चुनाव आयोग की स्वतंत्र सत्ता
हमारे दूरदर्शी संविधान निर्माताओं ने जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था स्वतन्त्रता के बाद…
हमारे दूरदर्शी संविधान निर्माताओं ने जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था स्वतन्त्रता के बाद हमारे हाथों में सौंपी उसकी बुनियाद बनाने का कार्य चुनाव आयोग को इस प्रकार दिया कि वह सीधे संविधान से शक्ति लेकर विधायिका के लोगों द्वारा चुने जाने की प्रणाली का संरक्षक होकर काम करे और जन प्रतिनिधियों द्वारा अपने काम करने का मार्ग प्रशस्त करे। इसके साथ ही बाबा साहेब अम्बेडकर के संविधान में यह व्यवस्था भी की गई कि लोकतन्त्र में चुनाव आयोग की सत्ता पूरी तरह स्वतन्त्र रहेगी और वह सरकार का अंग नहीं बनेगा, बल्कि उस पर लोगों की मनमाफिक सरकार बनाने की प्रक्रिया का गुरुतर भार होगा। इसके साथ ही संविधान निर्माताओं ने स्वतन्त्र न्यायपालिका की भी व्यवस्था की और उस पर यह भार डाला कि वह संविधान के अनुसार काम करने के लिए विधायिका व कार्यपालिका दोनों की समीक्षा करता रहे। विधायिका का कोई भी कार्य संविधान के अनुसार ही हो यह जिम्मेदारी न्यायपालिका पर डाली गई और इसे भी सरकार का अंग नहीं बनाया गया।
बाबा साहेब अम्बेडकर ने 26 नवम्बर 1949 को देश को संविधान देने से पहले 25 नवम्बर को संविधान सभा में जो वक्तव्य दिया वह इस बात को साबित करता है कि उन्होंने चुनाव आयोग को देश की राजनीतिक व्यवस्था का निगेहबान बनाया और यह तय किया कि चुनाव आयोग हर पांच साल बाद होने वाले चुनावों के लिए प्रत्येक राजनैतिक दल के लिए एक समान जमीन तैयार करके देगा जिससे चुनाव पूरी तरह स्वतन्त्र व निष्पक्ष हो सकें। मगर स्वतन्त्रता मिलने पर महात्मा गांधी के सिद्धान्तों के अनुसार बाबा साहेब ने देश के प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना किसी भेदभाव के एक वोट का अधिकार दिया जिसका इस्तेमाल करके वह अपने राजनैतिक जन प्रतिनिधियों का चुनाव कर सकता था। भारत के सभी स्त्री-पुरुषों को यह अधिकार एक समान रूप से दिया गया। अंग्रेजों द्वारा लुटे- पिटे हिन्दोस्तान में यह फैसला किसी क्रान्ति से कम नहीं था जिसकी वजह से पूरी दुनिया भौंचक्की थी कि गांधी के देश में यह व्यवस्था किस प्रकार कारगर हो पायेगी जबकि इसकी 90 प्रतिशत जनता निरक्षर थी और भूखी-नंगी थी। मगर गांधी को विश्वास था कि उनके भारत के गरीब व अनपढ़ लोग मूर्ख नहीं हैं। सांसारिक कामों में वे बुद्धिमान ही साबित होंगे। हम आज पिछले 75 सालों से इसी व्यवस्था में जीते हुए आ रहे हैं और लगातार तरक्की करते जा रहे हैं।
हमारी गिनती आज औद्योगिक देशों में होती है जबकि आजादी मिलते वक्त इस देश में सुई तक का उत्पादन नहीं होता था और पूरी औद्योगिक व्यवस्था को तीन सेठ टाटा, बिड़ला व डालमिया संभाले हुए थे। 25 नवम्बर 1949 को बाबा साहेब ने अपने वक्तव्य में नई लोकतान्त्रिक प्रणाली को चार खम्भों पर टिकी हुई बताया था। चुनाव आयोग, न्यायपालिका, कार्य पालिका व विधायिका। मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं कि साठ के दशक तक चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली को लेकर कहीं कोई विवाद नहीं था अतः समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने स्वतन्त्र प्रेस या मीडिया को चुनाव आयोग के स्थान पर एक खम्भा बताने का कार्य किया जिसे