भारत की वोट क्रान्ति और चुनाव आयोग
भारत के बहुत से राजनैतिक पंडितों का मत है कि देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान हुई वोट क्रान्ति का सही मूल्यांकन स्वतन्त्रता के बाद नहीं हुआ है जिसकी वजह से भारत के लोगों को मिली राजनैतिक स्वतन्त्रता व बराबरी का मूल्यांकन भी समुचित तरीके से नहीं हो सका है। भारत के लोगों को बिना किसी भेदभाव के मिला एक वोट का अधिकार एक एेसी अहिंसक क्रान्ति थी जिसके जरिये भारत में राजा व रंक का न केवल भेद मिटा बल्कि हर गरीब आदमी को स्वतन्त्र भारत में संप्रभुता का अधिकार भी प्राप्त हुआ क्योंकि उसके एक वोट की कीमत किसी राजा के वोट के बराबर थी। इसकी मार्फत वह इस स्वतन्त्र देश के भाग्य का निर्माता तो बना ही साथ ही अपने भाग्य का निर्माता भी बना। वह अपने वोट की ताकत से सत्ता बना भी सकता था और बिगाड़ भी सकता था। हर पांच साल बाद इसका उपयोग करके वह अपनी मनपसन्द की सरकार का गठन करता था जो उसी के प्रति जवाबदेह होती थी।
यह कल्पना महात्मा गांधी की थी क्योंकि वह भारतीयों के मन से गुलामी की भावना को जड़ से दूर करना चाहते थे। मगर इस अधिकार को पाने के लिए भारत के लोगों ने कड़ा संघर्ष किया और हमारी पुरानी पीढि़यों ने अंग्रेजों की जेलों की यातनाएं सही व लाठी-डंडे व गोलियां तक खाईं। अंग्रेज तो समझते थे कि भारत जैसे विभिन्न जातीय समूहों व वर्गों तथा सम्प्रदायों वाले जमघट के बने समुच्य के लोगों को अपना संविधान तक लिखने का सऊऱ नहीं है। महात्मा गांधी ने उनकी इस चुनौती को स्वीकार किया और 1928 में स्व. मोती लाल नेहरू के नेतृत्व में एक संविधान लिखने वाली समिति का गठन किया जिसमें उस समय के भारत के लगभग सभी मान्य समूहों को शामिल करने की कोशिश की गई। मगर जिन्ना की मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया और वह इसमें शामिल नहीं हुई जबकि बहुत से मुस्लिम नेता इसमें व्यक्तिगत हैसियत से शामिल हुए।
इस समिति के सदस्यों में पं. जवाहर लाल नेहरू भी थे और नेता जी सुभाष चन्द्र बोस भी। समिति ने जो अपनी रिपोर्ट दी वह अंग्रेजों की आंखें खोल देने वाली थी। समिति ने सबसे पहले भारत को अंग्रेजों की अवधारणा के विरुद्ध एक संघीय ढांचे का देश बताया जिसमें राज्यों व केन्द्र के बीच समन्वय स्थापित करने के विभिन्न प्रावधान बताये। राज्यों व केन्द्र सरकार के अधिकारों की सूची का बंटवारा किया और सबसे ऊपर भारत के प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना किसी भेदभाव के एक वोट का अधिकार देने की अनुशंसा की।
नागरिकों को मौलिक अधिकार देने की बात इसकी रिपोर्ट में कही गई। इसके बाद 1931 में कराची में कांग्रेस पार्टी का अधिवेशन हुआ जिसकी अध्यक्षता सरदार वल्लभ भाई पटेल ने की। इस अधिवेशन में प्रस्ताव पारित हुआ कि नागरिकों को मौलिक अधिकार दिये जायेंगे और स्वतन्त्र भारत में चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होंगे। वास्तव में यह एेसा सिंह नाद था जिसकी आवाज से तत्कालीन ब्रिटिश संसद भी हिल उठी थी। इसके हाऊस आफ लार्डस में 1932 में दो अंग्रेज विद्वानों ने कहा कि भारत ने एेसे अंधे कुएं में छलांग लगाने का फैसला कर लिया है जिसके बारे में किसी को कुछ नहीं पता कि उसमें क्या है। इस पर महात्मा गांधी ने प्रतिक्रिया दी कि भारत के लोग अनपढ़ और गरीब हो सकते हैं मगर वे मूर्ख नहीं हैं क्योंकि उनका व्यावहारिक जीवन सामान्य ज्ञान से भरा होता है। गांधी की यह भविष्यवाणी कालजयी साबित हुई क्योंकि स्वतन्त्र भारत के चुनाव इतिहास में हम देखते हैं कि हर चुनाव में भारत के लोगों ने परिपक्वता का परिचय दिया और भारत को स्थिर व दूरदर्शी सरकारें दीं। बेशक कुछ समय के लिए राजनैतिक अस्थायित्व का भी वातावरण रहा मगर वह लम्बे समय तक नहीं चल सका।
