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द्रौपदी मुर्मू में भारत खुद को देखता है

06:57 AM Jul 09, 2025 IST | Prabhu Chawla
द्रौपदी मुर्मू में भारत खुद को देखता है

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू कई पूर्ववर्तियों से अलग हैं। तीन वर्ष से भी कम के राष्ट्रपतिकाल में उनके 203 दिन यात्रा करते हुए बीते हैं, इस दौरान उन्होंने 110 दौरे किये, जिनमें से 11 दौरे उनके गृहराज्य ओडिशा के थे तो विभिन्न अवसरों पर 34 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के थे, जो बतौर राष्ट्रपति एक रिकॉर्ड है, द्रौपदी मुर्मू में भारत खुद को देखता है। विगत 30 जून को प्राचीन शहर गोरखपुर सिर्फ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मेजबानी के लिए तैयार नहीं हो रहा था, वह और भी बहुत कुछ का गवाह बना। मानसून के बादल भरे आकाश के नीचे महामहिम ने गोरखपुर मंदिर के गर्भगृह में सिर्फ प्रार्थना के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए प्रवेश किया। उनका दौरा राष्ट्रपति का रूटीन दौरा नहीं था, यह जनता के भरोसे, बेहतर प्रशासन और देश के नैतिक भूगोल के बीच हो रही खामोश क्रांति की पुष्टि से जुड़ा अनुष्ठान था तुरंत स्वतंत्र हुए भारत के मंदिरों में खाली पैर प्रवेश करने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद या अनाम शहरों के युवा मानस को प्रेरित करने वाले एपीजे अब्दुल कलाम की तरह ही द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपतिकाल संवैधानिक कद और लोकप्रिय प्रतीकवाद का दुर्लभ मिश्रण है।

राष्ट्रपति के आधिकारिक दौरे सिर्फ कैलेंडर की शोभा नहीं बढ़ाते, वे देश के भावनात्मक और राजनीतिक भूगोल का फिर से नक्शा खींचते हैं, और इस प्रक्रिया में हाशिये पर रहने वाले लोगों को देश के हृदय प्रदेश में ले आते हैं। द्रौपदी मुर्मू कई पूर्ववर्तियों से अलग हैं, तीन वर्ष से भी कम के राष्ट्रपतिकाल में उनके 203 दिन यात्रा करते हुए बीते हैं। इस दौरान उन्होंने 110 दौरे किये, जिनमें से 11 दौरे उनके गृहराज्य ओडिशा के थे, तो विभिन्न अवसरों पर 34 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के थे जो बतौर राष्ट्रपति एक रिकॉर्ड है। ये आनुष्ठानिक दौरे तो कतई नहीं थे। इन यात्राओं में राज्य की राजधानियों और अंतर्राष्ट्रीय मंचों का जितना महत्व था, उतना ही महत्व भूले-बिसरे शहरों, दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों और छोटे विश्वविद्यालयों को मिला। इनके राष्ट्रपतिकाल का महत्व रेखांकित करने के लिए इन्हें उनके पूर्ववर्तियों के आईने में देखा जाना चाहिए। हमारे यहां सर्वपल्ली राधाकृष्णन और डॉ. जाकिर हुसैन जैसे राष्ट्रपति हुए हैं, जिनकी मेधा चकित करती थी।

राधाकृष्णन ने ऑक्सफोर्ड में गीता पर अद्भुत व्याख्यान दिया था, तो डॉ. जाकिर हुसैन हिंदुस्तानी संस्कृति और प्राथमिक शिक्षा के अधिकारी विद्वान थे। यहां केआर नारायणन जैसे संवैधानिक शुद्धतावादी भी हुए, जिन्होंने अस्थिरता को बढ़ाना देने वाली सरकार की नीति को अनुमोदित करने से इन्कार कर दिया। ऐसे ही एपीजे अब्दुल कलाम की यात्राएं महत्वपूर्ण चाहे कितनी भी क्यों न रही हों, वे द्रौपदी मुर्मू की यात्राओं के विशाल दायरे या उनकी गहन प्रतीकात्मकता को अतिक्रमित नहीं कर पायीं। कलाम जहां महत्वाकांक्षा जगाते थे, मुर्मू खोयी गरिमा की बहाली करती हैं। कलाम की यात्रा जहां भविष्योन्मुखी थी, मुर्मू खुद को विस्मृत अतीत की जमीन से जोड़ती हैं। उनमें आदिवासी इतिहास, अकालों का इतिहास और सीमांत का इतिहास है, जिन्हें राष्ट्रीय विमर्श ने बिसरा दिया है।

