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मतदाता की नागरिकता

04:46 AM Aug 14, 2025 IST | Aditya Chopra
पंजाब केसरी के डायरेक्टर आदित्य नारायण चोपड़ा

बिहार में चुनाव आयोग द्वारा किया जा रहा मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण का कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है क्योंकि पूरे अगस्त महीने में मतदाताओं को अपने दावे पेश करने का अधिकार है। चुनाव आयोग 30 सितम्बर को अन्तिम मतदाता सूची का प्रकाशन करेगा परन्तु अभी जो उसने फौरी सूची जारी की है उसमें बिहार के कुल सात करोड़ 90 लाख मतदाताओं में से 65 लाख मतदाताओं के नाम काट दिये गये हैं। देश की विपक्षी पार्टियां उसके इस फैसले का कड़ा विरोध कर रही हैं और कह रही हैं कि चुनाव आयोग पुनरीक्षण के नाम पर मतदाताओं के नाम काटने का सघन अभियान चला रहा है। विपक्ष के नेता श्री राहुल गांधी कह रहे हैं कि यह एक नागरिक-एक वोट का सवाल है जिस पर भारत का पूरा लोकतन्त्र टिका हुआ है। विपक्ष का तर्क है कि चुनाव आयोग किसी भी व्यक्ति की नागरिकता की जांच नहीं कर सकता है। उसे इसका अधिकार संविधान नहीं देता है। संविधान उसे देश में निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनाव कराने का अधिकार देता है। इसमें कहीं दो राय नहीं हो सकती कि चुनाव आयोग को किसी भी व्यक्ति की नागरिकता की जांच करने का अधिकार नहीं है। किसी भी नये मतदाता को यह वचन देना पड़ता है कि वह भारत का नागरिक है और उसका वोट बन जाता है।
चुनाव आयोग ने इस सन्दर्भ में अपनी शर्तों में संशोधन किया है और वह नागरिकों से एेसे प्रपत्र मांग रहा है जिसमें उनकी नागरिकता की पुष्टि होती हो। सर्वोच्च न्यायालय में गहन पुनरीक्षण को लेकर कई याचिकाएं दाखिल की गई हैं जिनकी सुनवाई चल रही है। इसी सुनवाई के दौरान अदालत में प्रभावित पक्ष की ओर से तर्क दिया गया कि नागरिकता तय करने का काम केन्द्रीय गृह मन्त्रालय का है। इस तर्क के पक्ष में न्यायालय में सुनवाई कर रही दो न्यायमूर्तियों की पीठ ने सहमति व्यक्त करते हुए कहा है कि नागरिकता कानून बनाने का काम भारत की संसद का है। संसद ही इस बारे में कानून बना सकती है। अतः निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चुनाव आयोग किसी भी मतदाता की नागरिकता पर सवालिया निशान नहीं खड़ा कर सकता। एेसा करने पर वह अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाता है। जबकि दूसरी तरफ भारत का संविधान कहता है कि प्रत्येक वयस्क वैध मतदाता को वोट देने का अधिकार है। इस हिसाब से बिहार की मतदाता सूची में लोगों के नाम बजाय घटने के बढ़ने चाहिए परन्तु चुनाव आयोग ने जिन 65 लाख मतदाताओं के नाम काटे हैं उनके सन्दर्भ में जो कारण दिये हैं वे जायज लगते हैं।
आयोग का कहना है कि 2003 के बाद लाखों लोगों ने बिहार छोड़ कर अन्य स्थानों को पलायन किया है, लाखों लोग मर चुके हैं व लाखों की संख्या में ही लोगों के नाम दो स्थानों पर मतदाता सूची में शामिल हैं। न्यायालय ने उसके इन तर्कों को स्वीकार किया है जो कि पूरी तरह जायज लगता है। मगर इसके साथ यह भी तर्क है कि 2003 के बाद बिहार में कितने मतदाता बढ़े हैं। क्योंकि चुनाव आयोग ने 2003 वर्ष को आधार वर्ष माना है। इस वर्ष बिहार में मतदाता सूची का पुनरीक्षण किया गया था लेकिन इसके साथ यह सवाल जुड़ा हुआ है कि विगत वर्ष 2024 में जो लोकसभा चुनाव हुए थे वे पुरानी मतदाता सूची के आधार पर ही हुए थे। विपक्ष के नेता कह रहे हैं कि क्या ये चुनाव गलत सूची के आधार पर हुए थे ? इसका जवाब चुनाव आयोग नहीं दे रहा है। मगर वह कह रहा है कि आधार कार्ड या पुराने मतदाता पहचान पत्र के आधार पर किसी जायज मतदाता की पहचान नहीं हो सकती है। उसके इस तर्क को सर्वोच्च न्यायालय ने सही माना है और कहा है कि दोनों पहचान पत्र नागरिकता के प्रमाणपत्र नहीं हैं। यहां तक कि राशन कार्ड को भी न्यायालय नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं मान रहा है। निश्चित रूप से यह सही भी है कि क्योंकि आधार कार्ड पर ही यह लिखा होता है वह नागरिकता का सबूत नहीं है। राशन कार्ड भी भारत में फर्जी बना लिये जाते हैं और उनके बनवाने में आधार कार्ड का प्रयोग होता है। पुराने वोटर पहचान पत्र को लेकर भी यही दिक्कत है। अतः चुनाव आयोग के तर्कों में इन्हें लेकर वजन दिखाई देता है परन्तु यह सही सवाल का जवाब नहीं है क्योंकि संविधान कहता है कि नागरिकता की जांच करने का अधिकार चुनाव आयोग को है ही नहीं। उसके सामने किसी भी व्यक्ति का यह शपथपत्र ही काफी है कि वह भारत का नागरिक है। उसकी नागरिकता को यदि कोई चुनौती देता है तो यह चुनौती देने वाले का काम है कि वह एेसा सिद्ध करे।
भारत में पुश्तों से रह रहे लोगों की नागरिकता को चुनौती केवल किसी प्रपत्र के न होने की वजह से नहीं दी जा सकती। पुरानी पीढि़यों के लोगों के पास न अपना जन्म प्रमाणपत्र होता था और न कोई स्कूली सनद। अगर उससे आज आयोग ये प्रमाणपत्र मांगने लगे तो उसे जायज किस तरह कहा जा सकता है। जबकि बिहार के सन्दर्भ में चुनाव आयोग 1987 के बाद पैदा होने वाले लोगों से एेसे प्रमाणपत्र मांग रहा है। मगर घूम फिर कर बात फिर वहीं पर आती है कि क्या चुनाव आयोग को किसी व्यक्ति की नागरिकता तय करने का अधिकार है। जहां तक भारत की चुनाव प्रणाली का सवाल है तो यह समावेशी है न कि छंटनीपरक। बेशक जिन लोगों की मृत्यु हो चुकी है उनके नाम मतदाता सूची से कटने चाहिए मगर 18 वर्ष से अधिक आयु होने पर नाम जुड़ने भी तो चाहिए। इससे भी ऊपर और सबसे बड़ा सवाल है कि क्या चुनाव आयोग को सघन पुनरीक्षण करने का अधिकार है क्योंकि चुनाव सम्बन्धी किसी भी कानून में सघन या गहन पुनरीक्षण का जिक्र नहीं है हां यह जरूर है कि समय-समय पर हर वर्ष चुनाव आयोग पुनरीक्षण या मतदाता सूची में संशोधन करता रहेगा। अतः मूल प्रश्न अदालत के सामने यह भी है।

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