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भारत, चीन और नेपाल

पूरी दुनिया को कोरोना वायरस का ‘तोहफा’ देने वाला चीन भारत को अपनी सीमा में ही सड़क बनाने से रोकना चाहता है और दूसरी तरफ नेपाल ने भी ऐसे तेवर अपना कर उत्तराखंड के धारचूला से लिपुलेख तक मानसरोवर यात्रा मार्ग की सड़क बनाने पर एतराज इस तरह किया है

01:24 AM May 22, 2020 IST | Aditya Chopra

पूरी दुनिया को कोरोना वायरस का ‘तोहफा’ देने वाला चीन भारत को अपनी सीमा में ही सड़क बनाने से रोकना चाहता है और दूसरी तरफ नेपाल ने भी ऐसे तेवर अपना कर उत्तराखंड के धारचूला से लिपुलेख तक मानसरोवर यात्रा मार्ग की सड़क बनाने पर एतराज इस तरह किया है

पूरी दुनिया को कोरोना वायरस का ‘तोहफा’ देने वाला चीन भारत को अपनी सीमा में ही सड़क बनाने से रोकना चाहता है और दूसरी तरफ नेपाल ने भी ऐसे तेवर अपना कर उत्तराखंड के धारचूला से लिपुलेख तक मानसरोवर यात्रा मार्ग की सड़क बनाने पर एतराज इस तरह किया है मानो यह इलाका उसकी भौगोलिक  सीमा में आता है। चीन के अन्दरखाने शह पर नेपाल के प्रधानमन्त्री के.पी. शर्मा औली इस तरह आपे से बाहर हुए कि उन्होंने भारत के राष्ट्रीय नीति सूत्र ‘सत्यमेव जयते’ को ‘सिंहमेव जयते’ बता दिया। नेपाल को ध्यान रखना चाहिए कि नेपाल में आज भी भारतीय सेना व सशस्त्र बलों के  रिटायर लगभग डेढ़ लाख गोरखा सैनिकों को भारत सरकार पेंशन देती है क्योंकि वे भारत के सम्मानित लड़ाकू फौजी रहे हैं। इतने अन्तरंग, गहरे व अटूट सम्बन्ध होने के बावजूद नेपाल के कम्युनिस्ट प्रधानमन्त्री ने भारत के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया कूटनीति की भाषा में उसे ‘नालायकी’ कहते हैं। 
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मगर नेपाल का रवैया पूरी तरह अस्वीकार्य इसलिए है क्योंकि कालापानी और लिपुलेख के इलाके पर भारत का दावा शुरू से रहा है और उसने द्विपक्षीय वार्ता के जरिये इसका किसी भी विवाद को हल करने का वादा कर रखा है। इस रोशनी में नेपाल की सरकार द्वारा अपने नक्शे में भारत के हिस्सों को दिखा देना अशोभनीय व निंदनीय है क्योंकि दोनों देशों के आपसी सम्बन्ध इतने प्रगाढ़ रहे हैं कि दोनों की सीमाएं खुली रहने के बावजूद कभी विवाद को तूल देने का प्रयास नहीं किया गया। नेपाल को यह भी याद रखना चाहिए कि जब इस देश में राजशाही के खिलाफ जन आन्दोलन हो रहा था तो भारत का रुख वहां के लोगों की इच्छा का सम्मान करने का था और उसने साफ कर दिया था कि भारत वही चाहता है जो नेपाल के लोग चाहते हैं।
 नेपाल में लोकतन्त्र स्थापित करने में भारत ने पूरा सहयोग किया और इसके विकास में भी स्वयं गरीब मुल्क होते हुए महती योगदान किया। भारत ने नेपाल की संप्रभुता का सदैव सम्मान किया और इसे सहोदरा भ्राता के रूप में स्वीकार किया। यदि नेपाल के रवैये में चीन के उकसाने पर यह बदलाव आ सकता है तो वहां की आम जनता को यह स्वीकार नहीं हो सकता क्योंकि नेपाल सांस्कृतिक तौर पर इस प्रकार गुंथा हुआ है कि हर वर्ष अयोध्या नगरी से भगवान रामचन्द्र की बारात इसके  जनकपुर नगर को जाती है। 
