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भारत-अमेरिका व्यापार!

06:08 AM Aug 04, 2025 IST | Aditya Chopra

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के रुख को देखते हुए भारत के साथ अमेरिकी सम्बन्ध ऐसे महीन तार पर चल पड़े हैं जिसके थोड़ा भी इधर-उधर हो जाने से भारी दुर्घटना होने का खतरा मंडराने लगा है। भारत-अमेरिकी सम्बन्धों की चर्चा आपसी व्यापार के सन्दर्भ में देश के चौक-चौराहों तक होने लगी है। हाल के ताजा वर्षों के इतिहास में ऐसा दूसरी बार हो रहा है जब आम जनता द्विपक्षीय सम्बन्धों पर चल रही बहस में हिस्सा ले रही है। 2008 में पहले ऐसा हो चुका है। उस समय भारत में डाॅ. मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार थी और भारत अमेरिका से परमाणु समझौता करने जा रहा था। तब भी भारत के गांव-कस्बों में इस करार के बारे में आम जनता बहस करती हुई मिल जाती थी। यह लोकतन्त्र की ताकत थी। 2008 में इस परमाणु करार की बागडोर तत्कालीन विदेश मन्त्री भारत रत्न स्व. प्रणव मुखर्जी संभाले हुए थे। संसद से लेकर सड़क तक तब परमाणु करार के विभिन्न उपबन्धों के बारे में आम जनता भी बहस में उलझी हुई थी क्योंकि तत्कालीन विपक्षी पार्टी भाजपा इस समझौते का विरोध कर रही थी। एक मायने में यह भारतीय लोकतन्त्र के परिपक्व होने की तसदीक भी थी क्योंकि आम जनता भारत की विदेश व रक्षा नीति पर खुलकर अपने विचार रख रही थी।

भाजपा के साथ-साथ वामपंथी दल भी इस समझौते का पुरजोर विरोध कर रहे थे। मगर स्व. प्रणव दा ने भारत की शर्तों पर यह समझौता इस प्रकार किया था कि भारत के परमाणु परीक्षण करने के अधिकार बरकरार रहे थे। यह कार्य तत्कालीन सरकार में केवल प्रणव दा ही कर सकते थे क्योंकि उन्होंने भरी संसद में ऐलान कर दिया था कि यह समझौता भारत की आने वाली पीढि़यों के भविष्य को सुखी और संरक्षित बनायेगा। उन्होंने कहा था कि भारत के लोगों ने हम पर विश्वास करके हमें सत्ता में बैठाया है अतः हमें खुद पर विश्वास होना चाहिए कि हम जो भी कर रहे हैं वह भारत के भविष्य को उज्ज्वल करने के लिए है। परमाणु करार के बारे में उनके संसद के दोनों सदनों में दिए गये भाषण संसदीय इतिहास के स्वर्ण पृष्ठ कहे जा सकते हैं जिनसे आने वाली राजनीतिज्ञों की नस्ले सर्वदा प्रेरणा लेती रहेंगी। अतः भारत-अमेरिकी व्यापार समझौते को लेकर भारत की सरकार जो भी कदम उठा रही है या उठायेगी, वे राष्ट्रहित में सर्वोच्च स्थान रखने चाहिए। वर्तमान मोदी सरकार को भी इसी दिशा में आगे बढ़ना होगा और दुनिया को बता देना होगा कि भारत राष्ट्रपति ट्रम्प की उन धमकियों के आगे नहीं झुकेगा जिनसे राष्ट्र के हितों पर थोड़ी भी चोट पहुंचती हो। इस मामले में विदेशमन्त्री एस. जयशंकर को हर कदम फूंक-फूंक कर रखना होगा और अमेरिका को बताना होगा कि भारत के विशालतम बाजार की अमेरिका अनदेखी नहीं कर सकता है।