सार्वजनिक रूप से मान्यता भी मिली। हालांकि संविधान मे स्वतन्त्र प्रेस का कहीं कोई जिक्र नहीं है बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सन्दर्भ है। स्वतन्त्र प्रेस इसी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के संवैधानिक प्रावधान से शक्ति लेती है और अपना काम करती है लेकिन इससे संविधान में जो दर्जा चुनाव आयोग को दिया गया है वह कम नहीं होता। आजकल संसद का सत्र चल रहा है और उसमें विपक्ष चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर सवालिया निशान लगा रहा है। भारत के सन्दर्भ में यह बहुत गंभीर मसला है क्योंकि भारत की चुनाव प्रणाली को लेकर अन्तर्राष्ट्रीय जगत तक में कोतूहल का वातावरण रहा है। इसकी वजह यह है कि विशाल विविधताओं से भरे भारत में किसी केन्द्रीकृत संस्था (चुनाव आयोग) द्वारा निष्पक्ष चुनाव कराना कोई आसान बात नहीं है। इसी वजह से दुनिया के लोग भारत की चुनाव प्रणाली का अध्ययन करने नई दिल्ली आते रहते हैं।
विचारणीय यह भी है कि जब हम अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भारत को एक उदार शक्ति (साफ्ट पावर) कहते हैं तो इसका लोकतन्त्र ही प्रमुख कारण होता है। इसी लोकतन्त्र को स्थापित करने की जिम्मेदारी से चुनाव आयोग को बाबा साहेब बांध कर गये हैं। अतः इसका हर दृष्टि और लिहाज से पाक- साफ होना भारत के लोकतन्त्र की एक शर्त है। बेशक चुनाव आयोग अपना कार्य पूरी दक्षता व ईमानदारी से करने के लिए सरकारी मशीनरी का ही उपयोग करता है मगर वह यह कार्य सरकार के अधीनस्थ होकर नहीं करता बल्कि खुद को प्राप्त संवैधानिक अधिकारों के तहत करता है। इसकी साफ वजह यह है कि भारत की कार्यपालिका भी अपना कार्य संविधान की कसम उठा कर ही करती है। भारत की प्रशासनिक प्रणाली की नींव देश के पहले गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल इस प्रकार डाल कर गये हैं कि प्रत्येक जिले का कलेक्टर और पुलिस कप्तान अपना कार्य संविधान की शपथ लेकर ही शुरू करंे। क्या खूबसूरत कसीदाकारी के साथ भारत के संविधान की शासन व्यवस्था हमारे देश में है और संसद की सर्वोच्चता भी इसी से निकलती है।
अतः जब संसद में यह मांग होती है कि चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर संसद में बहस होनी चाहिए तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है क्योंकि संसद ने ही कानून बना कर इसके अस्तित्व को कायम किया है लेकिन विपक्ष को भी यह विचार करना चाहिए कि वह चुनाव आयोग के कामकाज को बहुत संजीदगी के साथ देखे । उसकी नीति विवाद खड़ा करके आगे बढ़ने की नहीं होनी चाहिए। पहले इस पर विवाद हो रहा था कि चुनाव ईवीएम मशीनों के स्थान पर बैलेट पेपर से होना चाहिए। इस पर कोई रचनात्मक बहस संसद के भीतर नहीं हुई और विवाद चुनाव आयोग द्वारा बनाई जाने वाली मतदाता सूची पर शुरू हो गया। देश के सभी राजनैतिक दलों के भीतर (सत्ता और विपक्ष) इस मुद्दे पर मतैक्य होना चाहिए कि चुनाव आयोग की सत्ता सर्वदा स्वतन्त्र रहे और वह संविधान से ताकत लेकर अपना कार्य करता रहे। आखिरकार बैलेट पेपर के अलावा ईवीएम मशीनों से चुनाव कराने का अधिकार भी तो संसद ने ही 80 के दशक में उसे दिया लेकिन अब मसला मतदाता सूची का खड़ा हो गया है। इसके लिए जरूरी है कि चुनाव आयोग विपक्ष की शंकाओं का निराकरण करे। इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं है।