जहां तक चीन का सवाल है तो यह ‘सैनिक मानसिकता’ का देश है। यह पंडित जवाहर लाल नेहरू ने तब कहा था जब 1962 में चीन से पराजय के बाद उनकी सरकार के खिलाफ आचार्य कृपलानी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाये थे। पं. नेहरू ने तब कहा था कि शान्ति, प्रेम व भाइचारे की जगह चीन की सोच ‘फौजी जहनियत की है,  चीन पर यह नियम आज भी लागू होता है क्योंकि वह भारत को अपने ही इलाके में सड़क बनाने पर आपत्ति कर रहा है और फौजी मुक्कममुक्की को बढ़ावा दे रहा है। चीन जानता है कि कोरोना वायरस के मुद्दे पर वह पूरी दुनिया में अकेला पड़ चुका है क्योंकि अपने वुहान शहर में इस वायरस को जन्म देकर उसने इसका निर्यात पूरी दुनिया में कर डाला और वायरस से सम्बन्धित प्रारम्भिक जांच रिपोर्टों को छिपाया। विश्व स्वास्थ्य संगठन से इस सम्बन्ध में जांच करने की मांग करने वाले देशों में भारत भी शामिल है। इससे भी चीन खिसियाआ हुआ लग रहा है और इसने नेपाल के प्रधानमन्त्री श्री औली से यह कहलवा कर कि भारत का कोरोना चीन व इटली से भी ज्यादा खतरनाक है साबित कर दिया है कि इसका इरादा नेपाल को भी अपना पिट्ठू बनाने का है।
 पिछले दिनों जिस प्रकार नेपाल के प्रधानमन्त्री के नेतृत्व को उनकी कम्युनिस्ट पार्टी में चुनौती दी गई थी और उनकी सरकार को खतरा पैदा हो गया था। उस दौरान काठमांडौ स्थित चीनी  राजदूत की भूमिका नेपाल के अखबारों की सुर्खी बनी थी श्री औली उस एहसान का बदला चुकाने के लिए भारत के लोगों के साथ नेपाली नागरिकों के प्रगाढ़ व रोटी-बेटी के सम्बन्धों को धार पर नहीं रख सकते हैं। उन्हें चीन के इरादों को समझना होगा। मानसरोवर झील तिब्बत में पड़ती है और इसका रास्ता नेपाल से होकर भी जाता है और भारत से भी। भारत अपनी  राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं कर सकता अतः वह तिब्बत के पास अपने क्षेत्र में काराकोरम पास तक निचले इलाके तक जाने वाली सड़क का निर्माण अपने ही क्षेत्र में कर रहा है। मगर चीन अभी तक इसी गफलत में है कि यह 1962 चल रहा है! हालांकि 2006 में ही रक्षामन्त्री की हैसियत से पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न  श्री प्रणव मुखर्जी बीजिंग की धरती पर ही खड़े होकर कह आये थे कि ‘आज का भारत 1962 का भारत नहीं है’ लेकिन इसके बाद चीन भारत की अमेरिका के साथ बढ़ती मित्रता से परेशान रहने लगा जबकि भारत ने हमेशा कहा कि वह चीन के साथ दोस्ताना सम्बन्धों को प्राथमिकता देता है। लेकिन चीन एक तरफ पाकिस्तान को भारतीय उपमहाद्वीप में अपने कन्धे पर बैठा कर उसकी नापाक हरकतों को शह देता रहता है और दूसरी तरफ दक्षिण एशिया में अपना आर्थिक साम्राज्यवाद फैलाना चाहता है और तीसरी तरफ हिन्द महासागर क्षेत्र में सैनिक प्रतिस्पर्धा खोल देना चाहता है और साथ ही भारत को सीमा विवाद में उलझाये रखना चाहता है। जब दोनों देशों के बीच सीमा विवाद हल करने का विशेष वार्ता तन्त्र स्थापित हो चुका है और इसमें मोटे तौर पर यह स्वीकार कर लिया गया है कि सीमा पर जो इलाका जिस देश के प्रशासनिक नियन्त्रण में है वह उसी का माना जाना चाहिए तो चीन बार- बार नियन्त्रण रेखा का उल्लंघन करके क्या सिद्ध करना चाहता है?  जाहिर है उसकी विस्तारवादी नीयत की कोई सीमा नहीं है और वह सीमा पर भारत की सुरक्षा व्यवस्था में व्यवधान पैदा करके गफलत पैदा करना चाहता है। मगर अब उसने जिस तरह नेपाल का प्रयोग करना शुरू किया है वह गंभीर सवाल खड़े करता है। भारत को कूटनीतिक रास्तों से इसका हल निकालना होगा।
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