भारत में बढ़ती असमानता
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यह वास्तविकता है कि भारत में अमीरी-गरीबी के बीच की खाई काफी विकराल रूप धारण कर चुकी है। यहां जहां गगनचुंबी अट्टालिकाएं, बंगले, महल, विला, मल्टीप्लेक्स और बड़े शोरूम हैं, वहीं झुग्गी-झोंपडि़यां, घास-फूस के कुटीर, खपरैल और कच्चे और अधकच्चे मकान, सड़कों के किनारे और फ्लाईओवरों के नीचे रहते लोग भी दिखाई देते हैं, जो देश की वास्तविक तस्वीर पेश करते हैं। यदि रिहायश की दृष्टि से देखा जाए तो शहरों के बीचोंबीच पोश कालोनियों में रहने वाले लोग अमीर हैं। इनके पास जीवनयापन के पर्याप्त साधन उद्योग-धंधे, लम्बा-चौड़ा कारोबार है, इसके विपरीत शहरों के किनारे टूटे-फूटे आवासों और गन्दी बस्तियों में रहने वाले लोग, जो अधिकतर गांवों से पलायन करके शहरों में निवास करने लगे हैं, वे गरीबी की दल-दल में फंसे हुए हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में तो अमीर-गरीब में अन्तर बहुत साफ दिखाई देता है। कोई समय था जब देश में राजा-महाराजा हुआ करते थे तो पड़ोसी राज्यों से लड़ते थे और उन पर अपना कब्जा करके अपने साम्राज्य का विस्तार करते थे। जब देश आजाद हो गया तो सबसे पहले राजा रजवाड़ों की दौलत को ही जब्त किया गया और सरकारी खजाने में रख दिया गया क्योंकि अमीर और गरीब के बीच एक बहुत बड़ी खाई थी। इन पैसों से समाज कल्याण और विकास के काम किए गए। रजवाड़ों की जमीनों को जनता में बांट दिया गया ताकि फर्क कम किया जा सके लेकिन हुआ क्या, इसकी सच्चाई को ऑक्सफेम की रिपोर्ट ने उजागर किया है। यह रिपोर्ट हर संवेदनशील इन्सान को बेचैन कर देने वाली है। रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के अरबपतियों की सम्पत्ति से पिछले वर्ष हर दिन 2200 करोड़ रुपए का इजाफा हुआ। टॉप एक प्रतिशत अमीरों की सम्पत्ति में 39 प्रतिशत बढ़ौतरी हुई है जबकि कम से कम पैसे वालों की 50 फीसदी आबादी की सम्पत्ति केवल 3 फीसदी बढ़ी है।
देश के 9 अरबपतियों की कुल सम्पदा नीचे की 50 फीसदी जनसंख्या की सम्पदा के बराबर है और देश की करीब 60 फीसदी जनसंख्या के पास राष्ट्रीय सम्पदा का महज 4.8 फीसदी हिस्सा है। रिपोर्ट के अनुसार चिकित्सा, जनस्वास्थ्य, स्वच्छता और जलापूर्ति जैसे जनोपयोगी कार्य पर केन्द्र और राज्य सरकारों का कुल मिलाकर पूंजी व्यय 2,08,116 करोड़ है जबकि इससे ज्यादा 2.8 लाख करोड़ की सम्पदा तो देश के सबसे अमीर व्यक्ति मुकेश अम्बानी के पास है। पिछले वर्ष भारत में अरबपति क्लब में 18 नए लोग शामिल हुए हैं। डॉलर के लिहाज से अब देश में 119 अरबपति हैं जिनकी कुल सम्पदा 440 अरब डॉलर या 30 लाख करोड़ रुपए के आसपास है। वर्ष 2017 में इन अरबपतियों के पास 325.5 अरब डॉलर थी। मुकेश अम्बानी और अन्य अरबपतियों की दौलत में इजाफा सोचने को विवश कर देता है। 90 के दशक में जब देश में आर्थिक सुधार शुुरू हुए तो पूरी आबादी का एक छोटा सा हिस्सा तेजी से समृद्ध होने लगा।
ऐसा नहीं था कि बाकी लोगों को उसका फायदा नहीं मिल रहा था। करोड़ों लोग गरीबी रेखा से ऊपर चले गए लेकिन अमीर-गरीब का फासला तेजी से बढ़ता ही गया। अब स्थिति यह है कि भारत आर्थिक असमानता के मामले में दुनिया के शीर्ष देशों में शामिल है। असमानता का इंडेक्स 1990 में जहां 45.18 था वहीं यह बढ़कर 60 फीसदी होने को है। ऐसा नहीं है कि अन्य के पास धन नहीं आया लेकिन वह उस अनुपात में नहीं आया, जो ऊपर के वर्ग में था। नए आंकड़े विचलित कर देने वाले हैं। यह सही है कि आर्थिक सुधारों ने हालात में जबर्दस्त बदलाव किया। अमीर और अमीर होते गए जबकि गरीब वहीं खड़े रह गए। दुनिया में ऐसी असमानता कहीं और देखने को नहीं मिलती। नई कार्पोरेट संस्कृति ने आर्थिक विषमता को बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। देश की बड़ी आईटी कम्पनियों के सीईओ का वेतन उसी कंपनियों के एक औसत कर्मी से 400 गुना ज्यादा है। दौलत के थोड़े से लोगों के हाथों में सिमट जाने का असर देश की राजनीति पर भी पड़ा है क्योंकि अरबपतियों के पास राजनीतिक ताकत आ गई है।
एक ओर वो 26 लोग जिनकी सम्पदा न जाने कितने देशों की जीडीपी को पछाड़ दे, वहीं दूसरी ओर करोड़ों लोग हैं जो दो जून की रोटी तक के लिए संघर्ष करते हैं। एक तरफ अमीरों के दरवाजे पर सुविधाएं आसानी से पहुंच जाती हैं तो दूसरी तरफ गरीबों को अपने बच्चों के लिए दवा तक नसीब नहीं होती। यह स्पष्ट है कि भारत में आर्थिक विकास का लाभ चन्द लोगों को मिला है। यह असफल आर्थिक व्यवस्था का लक्षण है। बढ़ता विभाजन लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है और लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है। यह विषमता सरकारों की नीतियों के कारण भी बढ़ी।
सरकार को अपनी कल्याणकारी योजनाओं पर कहीं ज्यादा खर्च करना होगा। उसे स्वास्थ्य और शिक्षा पर कहीं ज्यादा राशि आवंटित करनी होगी। अगर सरकार कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च बढ़ाएगी तो धन कहां से आएगा? सरकार को अपनी टैक्स नीति में बदलाव करना होगा। मोदी सरकार ने हाल ही में स्वास्थ्य क्षेत्र में आयुष्मान भारत योजना लांच की है जिसके तहत गरीब परिवारों को 5 लाख तक का हैल्थ इंश्योरेंस मिल रहा है। अभी इस योजना का लाभ गरीबों तक पूरी तरह पहुंचता है। ऑक्सफेम की रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि भारत के धनी लोगों की सम्पदा पर महज आधा फीसदी का टैक्स लगा दिया जाए तो इसे इतना पैसा जुट जाएगा कि सरकार स्वास्थ्य पर खर्च 50 फीसदी तक बढ़ा सकती है। केवल यह सोचकर कि अमीरों पर टैक्स लगाने से निवेश को धक्का लगेगा, सरकार को हिचकना नहीं चाहिए। जरूरत है टैक्स का दायरा बढ़ाने की।