हैं जिससे औरंगजेब के ‘इस्लामी  जेहाद’  को वाजिब करार दिया जा सके।
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‘हक’ की बात तो यह बनती है कि भारत के मुसलमानों को स्वयं ही आगे बढ़ कर काशी व मथुरा को हिन्दुओं को सौंपते हुए पूरे मुल्क में अमन-ओ-अमान की नई धारा बहानी चाहिए और सिद्ध करना चाहिए कि वे ‘गंगा-जमुनी’ तहजीब के सच्चे पैरोकार हैं। काशी-मथुरा तो जाहिराना तौर पर हक की दुहाई दे रहे हैं और ऐलान कर रहे हैं कि नाहक ही उन पर गैर वाजिब दावे ऐसे  लोग कर रहे हैं जिनका अकीदा ही मूर्तियों को खंडित करने का रहा है। मगर क्या कभी सोचा गया है कि पठान मुसलमान महाकवि ‘रसखान’ ने भगवान कृष्ण की भक्ति में स्वयं को क्यों एकाकार कर दिया? यह भारत की मिट्टी की तासीर है जिसमें प्रेम की धारा इसके गोशे-गोशे में रची-बसी है। यह भी भारत का आत्म गौरव ही है कि इसने हर मजहब को पनाह दी और उसके मानने वाले को भारतीय भी घोषित किया इसलिए मुसलमानों को अपनी भारतीयता का परिचय ही देना चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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