भारत की शिक्षा व्यवस्था !
स्वतन्त्र भारत में शिक्षा व्यवस्था को लेकर समय-समय पर संशोधन होते रहे हैं। इन संशोधनों में सबसे बड़ा परिवर्तन 1991 में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद आया जब शिक्षा पूरी तरह बाजार से बंध गई, खासकर उच्च शिक्षा प्रणाली। अर्थव्यवस्था के बाजार मूलक होने का असर शिक्षा प्रणाली पर इस प्रकार पड़ा कि हमारे विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षा की दुकानों के रूप में विकसित होने लगे। इसका सबसे बुरा असर समाज के गरीब वर्गों पर पड़ा क्योंकि महंगी होती शिक्षा का भार वहन कर पाने में यह वर्ग पूरी तरह असमर्थ साबित हुआ। शिक्षा को ‘महादान’ समझने वाली भारतीय संस्कृति में धन का प्रभाव जब आया तो शिक्षा मन्दिरों का स्वरूप शिक्षा की दुकानों में तब्दील होने लगा। आजादी मिलने के बाद हमने जो शिक्षा व्यवस्था खड़ी की थी उसमें राज्य या सत्ता की भागीदारी प्रमुख थी। आर्थिक उदारीकरण ने इस क्रम को इस प्रकार पलटा कि शिक्षा का क्षेत्र अच्छा मुनाफा कमाने वाला उद्योग बनता चला गया।
भारतीय संस्कृति में शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों को पुण्य कमाने वाला क्षेत्र माना जाता था जिसमें गरीब लोगों को इसे पाने में समाज के धनी वर्गों की बड़ी भागीदारी होती थी जिसे खैरात के रूप में दिया जाता था। परन्तु आर्थिक उदारीकरण ने इस विचार को पूरी तरह उल्टा घुमा दिया और शिक्षा का मोल-तोल होने लगा। राज्य लोगों को शिक्षित करने की अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हुआ परन्तु इसके बावजूद 2009 में मनमोहन सरकार के दौरान तत्कालीन शिक्षामन्त्री श्री कपिल सिब्बल ‘शिक्षा का अधिकार’ लेकर आये और 14 वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बच्चे को शिक्षित करने की जिम्मेदारी राज्य पर डाली गई। इससे सरकारी क्षेत्र के स्कूलों पर भार पड़ा मगर इन स्कूलों की हालत देखकर आम गरीब वर्ग भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाने की तरफ लालायित हुआ। आर्थिक उदारीकरण के दौरान शिक्षा के निजीकरण का कुप्रभाव सबसे ज्यादा शिक्षक व विद्यार्थी के रिश्ते पर पड़ा। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने विद्यार्थी को एक उपभोक्ता तक बना डाला और शिक्षक को अच्छी तनख्वाह पर काम करने वाला व्यक्ति। स्कूलों की गुणवत्ता इसी आधार पर तय होने लगी जिसकी वजह से गरीब तबके के लोगों की मुसीबतें और बढ़ती चली गईं। यह मुसीबत तब और बढ़ी जब शिक्षकों का ध्यान अधिक से अधिक धनोपार्जन पर केन्द्रित होने लगा। जिस भारत में शिक्षक को देवता की संज्ञा दी जाती थी उसी भारत में शिक्षक का रुतबा एक वेतनभोगी कर्मचारी का बनता चला गया। मगर निजीकरण की वजह से सबसे ज्यादा दीन-हीन भी शिक्षक ही बना और निजी विद्यालय उसका शोषण तक करने से बाज नहीं आये। इसका रास्ता शिक्षकों ने प्राइवेट ट्यूशन के रूप में निकाला। जिस देश के निजी विद्यालयों में शिक्षक का वेतन देते समय दोहरा मापदंड अपनाया जाता हो उस देश की शिक्षा का स्तर कभी ऊपर नहीं उठ सकता। निजी विद्यालय शिक्षकों से ऊंचे वेतनमान पर दस्तखत कराकर उनके हाथ में एक चपरासी से भी कम वेतन की रकम पकड़ा देते हों वहां कभी भी शिक्षक व विद्यार्थी के बीच रिश्ते मीठे नहीं हो सकते।