कर्नाटक से पूर्वोत्तर, तमिलनाडु से तेलंगाना तक और केरल से आंध्र प्रदेश तक-उनकी यात्राएं सिर्फ प्रोटोकॉल का हिस्सा नहीं हैं, इन जगहों में उनकी उपस्थिति एक श्रद्धालु की उपस्थिति है। अपने गृह राज्य ओडिशा में उन्होंने आदिवासी इलाकों में रेल पटरियों की नींव रखीं और मूर्तियों, मंदिरों तथा छात्रावासों का उद्घाटन किया। उन्होंने चेन्नई में लड़कियों की एक यूनिवर्सिटी का उद्घाटन किया जो मयूरभंज के संताल गांव से राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने की उनकी उपलब्धि की तरह ही प्रेरित करने वाला था। उनकी हर यात्रा कैनवास पर खींची गयी रेखाओं की तरह है, एक साथ मिलने पर उनसे एक ऐसे गणतंत्र का चित्र बनता है जो देख, सुन और जोड़ सकता है। बेशक यहां एक ठोस राजनीतिक संदेश भी है। उनका राष्ट्रपति पद सांस्कृतिक दृढ़ कथन, जमीनी स्तर पर एकीकरण और क्षेत्रीय मजबूती के भाजपा के नजरिये से कहीं खुलेआम, तो कहीं अस्पष्ट रूप से जुड़ा हुआ है। इस तरह से वह एक प्रतीक भी हैं और शक्ति भी। उनका अभियान बताता है कि गणतंत्र की आत्मा लोगों को बाहर करके नहीं, समावेशन से आकार लेती है।

उन्होंने राष्ट्रपति की दृष्टि को दिल्ली के लुटियंस जोन से आगे ले जाकर असम के चाय बागानों, ओडिशा के आदिवासी गांवों और बरेली के यूनिवर्सिटी हॉल तक विस्तार दिया है, उनकी यात्राएं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा समावेशी हिंदुत्व के विमर्श निर्माण के प्रयासों के अनुरूप है, जहां आदिवासी विरासत, महिला सशक्तिकरण और ढांचागत प्रगति, सभी को भगवा कैनवास में जगह मिलती है लेकिन मुर्मू को भाजपा का शुभंकर समझ लेना गलत होगा। उन्होंने गणतंत्र के आध्यात्मिक प्रयोजन को उसकी समुचित जगह दी है। वेदमंत्रों का उच्चारण और स्नातक के प्रमाणपत्रों का पाठ वह एक समान सहजता से करती हैं। जितनी सहजता से वह मैसुरू के दशहरा में हाथी की पीठ पर आसीन होती हैं, उसी सहजता से कोलकाता में रवींद्र संगीत का आनंद लेती हैं, कुछ दूसरे राष्ट्रपतियों ने जहां दूरी बनाने को कला की तरह विकसित किया, वहीं द्रौपदी मुर्मू ने परिचय और नजदीकी पर भरोसा किया। उनके सफरनामे में कई बुनियादी प्रश्नों के उत्तर हैं। जैसे भारतीय कौन है? भाषणों से नहीं, अपनी गतिविधियों से वह इसका उत्तर देती हैं, यहां का हरेक व्यक्ति भारतीय है।

तब यह बहुत महत्वपूर्ण है, जब राज्य का रवैया वात्सल्यपूर्ण से ज्यादा दंडात्मक लगता है। जब संस्थान केंद्रीकृत होते जा रहे हैं और असहमति का दायरा सिकुड़ रहा है, तब समावेशन के जरिये वह मिसाल पेश कर रही हैं, अपनी ही सरकार पर सवाल उठाने वाले पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के विपरीत द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रपति पद के भावनात्मक दायरे को विस्तार दिया है। वह टकराती नहीं, बल्कि संस्कारित करती हैं। उन्होंने राष्ट्रपति पद को गतिमान, आडंबरहीन और अर्थपूर्ण बनाया है। वह सिर्फ जिलों का दौरा नहीं करतीं, महत्वाकांक्षाओं को प्रेरित करती हैं। वह सिर्फ उद्घाटन के फीते नहीं काटतीं, भविष्य बोती हैं। राष्ट्रपति मुर्मू के कार्यकाल के बेशक करीब तीन साल बचे हैं, लेकिन उनकी विरासत अमिट हो चुकी है। शीशे की आदमकद प्रतिमा या पोर्ट्रेट में नहीं, बल्कि दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों की रेल पटरियों में, पहली पीढ़ी के स्नातकों को सौंपे गये कॉनवोकेशन मेडल्स में और उन बच्चों की मुस्कराहटों में, जिन्होंने पहली बार देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर अपने जैसे किसी को पाया है।

राष्ट्रपति का ओहदा, जाहिर है, शक्ति का नहीं, अपनी उपस्थिति जताने का मामला है। राष्ट्रपति भवन में मुर्मू की उपस्थिति राजनीतिक नहीं, दार्शनिक उपस्थिति है, जो याद दिलाती है कि भारत क्या है और उसे क्या होना चाहिए जाहिर है, भारत भूगोल से ज्यादा एक नैतिक विचार है। राष्ट्रपति भवन कभी औपनिवेशिक शक्ति और उसकी भव्यता का प्रतीक था लेकिन अब वह महत्वाकांक्षा, समानता और प्राचीन गौरव की बात करता है। द्रौपदी मुर्मू में भारत एक राष्ट्रपति को नहीं, स्वयं को देखता है।

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