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भारत के पसमान्दा मुसलमानों की पहचान

हाल ही में संसद में पारित मुस्लिम वक्फ बोर्ड विधेयक में जिस तरह पसमान्दा मुसलमानों…

10:07 AM Apr 04, 2025 IST | Rakesh Kapoor

हाल ही में संसद में पारित मुस्लिम वक्फ बोर्ड विधेयक में जिस तरह पसमान्दा मुसलमानों…

हाल ही में संसद में पारित मुस्लिम वक्फ बोर्ड विधेयक में जिस तरह पसमान्दा मुसलमानों को प्रतिनिधित्व दिये जाने का प्रावधान किया गया है उससे यह बहस पुनः खड़ी हो गई है कि मुस्लिम सम्प्रदाय में सामाजिक बंटवारा किस तरह है। सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि भारत में 90 प्रतिशत के लगभग पसमान्दा मुसलमान हैं जिनकी पहचान उनके पेशे को देख कर की जाती है। ये मुसलमान 1947 में भारत के बंटवारे के सख्त खिलाफ थे जिसकी सनद यह है कि जब 23 मार्च 1940 को मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग ने अपने लाहौर अधिवेशन में मुसलमानों के लिए अलग से पाकिस्तान बनाने की मांग की तो इसके कुछ दिनों के बाद ही दिल्ली में अप्रैल महीने में मुसलमानों की एक विशाल जनसभा हुई जिसमें मुसलमानों की ही एक दर्जन से ज्यादा संस्थाओं ने शिरकत की और भारत को तोड़ कर पाकिस्तान बनाये जाने की मांग का कड़ा विरोध किया। इस सभा में सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान मौजूद थे और सिन्ध प्रान्त के मुख्यमन्त्री अल्लाबख्श सुमरू भी थे जिनकी इत्तेहाद पार्टी थी।

इन नेताओं के अलावा जमीयत उलेमा-ए-हिंद के सरपराह मौलाना मदनी भी थे। इसके साथ ही मोमिन कान्फ्रेंस के नेता लोग भी थे। इसमें एेलान किया गया कि भारत के मुसलमान अपनी जमीन और धंधा छोड़ कर किसी दूसरे देश में नहीं जायेंगे क्योंकि यही उनका मादरे वतन है। तत्कालीन सरकार ने उनकी मांग अनसुनी कर दी क्योंकि जिन्ना की मुस्लिम लीग में उस समय के सभी बड़े-बड़े जमींदार और खान बहादुर शामिल थे। इन लोगों में डर बैठ गया था कि अगर आजादी मिलने पर कांग्रेस पार्टी सत्ता में आयी तो वह जमींदारी प्रथा को समाप्त कर देगी और नई हुकूमत में उनकी हैसियत कमतर रहेगी।

इसका डर इस वजह से था क्योंकि 1936 के लखनऊ में हुए कांग्रेस अधिवेशन की सदारत करते हुए पं. जवाहर लाल नेहरू ने साफ कर दिया था कि आजाद भारत में सोवियत संघ की तर्ज पर समाजवादी आर्थिक नीतियां लागू होंगी। इससे बड़े मुस्लिम जागीरदारों व सरमायेदारों में खौफ पैदा हो गया था और उन सभी ने जिन्ना की मुस्लिम लीग का साथ देने का मन बनाया। यही वजह रही कि पूरे आजादी के आन्दोलन में मुस्लिम लीग ने कभी एक घंटे के लिए भी कोई आन्दोलन नहीं किया और इसके किसी नेता ने एक दिन की भी जेल नहीं काटी, इसके बावजूद अंग्रेजों का साथ देकर पाकिस्तान ले लिया। इस एेतिहासिक सत्य को आजादी के 76 वर्ष पूरे हो जाने पर भी कोई काट नहीं सकता है।

23 मार्च 1940 में लाहौर में मुस्लिम लीग ने जो प्रस्ताव पारित किया था उसमें मूल मांग की गई थी कि भारत के उन राज्यों को मुस्लिम राज्य बनाया जाये जहां मुसलमान बहुसंख्या में हैं। एेसे राज्यों में पंजाब व बंगाल थे जिन्हें अन्ततः 1947 में बांट कर धर्म के आधार पर पाकिस्तान बनाया गया। मगर यह बंटवारा भारी रक्तपात के साथ हुआ जिसमें लाखों लोग शहीद हुए और बेघर बार हुए। सबसे ज्यादा रक्तपात पंजाब में हुआ। दिसम्बर 1947 तक पूरे पंजाब से हिन्दू व सिखों को अपनी जान बचा कर भागना पड़ा जिसकी प्रतिक्रिया भारत के हिस्से में आये पूर्वी पंजाब में भी हुई। मगर भारत के पसमान्दा मुसलमान एेतिहासिक रूप से भारत के साथ हैं जिसका प्रमाण हमें 1857 की क्रान्ति के बाद सर सैयद अहमद खां द्वारा लिखी पुस्तक ‘असबाबे बगावते हिन्द’ में मिलता है। सर सैयद ने इस पुस्तक के माध्यम से अंग्रेजों को आगाह किया कि वे फौज से लेकर अन्य सामाजिक क्षेत्रों में हिन्दू-मुसलमानों के बीच दोस्ती न होने दें और उन्हें अलग-अलग रखने की तजवीज ढूंढे।