भारत की एक और विशेषता है कि यहां राजनैतिक नेतृत्व की विश्वसनीयता कभी खतरे में नहीं आयी। यदि इस पर कुछ समय के लिए प्रश्नचिन्ह लगा भी तो लोगों ने इसका परिमार्जन अपनी राजनैतिक चतुराई से करने में सफलता भी प्राप्त की। यह सब कार्य भारत के लोगों को मिले एक वोट के अधिकार के बूते पर ही हुआ। परन्तु वर्तमान में भारत में बहस इसी एक वोट के अधिकार को लेकर हो रही है और चुनाव आयोग विवाद के केन्द्र में बना हुआ है। भारत में चुनाव आयोग का गठन ही इसीलिए किया गया जिससे लोगों का एक वोट का अधिकार अक्षुण्य बना रहे लेकिन यह काम चुनाव आयोग मतदाता सूची की मार्फत ही करता है और फिलहाल खबरें मिल रही हैं कि चुनाव आयोग पूरे देश में मतदाता सूची का सघन पुनर्रीक्षण करना चाहता है। इसने हाल ही में बिहार में भी एेसा ही अभियान चलाया था जो बहुत अधिक विवादास्पद रहा। विवाद का प्रमुख कारण यह रहा कि चुनाव आयोग मतदाताओं की नागरिकता की जांच करने का प्रयास कर रहा था जो कि उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात है।
भारत चूंकि संविधान से चलने वाला देश है और संविधान कहता है कि मतदाता या किसी भी भारतीय की नागरिकता की पहचान करने का अधिकार केवल गृह मन्त्रालय को ही है। चुनाव आयोग का मुख्य काम यह देखना है कि गरीब से गरीब और अमीर से अमीर भारतीय का नाम भी मतदाता सूची में दर्ज हो। इसके लिए वह मतदाता से उसकी पहचान पूछ सकता है मगर उसके भारतीय होने पर सवालिया निशान नहीं लगा सकता क्योंकि कोई भी वयस्क नागरिक केवल तभी मतदाता बन सकता है जब वह चुनाव आयोग के समक्ष यह कसम खाता है कि वह भारत का जायज नागरिक है। उसकी नागरिकता को चुनौती देने का काम राज्य का है।
बिहार में नागरिकों की पहचान के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि वह उनके आधार कार्ड को पुख्ता सबूत माने और उसके आधार पर उनके निवास का प्रमाण जाने। सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश केवल बिहार तक ही सीमित होकर रह जायेगा एेसा नहीं है क्योंकि संविधान की नजर में हर राज्य के नागरिक के अधिकार एक समान ही होते हैं। अतः यदि चुनाव आयोग राष्ट्रीय स्तर पर मतदाता सूची का सघन पुनर्रीक्षण कराने की तैयारी कर रहा है तो उसे आधार कार्ड को एक पहचान मानने के लिए तैयार रहना होगा। चुनाव आयोग को यह भी विचार करना होगा कि भारत के नागरिकों को एक वोट का अधिकार दिलाने के लिए गुलाम भारत में ही महात्मा गांधी ने क्रान्ति कर दी थी। चुनाव आयोग का भी यह कर्त्तव्य बनता है कि वह किसी भी भारतीय से उसका वोट देने का अधिकार तभी छीनने का प्रयास करे जबकि सारे सबूत उसके अपने पक्ष में बोलते हुए लगें। क्योंकि स्वतन्त्र भारत में चुनाव आयोग को ही नागरिकों के एक वोट के अधिकार का संरक्षक बनाया गया है। यह अधिकार बहुत पवित्र भी है क्योंकि इसी के आधार पर भारत में सरकारों का गठन होता है। महात्मा गांधी साधन और साध्य की पवित्रता पर बहुत जोर दिया करते थे। चुनाव आयोग को भी इस सिद्धान्त को ध्यान में रखना होगा।