भारत-बंगलादेश विवाद जारी
भारत और बंगलादेश के बीच का विवाद खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा…
भारत और बंगलादेश के बीच का विवाद खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। कुछ दिनों की शांति के बाद यह मुद्दा फिर से उभर आया है, इस बार पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग के रूप में। इस साल अगस्त में बंगलसदेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने भारत में शरण ली। यह कदम उन्होंने सरकारी नौकरियों में विवादास्पद कोटा प्रणाली के खिलाफ छात्रों के हफ्तों तक चले विरोध-प्रदर्शनों के बाद उठाया था। यह घटना ऐसे समय हुई जब उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में अपना चौथा कार्यकाल शुरू ही किया था। तब से वह भारत में हैं और इसे उन्होंने अपना ‘दूसरा घर’ बना लिया है। भारतीय सरकार ने भी उन्हें यहां रहने की अनुमति दी। बीते पांच महीनों से शेख हसीना भारत में अज्ञात स्थान पर रह रही हैं जो बांग्लादेश में यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार के लिए चिंता और नाराज़गी का कारण बन गया है।
पिछले सप्ताह बंगलादेश ने भारत से औपचारिक रूप से शेख हसीना को वापस भेजने की मांग की ताकि उनके खिलाफ मुकदमा चलाया जा सके। यह मांग बंगलादेश के अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण द्वारा उनके खिलाफ ‘मानवता के खिलाफ अपराध और नरसंहार’ के आरोप में गिरफ्तारी वारंट जारी करने के बाद की गई है। यह प्रत्यर्पण अनुरोध भारत को एक मुश्किल स्थिति में डालता है। भारत को एक पुरानी सहयोगी और अपने द्विपक्षीय संबंधों के बीच संतुलन बनाना होगा।
शेख हसीना के कार्यकाल के दौरान भारत और बंगलादेश के बीच संबंध मजबूत और स्थिर रहे। दोनों देशों के बीच कूटनीतिक रिश्ते मज़बूत हुए,कई क्षेत्रों में सहयोग बढ़ा और व्यापार अपने चरम पर पहुंच गया लेकिन जब नाेबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार सत्ता में आई तो इन रिश्तों में गिरावट आ गई। बंगलादेश में हिंदुओं पर हमले हुए, मंदिरों को तोड़ा गया और एक साधू को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।
इन घटनाओं पर भारत ने अपनी चिंता व्यक्त करने के लिए विदेश सचिव विक्रम मिसरी को भेजा। यह शेख हसीना के हटने के बाद भारत का बंगलादेश में पहला उच्च स्तरीय दौरा था। शेख हसीना ने यूनुस सरकार पर ‘नरसंहार’ करने और अल्पसंख्यकों, खासकर हिंदुओं की रक्षा करने में विफल रहने का आरोप लगाया। यह आरोप भारत सरकार की पुरानी चिंताओं से मेल खाता है लेकिन यह मामला केवल शेख हसीना का नहीं है, यह भारत के लिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। यह उस देश में हिंदुओं के उत्पीड़न के बारे में है जिसे भारत ने स्वतंत्रता दिलाने में मदद की थी। यह भारत-विरोधी भावना के पुनर्जीवित होने के बारे में है और इस धारणा के बारे में है कि भारत एक ‘दबंग पड़ोसी’ है और हसीना उसकी अधीनस्थ: जिसे बहुसंख्यक वर्ग एक ‘असमान संबंध’ के रूप में देखता है। जहां तक हिंदुओं के उत्पीड़न की बात है यह कोई नई बात नहीं है। भले ही बंगलादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों को शेख हसीना की अवामी लीग पार्टी का समर्थक माना जाता हो, उनके शासनकाल के दौरान भी वे आसान लक्ष्य बने रहे।
2021 में बंगलादेश में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी थी जिसमें सौ से अधिक मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था। उस समय भारत ने इन घटनाओं को नजरअंदाज करना चुना लेकिन इस साल जब दुर्गा पूजा के त्याैहारों को बंगलादेश में बाधित किया गया तो भारत सरकार ने इसे ‘सुनियोजित अपवित्रीकरण’ करार देते हुए कड़ी आलोचना की। हालांकि इस बार भारत की आपत्ति उचित थी लेकिन हसीना के शासनकाल में हुई सांप्रदायिक हिंसा पर भारत की चुप्पी ने मिश्रित प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया है और सवाल उठाए हैं।
क्या यह नज़रअंदाज़ किया जा सकता है कि भारत ने हसीना की सरकार का समर्थन करने में हद से ज्यादा कदम उठाए? भारत कैसे उस नेता का समर्थन जारी रख सकता है जिसके खिलाफ उसके देश में भावना पूरी तरह से विपरीत है? ऐसे में, क्या यह उचित नहीं है कि अंतरिम सरकार जिसे डॉ. मोहम्मद यूनुस चला रहे हैं, भारत को एक भरोसेमंद सहयोगी मानने से इंकार कर दे?