1857 की क्रान्ति में हिन्दू व मुसलमान दोनों ने मिल कर अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी का विरोध किया था। सर सैयद ने इस मुहीम में शामिल मुसलमानों की शिरकत के बारे में कहा कि मुसलमानों के अशराफिया कहे जाने वाले लोगों ने इस गदर में भाग नहीं लिया और कुछ ‘कमजात’ मुसलमानों ने ही इसमें हिस्सा लिया जिनमें जुलाहे, दर्जी व रफूगर वगैरा किस्म के लोग शामिल थे। इसलिए पसमान्दा मुसलमानों को कम जात बताने का काम सर सैयद ने खुल कर किया।

यह सबूत है कि भारत के पसमान्दा मुसलमान देशभक्ति में किसी हिन्दू से पीछे नहीं हैं। यह इस बात का भी प्रमाण है कि खुद को अशराफिया मुसलमानों की श्रेणी में रखने वाले सर सैयद ने ही यह स्वीकार किया कि मुसलमानों में जातियां होती हैं। इसलिए स्वतन्त्र भारत में जब भी मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की बात आयेगी तो पसमान्दा मुसलमानों का जिक्र छिड़ेगा क्योंकि 2006 में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जानने के लिए गठित सच्चर समिति ने अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा है कि भारत के मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों से भी बदतर है। इस बारे में हकीकत यह भी है कि पसमान्दा मुसलमान अधिकतर वे हैं जिनके पुरखों ने अपना धर्म बदल कर इस्लाम धर्म कबूल किया था। मगर आजादी के बाद जो भारत की सरकारों से गलती हुई है वह यह है कि मुसलमानों में प्रगतिशील सोच पैदा करने के बजाये उन्हें मुल्ला- मौलवियों व उलेमाओं के भरोसे छोड़ दिया गया। उन्हें धार्मिक स्वतन्त्रता देकर यह समझा गया कि उनकी आर्थिक व सामाजिक समस्याएं निपट जायेंगी। जबकि दूसरी तरफ हिन्दू समाज में प्रगतिशीलता आती गई जिसमें सरकारी नीतियों का भी योगदान रहा।

मुस्लिम समाज में खास कर पसमान्दा समाज में शिक्षा के प्रति कोई जागृति पैदा नहीं की गई जिसकी वजह से उनका सामाजिक व आर्थिक उत्थान नहीं हो पाया और इनकी सियासी रहनुमाई उन धार्मिक नेताओं के हाथ में रही जो इन्हें मजहबी रवायतों का गुलाम बना कर अपनी मनसबदारी सिद्ध करना चाहते थे।

इसके साथ मगर यह भी सत्य है कि मुसलमानों ने आजाद भारत में मौलाना अबुल कलाम आजाद के बाद किसी भी मुस्लिम नेता को अपना रहनुमा नहीं बनाया और ये कांग्रेस पार्टी के हक में ही रहे जिसे नब्बे के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता पार्टी व जनता दल जैसी सियासी तंजीमों ने तोड़ा। मगर अफसोस यह रहा कि इन पार्टियों ने भी मुसलमानों को वोट बैंक ही समझा। बेशक स्व. मुलायम सिंह यादव ने इस तरफ कुछ सकारात्मक कदम उठाये और उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लड़कियों की तालीम की तरफ ध्यान दिया। मगर मुद्दा यह है कि मुस्लिम वोट बैंक किस तरह बना जिसका 90 प्रतिशत हिस्सा पसमान्दा मुसलमान हैं।

भारत का संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण की छूट नहीं देता है जिसकी वजह से पसमान्दा मुसलमानों को पढ़- लिख कर केवल मंडल आयोग के तहत ही आरक्षण दिया जा सकता है। इसलिए बहुत से राज्यों में पिछड़े वर्ग की श्रेणी में मुसलमानों को डाला गया है। मगर मुस्लिम उलेमा इस्लाम में जातिवाद के वजूद को ही नकारते हैं और कहते हैं कि मुसलमानों में कोई जाति नहीं होती जबकि जमीन पर हम देखते हैं कि जिन अनुसूचित या पिछड़ी जातियों के मुसलमानों ने सदियों पहले अपना धर्म परिवर्तन किया था उनके साथ आज भी दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। धर्म के नाम पर इस व्यवस्था को मजबूत किया गया है।

अतः पसमान्दा मुसलमानों को खुद ही सोचना होगा कि उनके सामाजिक-आर्थिक विकास की गति बदलते समय के अनुसार ही हो। इसका सबसे बड़ा रास्ता भारत का लोकतन्त्र खोलता है। राजनीति में अगर यह समाज अपना हिस्सा चाहता है तो उसके रहनुमाओं को मुखर होकर आगे आना पड़ेगा क्योंकि राजनैतिक भागीदारी ही हर क्षेत्र में विकास की खिड़की खोलती है। मुसलमानों में हक की लड़ाई केवल धर्म में नहीं होती बल्कि यह समाज में भी होती है पसमान्दा मुसलमानों को अब अपने हकों की पहचान करनी चाहिए। लोकतन्त्र में किसी भी पार्टी का वोट बैंक बन जाना अपने हकों से बेपरवाह होने जैसा ही होता है। मुसलमानों के वोटों की ठेकेदारी कैसे की जा सकती है जबकि इस देश का प्रत्येक मतदाता स्वयंभू है और अपने वोट का मालिक है।

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