भारत, चीन और पाकिस्तान
इसमें किसी प्रकार से कहीं भी कोई शंका नहीं हो सकती कि ऑपरेशन सिन्दूर के तहत चली चार दिन की संक्षिप्त लड़ाई में भारतीय फौजों ने पाकिस्तान के छक्के छुड़ा दिये थे। इससे घबरा कर ही पाकिस्तान ने भारत से युद्ध विराम की याचना की थी। विगत 7 से 10 मई तक चले इस युद्ध में पाकिस्तान का साथ चीन ने इस प्रकार दिया कि उसके द्वारा पाकिस्तान को दी गई युद्ध सामग्री का भी परीक्षण हो गया। पाकिस्तान 81 प्रतिशत के लगभग अपनी जरूरत की आयुध सामग्री चीन से लेता है जिनमें लड़ाकू जहाज तक शामिल हैं। इसके साथ ही तुर्की ने भी पाकिस्तान को ड्रोनों की सप्लाई जमकर की और उन्हें चलाने वाले विशेषज्ञ भी सुलभ कराये। इस प्रकार भारत ने यह युद्ध तीन देशों के खिलाफ लड़ा जिसमें वह विजयी रहा और उसने पाकिस्तान के 9 आतंकी ठिकानों को तहस-नहस कर दिया जिसमें कुछ सैनिक अड्डे भी आॅपरेशन सिन्दूर की जद में आये। भारत की थल सेना के उपप्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल राहुल सिंह ने कल दिल्ली में फिक्की द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में इसी तथ्य का खुलासा किया है। उनके कथन से यह साफ हो गया कि चीन पाकिस्तान के कन्धे पर बन्दूक रख कर भारत को निशाना बना रहा था।
जहां तक तुर्की का सवाल है तो इस्लामी देश होने की वजह से इसने पाकिस्तान का साथ देना बेहतर समझा हालांकि दशकों पूर्व में तुर्की भारत का समर्थक देश रहा है मगर इस देश में जब से इस्लामी कट्टरपंथी सक्रिय हुए हैं तब से इसके रुख में परिवर्तन आना शुरू हुआ है। नहीं भूला जाना चाहिए कि यह मुस्तफा कमाल अतातुर्क का देश है जिन्होंने तुर्की को आधुनिक व वैज्ञानिक सोच वाला देश बनाने के लिए कड़ा संघर्ष पिछली सदी के तीसरे दशक में किया था। मुस्लिम बहुल होने के बावजूद कमाल अतातुर्क ने तुर्की को धर्म निरपेक्ष देश बनाया था और अपने देश में मस्जिदों के स्थान पर शिक्षा संस्थान स्थापित कराये थे। मगर दूसरी तरफ चीन एेसा देश है जिसकी निगाह 1949 में स्वतन्त्र होते ही तिब्बत पर थी और भारत के साथ सीमा विवाद पर उसका नजरिया विस्तारवादी था। पचास के दशक में पं. जवाहर लाल नेहरू के शासनकाल के दौरान जब चीनी प्रधानमन्त्री चाऊ एन लाई भारत की राजकीय यात्रा पर आये थे तो हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे लगे थे। मगर 1962 में इसकी विस्तारवादी नीयत साफ निकल कर बाहर आ गई और इसने भारत पर आक्रमण कर दिया। तब इसकी फौजें असम के तेजपुर तक आ गई थीं। चीन ने तब भारत की पीठ में छुरा घोपते हुए अचानक हमला किया था। चीन से दोस्ती के सबसे बड़े अलम्बरदार पं. जवाहर लाल नेहरू यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके और मई 1964 में उनकी मृत्यु हो गई। चीन के बारे में युद्ध के समय पं. नेहरू ने भारत की संसद में कहा था कि चीन की मानसिकता युद्ध या लड़ाकू किस्म ( मिलिट्री मांइडेड) की है। मगर पं. नेहरू गलती कर गये थे क्योंकि 1959 में ही चीन ने पूरे तिब्बत को अपने कब्जे में कर लिया था और यहां के लोगों पर साम्यवाद थोप दिया था। इसके बावजूद भारत ने 2003 तक तिब्बत को कभी चीन का अंग स्वीकार नहीं किया। यह कार्य 2003 में केन्द्र की सत्ता पर काबिज वाजपेयी सरकार ने किया और तिब्बत को चीन का अंग स्वीकार कर लिया। बदले में चीन ने सिक्किम को भारत का हिस्सा कबूल किया मगर इसके तुरन्त बाद अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा ठोकना शुरू कर दिया।
अतः चीन की नीयत का अन्दाजा लगाना कोई कठिन कार्य नहीं है। पाकिस्तान अपने जन्म से लेकर आज तक सभी एेसे काम करता आ रहा है जिनसे भारत को तकलीफ पहुंचे। 1962 में जब भारत-चीन से युद्ध हार गया तो इसने चीन के साथ नया सीमा समझौता किया और पाक अधिकृत कश्मीर का पांच हजार वर्ग कि.मी. हिस्सा उसे खैरात में दे डाला। यह जमीन रणनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है जिसे काराकोरम इलाका कहते हैं। इससे पाक अधिकृत कश्मीर का मसला और उलझ गया। पाकिस्तान आजकल चीन के आगोश में है और चीन उसकी हर संभव सैनिक व नागरिक मदद कर रहा है। दूसरी तरफ चीन लद्दाख की सीमा पर भारत से भी उलझा हुआ है और समुद्री सीमाओं तक में हिन्द महासागर में अपनी युद्ध पोतों की सैनिक शक्ति लगातार बढ़ा रहा है। मगर भारत ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली है उसने भी हिन्द-प्रशान्त महासागर क्षेत्र में जापान, आस्ट्रेलिया, अमेरिका के साथ क्वाड समूह में अपनी भागीदारी बना रखी है। मगर आज असल सवाल यह है कि यदि चीन पाकिस्तान की इसी प्रकार मदद करता रहा तो यह किराये की जमीन पर तामीर हुआ नाजायज व नामुराद मुल्क भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियां आगे-पीछे करने से बाज नहीं आयेगा। इसी वजह से प्रधानमन्त्री मोदी ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत में यदि आगे कोई भी पाक प्रयोजित आतंकवादी घटना होती है तो उसे भारत पर हमला समझा जायेगा और उसका कड़ा सैनिक उत्तर दिया जायेगा। लेफ्टिनेंट जनरल राहुल सिंह ने यह साफ करने की कोशिश की है कि पाकिस्तान अब चीन के लिए उसकी युद्ध सामग्री की प्रयोगशाला बन चुका है। अतः भारत के राजनैतिक नेतृत्व को इसका गंभीर संज्ञान लेते हुए अपनी रणनीति तैयार करनी चाहिए। मगर इसके साथ यह भी शीशे की तरह साफ है कि आॅपरेशन सिन्दूर राजनैतिक नेतृत्व की दृढ़ इच्छा शक्ति का ही परिणाम है और यह अभी समाप्त नहीं हुआ है।