भारत की श्रम संहिताएं व बढ़ेगा रोजगार
जैसे विश्व भर के देश प्रतिभाओं के लिए अपने भीतर देख रहे हैं। ऐसे में भारत को भी औपचारिक, औचित्यपूर्ण और गरिमामय रोजगार पैदा कर आगे बढ़ना होगा। समूची दुनिया में आव्रजन को लेकर चिंता, अर्थव्यवस्थाओं और राजनीतिक व्यवस्थाओं को नया स्वरूप दे रही है। वैश्विक प्रतिभाओं का स्वागत करने वाले देश अब बदल रहे हैं, वे वैश्विक प्रतिभाओं के लिए पुल बनाने के बजाय अवरोध पैदा कर रहे हैं। उन्होंने प्रतिभाओं की तलाश अपने अंदर ही शुरू कर दी है। भारत इस बदलती हुई दुनिया में संपन्नता के लिए सिर्फ प्रतिभाओं के निर्यात पर निर्भर नहीं रह सकता। हमें उत्पादन के साथ ही अवसरों के लिहाज से भी आत्मनिर्भर बनना होगा। मार्टिन लूथर किंग (जू०) ने एक समय कहा था, "मानवता को ऊपर उठाने वाले हर श्रम की गरिमा का और महत्व है। इसे श्रमसाध्य उत्कृष्टता के साथ किया जाना चाहिए।" भारत की नई श्रम संहिताएं इस आदर्श को जमीन पर उतारने की दिशा में एक कदम है। भारत का श्रम परिवेश वर्षों में पैबंदों वाली दरी के समान रहा है। देश के 29 श्रम कानून बेशक अच्छे इरादे में लाए गए हों लेकिन सब मिल कर अस्पष्टता पैदा करते रहे थे। सरकार ने इन कानूनों को वेतन, औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा और कार्यस्थल सुरक्षा की चार संहिताओं में पिरो देने का फैसला किया।
यह कदम सिर्फ एक प्रशासनिक सुधार नहीं है। आधुनिकीकरण के इस अभियान में स्वीकार किया गया है कि संरक्षण और उत्पादकता को एक साथ मिलकर बढ़ना चाहिए। इम सुधार का संबंध दृश्यता से है। नियुक्तिपत्र, वेतन की पर्ची और डिजिटल रिकॉर्ड के बिना कामगार, सरकार और बाजार दोनों की ही नजरों से ओझल रहता है। औपचारीकरण इस स्थिति में बदलाव लाता है। वेतन को ही लें। भारत में विभिन्न राज्यों और उद्योगों की अलग-अलग हजारों न्यूनतम मजदूरी दरें थीं। आस-पड़ोस के जिलों के कामगारों तक को एक ही काम के लिए काफी अलग-अलग रकम मिलती थी। वेतन संहिता में मजदूरियों की एक समान परिभाषा के साथ राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी स्थापित की गई। अब कंपनियां वेतन या लाभ की समानता से समझौता किए बिना नियुक्ति कर सकती हैं। कर्मचारियों के लिए लचीलेपन का मतलब अब असुरक्षा नहीं है। पुनर्कोशल निधि का निर्माण प्रतिक्रियात्मक कल्याण से सक्रिय रोजगार की ओर बदलाव का संकेत है। नौकरी छूटने का मतलब अब चट्टान से गिरना नहीं है, यह नया सीखने और पुनः प्रवेश करने का एक सेतु बन जाता है। सामाजिक सुरक्षा संहिता वह मानती है कि भारत का कार्यबल अब फैक्टरियों तक ही सीमित नहीं है।
ड्राइवर, डिलीवरी पार्टनर और फ्रीलांसर जैसे काम डिजिटल अर्थव्यवस्था के नए निर्माता हैं और अब सुरक्षा के दायरे में भी हैं। यह स्वीकार करते हुए कि काम की प्रकृति बदलती रहती है लेकिन सुरक्षा की जरूरत नहीं बदलती, नए प्लेटफॉर्म उनके कल्याण के लिए केंद्रीय कोष में योगदान देंगे। प्रवासी मजदूर, जिन्हें लंबे समय से अपने ही देश में बाहरी समझा जाता रहा है। जब जहां भी वे काम करते हैं, कल्याणकारी लाभ प्राप्त कर सकेंगे। यह समावेशन का वास्तविक रूप कहा जा सकता है। सरलीकरण को शायद सबसे कम होने वाले लाभ के रूप में आंका गया है। अब 29 की बजाय एक पंजीकरण, एक लाइसेंस, एक रिटर्न भरना है। निरीक्षक अब सुविधा प्रदाता हैं। अनुपालन की बातचीत दंड की बजाए साझेदारी की ओर बढ़ रही है। विश्वभर के देश प्रतिभाओं के लिए अपने अंदर की ओर देख रहे हैं। भारत को अपनी घरेलू श्रम प्रणाली को मज़बूत करना होगा जो पारदर्शी, सुवाह्म और निष्पक्ष हो। इन सुधारों का असली फायदा तब महसूस होगा जब भारत का विकास न केवल ज्यादा रोजगारों से, बल्कि बेहतर औपचारिक, उच्च-वेतन और सम्मानजनक रोज़गार में भी प्रेरित हो। इन सुधारों का अगर सावधानी और निरंतरता के साथ क्रियान्वयन किया जाए, तो ये सुधार भारत की कार्यप्रणाली को नया रूप दे सकते हैं।
ये अनौपचारिकता को समावेशिता में और काम को गरिमा में बदल सकते हैं। इसको सही रूप में व्यक्त करने के लिए कर्नाटक के 12वीं सदी के बासवन्ना के इस शाश्वत संदेश "कायाकावे कैलासा" काम ही स्वर्ग है से बेहतर शायद ही कोई और विचार हो। नई श्रम संहिताएँ इसी भावना को आगे बढ़ाती हैं कि गरिमा पद में नहीं, बल्कि प्रयास में निहित है। क्योंकि अंततः सुधार की असली परीक्षा उसके पारित होने में नहीं, बल्कि उसको व्यवहार में लाने पर होती है।

Join Channel