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मां यशोदा और श्रवण कुमार जैसे पुत्र के देश में...

समाज को कितना भी संभ्रांत और शिक्षित माना जाए लेकिन उसके साथ विडम्बनाएं भी जुड़ी हुई हैं। रिश्ते तार-तार हो रहे हैं। मानवीय संवेदनाएं खत्म हो चुकी हैं।

01:19 AM Jun 12, 2022 IST | Kiran Chopra

समाज को कितना भी संभ्रांत और शिक्षित माना जाए लेकिन उसके साथ विडम्बनाएं भी जुड़ी हुई हैं। रिश्ते तार-तार हो रहे हैं। मानवीय संवेदनाएं खत्म हो चुकी हैं।

मां यशोदा और श्रवण कुमार जैसे पुत्र के देश में
समाज को कितना भी संभ्रांत और शिक्षित माना जाए लेकिन उसके साथ विडम्बनाएं भी जुड़ी हुई हैं। रिश्ते तार-तार हो रहे हैं। मानवीय संवेदनाएं खत्म हो चुकी हैं। दया, सहिष्णुता नाम मात्र भी नहीं बची। एक मां अपनी 6 साल की बच्ची को स्कूल होम वर्क न करने पर बांध कर तपती दुपहरी में छत पर छोड़ देती है और दूसरी तरफ एक 16 वर्षीय बेटा अपनी मां की हत्या कर देता है। दोनों ही घटनाएं चौंकाने वाली हैं। कारण कुछ भी रहे हों लेकिन एक बेटे द्वारा मां की हत्या करने को स्वीकार नहीं किया जा सकता। दोनों केस आज के उस तनाव के प्रभाव हैं जो अलग-अलग तरह के दबाव की परिभाषा है। लखनऊ में एक मां अपने 16 साल के बेटे को ऑनलाइन गेम जो मोबाइल पर आसानी से उपलब्ध है। खेलने से अक्सर मना करती थी।
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बेटा ऑनलाइन गेमिंग का एडिक्ट अर्थात उसे इसकी लत लग चुकी थी। मां अलग ही तरह के एक तनाव को झेलते हुए जब बेटे को पबजी नामक यह गेम खेलने से रोकती तो बेटा भी गुस्से भरे तनाव में आ जाता था। दूसरा मामला दिल्ली की उस मां का है जो 6 साल की अपनी मासूम बच्ची को होमवर्क न करने पर एक ऐसी सजा देती है ताकि उसे सबक सिखाया जा सके लेकिन 44 डिग्री तापमान के तहत झुलसा देने वाली गर्मी में छत पर बच्ची को बांध देना यह सजा तो खाड़ी देशों में भी कोई किसी को नहीं देता जिसे पत्थर युग का दंड कहा जाता है। जहां श्रवण कुमार जैसे सेवाकार पुत्र हों जिसने अंधे मां-बाप को अपने कंधे पर डोली से धार्मिक यात्रा कराई और यशोदा जैसी ममता की मूर्त हो जिसने कान्हा को पाला। उस भारत में ऐसे कांड किसी को भी झकझोर देने के लिए काफी हैं।
हमारा यह मानना है कि किसी भी चीज का जरूरत से ज्यादा प्रयोग अच्छा नहीं रहता। जहां तक आज के जमाने की बात है तो टैक्नोलोजी के इस दाैर में हर कोई सुख-सुविधा तुरन्त चाहता है। घर से लेकर रास्ते तक और फिर मंजिल तक हर कोई यही चाहता है कि हमें सब कुछ आसानी से उपलब्ध होता रहे। यहां तक कि हर कोई यह चाहता है ​कि मोबाइल में हमारे सामने अलाद्दीन  के जिन्न की तरह कोई सामने हो जो हमारी हर बात पूरी करता रहे। अगर आप ऐसी कल्पना करते हैं तो इसे लत कहा जा सकता है। जब टैक्नोलोजी देश में सन् 2000 के बाद तेजी से विकसित होने लगी तो वीडियो गेम के बाद मोबाइल के इजाद होने से आनलाइन गेमिंग आज की तारीख में बहुत कॉमन है।
हमारे शिक्षा ​सिस्टम को युवा पीढ़ी किस ढंग से ले रही है और कैसे नहीं, यह कहने की बात नहीं लेकिन यह जरूर है कि हर बच्चा ​बिना मेहनत किए, ​बिना लिखे तनाव से दूर रहकर टॉप करना चाहता है लेकिन साथ-साथ आनलाइन गेमिंग भी वह छोड़ना नहीं चाहते। जिस बच्चे ने आनलाइन गेमिंग की लत को लेकर अपनी माता की हत्या कर दी, निश्चित ही आज के अभिभावकों के लिए एक खतरे की घंटी है कि बच्चों को आनलाइन गेमिंग से दूर रखने के तरीके खोज लिए जाएं। अब यह काम कैसे करना है यह सोचना पेंरैंट्स का काम है। दिल्ली की जिस घटना में एक मां ने अपनी छह वर्षीय बच्ची को होमवर्क न करने पर तपती दुपहरी में छत पर बांध दिया उस बारे में सोशल मीडिया पर जो कुछ वायरल हो रहा है वह यही संदेश दे रहा है कि बच्चे को स्कूली काम रोज कराने के लिए माता-पिता को तैश में आने की जरूरत नहीं। पांच-छह साल का बच्चा शरारत भी करेगा वह प्यार से कंट्रोल किया जा सकता है। अगर आप ने उसे सजा दे दी और जिस तरीके से 44 डिग्री तापमान के बीच एक बच्ची को बांध दिया जाता है तो इसे क्या कहेंगे? हमारा मानना यही है कि बच्चों को  प्यार देना मां का कर्त्तव्य है आैर दिल्ली तो क्या दुनिया में कोई भी मां अपने बच्चे को ऐसी कठोर सजा नहीं देना चाहेगी।
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कोई कुछ भी कहे लेकिन दोनों ऊपर लिखी घटनाएं और उनके परिणाम समाज स्वीकार नहीं कर सकता। समय आ गया है कि बच्चों को प्यार से कंट्रोल करें, उनकी वीडियो गेमिंग पर माता-पिता नजर रखें और उसका तरीका प्यार ही है। अगर लोहे को लोहा काटता है तो प्यार से प्यार पनपता है। हमें यही ध्यान रखते हुए आगे बढ़ना है। समाज को ऐसा बेटा भी नहीं चाहिए जो मां की हत्या कर दे और ऐसी मां भी नहीं चाहिए जो 6 साल की बच्ची को धूप में बांध दे। मां ममता का दूसरा नाम है, प्यार का दूसरा नाम है और पुत्र भी सेवा का दूसरा नाम है, यही हमारे संस्कार हैं, यही हमारी संस्कृति है। इसके साथ ही हमें जिन्दगी जीनी है।
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Kiran Chopra

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