हमने शिक्षा का निजीकरण करने में पश्चिमी देशों की नकल तो की परन्तु हम उन्हीं देशों की इस परंपरा को भूल गये कि इन देशों में से अधिसंख्य में दसवीं तक की शिक्षा प्रत्येक विद्यार्थी को मुफ्त दी जाती है और यह राज्य की जिम्मेदारी होती है। इसके साथ ही इन देशों के महानगरों से लेकर गांवों तक में हर विद्यार्थी को अपने पड़ोस के स्कूल में दाखिला दिया जाता है। भारत में शिक्षा को राज्यों की सूची में रखा गया है जबकि उच्च शिक्षा समवर्ती सूची में है। राज्य स्तर पर हर राज्य में हमें शिक्षा का स्तर अलग नजर आता है जिसकी वजह से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई राज्यों के विद्यार्थी पिछड़ जाते हैं। उनकी प्रतिभा का इससे क्षरण होता है। जबकि भारत एक एेसा राज्यों का संघ देश है जिसके हर प्रदेश के नागरिक को एक समान अधिकार मिले हुए हैं। इसके लिए जरूरी है कि हर राज्य का शिक्षा स्तर एक समान हो जिससे गरीब वर्ग के लोगों के बच्चों की प्रतिभा का सही मूल्यांकन हो सके।
समाजवादी चिन्तक डाॅ. राम मनोहर लोहिया भारत में शिक्षा के स्तर व इसमें गरीबों की भागीदारी को लेकर बहुत चिन्तित रहते थे। उनका मानना था कि पैसे की कमी की वजह से गरीब-पिछड़े वर्ग के विद्यार्थी जीवन की दौड़ में भी बहुत पीछे रह जाते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि चपरासी का बेटा चपरासी बनता है और अफसर का बेटा अफसर। स्वतन्त्र होने पर हम लक्ष्य लेकर चले थे कि गरीब चपरासी का बेटा भी शिक्षा पाकर अफसर बने। यह तभी होगा जब चपरासी और अफसर के बेटे की शिक्षा एक समान होगी क्योंकि समान अवसर मिलने पर ही विद्यार्थी की प्रतिभा का सही मूल्यांकन हो सकता है। इसके बिना यह कैसे संभव है कि किसी किसान का बेटा वैज्ञानिक बन सके। अतः पूरे भारत में शिक्षा की एकरूपता बहुत जरूरी है मगर इसका मतलब यह नहीं कि प्रदेश स्तर पर छात्र अपनी क्षेत्रीय संस्कृति से अनभिज्ञ रह जाएं। क्षेत्रीय परिस्थितियों को शिक्षा में समायोजित करने हेतु ही भारत के संविधान में शिक्षा को राज्य सूची में रखा गया था। अतः बहुत स्पष्ट है कि पूरे भारत के हर स्कूल में शिक्षा का एक स्तर बनाये रखने हेतु राज्य ही कारगर कदम उठाये। मगर हर वर्ष 5 सितम्बर आता है और इस दिन को हम शिक्षक दिवस के रूप में मना कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। यह भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिवस होता है, जो कि एक महान दार्शनिक थे। डाॅ. राधाकृष्णन आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाते भी थे। अतः उनके जन्म दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाना शिक्षकों का सम्मान करने जैसा है। मगर हम उस प्राइमरी स्कूल के अध्यापक का क्या करेंगे जो पूरी नई पीढि़यां तैयार करता है। हम उस शिक्षक को कितना वेतन देते हैं जबकि उसका कार्य सबसे कठिन होता है। डाॅ. लोहिया के विचार से किसी कालेज प्रोफेसर और प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक के वेतन में ज्यादा अन्तर नहीं होना चाहिए। शिक्षक का व्यवसाय पकड़ने वाले व्यक्ति का समाज में सम्मान किसी गांव के प्रमुख या शहर के निगम सदस्य से कम नहीं होना चाहिए और इसी के अनुरूप उसका वेतन भी तय होना चाहिए।