शुरुआत तो शेख हसीना को दी गई शरण से होती है जो अब सवालों के घेरे में है। जब उन्होंने अपने देश से भागकर शरण मांगी तो उनका पहला और स्वाभाविक विकल्प भारत ही था। उन्होंने शरण मांगी और भारत ने इसे मंज़ूरी दे दी। वैसे तो इस मामले में किसी का यह सुझाव देना उचित नहीं कि भारत को उन्हें, किसी सहयोगी या किसी पूर्व राष्ट्र प्रमुख को, जब उन्होंने सहायता के लिए दरवाज़ा खटखटाया तब वापस लौटा देना चाहिए था। जैसा कि एक सरकारी सूत्र ने कहा-किसी संकटग्रस्त व्यक्ति को शरण देना किसी भी पड़ोसी से अपेक्षित सम्मानजनक कदम है। इसके बावजूद मुद्दा अब शेख हसीना के लंबे और संभवतः अनिश्चितकालीन प्रवास का बन गया है।
जब शेख हसीना ने सत्ता से बेदखल होने के बाद भारत में कदम रखा तो इसे एक अस्थायी शरण के रूप में प्रस्तुत किया गया था। ऐसी खबरें थीं कि वह यूनाइटेड किंगडम में शरण लेने का प्रयास कर रही थीं लेकिन एक तकनीकी समस्या ने इस प्रक्रिया को रोक दिया। अगस्त में जब भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने शेख हसीना के अचानक दिल्ली आने की जानकारी संसद को दी तो उन्होंने कहा था कि यह अनुरोध ‘केवल फिलहाल के लिए’ था लेकिन अब यह मामला महीनों तक खिंच गया है और इसका कोई त्वरित समाधान नज़र नहीं आ रहा है। यह तथ्य कि भारत में शरणार्थियों के लिए कोई नीति नहीं है, सरकार को अपने जवाब में लचीलापन अपनाने की अनुमति देता है।
लेकिन यह भी सच्चाई है कि यह ‘लचीलापन’ शेख हसीना के पक्ष में काम कर रहा है और यह बात न तो भारत और न ही बंगलादेश में किसी से छुपी है। यदि कुछ है तो भारतीय सरकार पर यह आरोप लग रहा है कि वह इस ‘सुविधाजनक नीति’ का इस्तेमाल शेख हसीना को जितना चाहें उतना लंबे समय तक रुकने देने के लिए कर रही है।
जहां बंगलादेश ने पुष्टि की है कि उसने भारत को हसीना के प्रत्यर्पण के लिए राजनयिक नोट भेजा है, वहीं भारत ने इस मुद्दे पर ‘कोई टिप्पणी नहीं’ करने की बात कही है। संभावना है कि भारत इस अनुरोध पर निर्णय लेने में समय लेगा। यह भी संभव है कि भारत में अपने ‘मेहमानों का स्वागत करने की पुरानी परंपरा’ को भुनाए, जिसका उदाहरण दलाई लामा हैं।