श्री ट्रम्प भारतीय अर्थव्यवस्था को मृत अर्थव्यवस्था बताकर केवल अपनी कमजोरी ही जता रहे हैं क्योंकि यदि ऐसा होता तो अमेरिका भारत से यह कदापि न कहता कि वह अमेरिका से आयात किये जाने वाले सामान पर शुल्क की दरों में कमी लाये। इसके साथ ही ट्रम्प भारत से अमेरिका को निर्यात किये जाने वाले सामान पर शुल्क की दरों में वृद्धि कर रहे हैं। इसका अर्थ होता है कि अमेरिका में भारतीय माल महंगा हो जायेगा। फिलहाल भारत-अमेरिका के व्यापार में भारत का पलड़ा भारी है क्योंकि वह 46 अरब डाॅलर के फायदे में हैं अर्थात भारत जितना अमेरिका से आयात करता है उससे कहीं ज्यादा निर्यात करता है। परन्तु ट्रम्प चाहते हैं कि भारत का यह व्यापार मुनाफा कम हो और अमेरिका का भारत को निर्यात बढे़। ट्रम्प अमेरिकी कृषिजन्य उत्पादों से लेकर अन्य उपभोक्ता सामग्री पर भारत द्वारा लगाये गये शुल्क में गुणात्मक कमी चाहते हैं। इससे भारत में उसके उत्पाद सस्ते होंगे जिससे उनकी मांग भारतीय बाजारों में बढे़गी। मोदी सरकार ने हर कदम पर यह साफ कर दिया है कि वह भारत के किसानों के हितों को किसी भी तरह प्रभावित नहीं होने देगी और ऐसा व्यापार समझौता करेगी जिससे दोनों देशों के हित सन्तुलित रहें। दरअसल राष्ट्रपति ट्रम्प जिस प्रकार द्विपक्षीय वाणिज्य समझौते विभिन्न देशों से करने को उतावले हो रहे हैं वह विश्व व्यापार संगठन की भावना के अनुकूल नहीं है। भारत इस संगठन का सदस्य है और उसका शुल्क ढांचा अभी तक संगठन के दिशा-निर्देशों के अनुसार ही रहा है।

1990 में जब भारत इस संगठन का सदस्य बना था तो अमेरिका ने भारत पर लगे विभिन्न आर्थिक प्रतिबन्ध समाप्त कर दिये थे। ये प्रतिबन्ध भारत द्वारा 1974 में पोखरन में परमाणु विस्फोट करने के बाद लगाये गये थे। भारत ने जब अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण 1991 से करना शुरू किया तो अमेरिका ने उसके इस कदम को ऐतिहासिक तक बताया। इसके बाद भारत बाजार मूलक अर्थ व्यवस्था की तरफ तेजी से बढ़ा। मगर भारत ने अपने कृषि क्षेत्र को संरक्षित रखने के लिए विश्व व्यापार संगठन की बैठकों में साफ किया कि वह किसानों को मिलने वाली सरकारी सब्सिडी को बन्द नहीं कर सकता क्योंकि बदलते विश्व आर्थिक परिदृश्य में यह क्षेत्र निश्चिन्तता के साथ चलना चाहिए क्योंकि भारत के साठ प्रतिशत से ज्यादा लोग इस क्षेत्र में लगे हुए हैं। उनकी रोजी-रोटी यही क्षेत्र देता है।

जबकि यूरोप व अमेरिका में तस्वीर दूसरी है। इस मामले में 2006 में भारत ने तत्कालीन वाणिज्य मन्त्री श्री कमलनाथ के नेतृत्व में यहां तक कह दिया कि जब तक भारत व अन्य गरीब देशों के किसानों की आर्थिक हालत यूरोप व अमेरिकी किसानों जैसी नहीं होती तब तक ये देश अपने कृषि बाजारों को सीधी वैश्विक अर्थ व्यवस्था में नहीं झोंक सकते। इस मामले में वर्तमान वाणिज्य मन्त्री श्री पीयूष गोयल का दिमाग भी पूरी तरह साफ है। उन्होंने भी अमेरिका को साफ कर दिया है कि भारत अपने किसानों व डेयरी उद्योग की हर हालत में सुरक्षा करेगा। ट्रम्प बेशक बार-बार यह बोलते रहें कि उन्होंने ही विगत मई महीने में हुए भारत-पाकिस्तान के सैनिक संघर्ष को रुकवाया मगर यह नहीं कह सकते कि वह भारतीय हितों को ‘बलाए- ताक’ रखकर हिन्दुस्तान से वाणिज्य समझौता करेंगे।

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