W3Schools
For the best experience, open
https://m.punjabkesari.com
on your mobile browser.
Advertisement

इन्दिरा गांधी और राम जन्मभूमि

जिसके शीर्ष नेता तब आजादी की लड़ाई की अगुवाई करने के पुण्य के प्रतिफलों पर ही आश्रित रह कर भारत की आम जनता का नेतृत्व करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने लगे थे।

03:47 AM Nov 19, 2019 IST | Ashwini Chopra

जिसके शीर्ष नेता तब आजादी की लड़ाई की अगुवाई करने के पुण्य के प्रतिफलों पर ही आश्रित रह कर भारत की आम जनता का नेतृत्व करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने लगे थे।

इन्दिरा गांधी और राम जन्मभूमि
Advertisement
19 नवम्बर का दिन भारतीयों के लिए खास महत्व रखता है क्योंकि इसी दिन उस इन्दिरा गांधी का जन्म हुआ था जिन्हें स्वतन्त्र भारत की अभी तक की सबसे, शक्तिशाली प्रधानमन्त्री इसलिए कहा जाता है कि उन्होंने भारत की भौगोलिक सीमाओं से लेकर वैज्ञानिक शक्ति और कृषि आत्मनिर्भरता से लेकर आन्तरिक राष्ट्रीय एकता में न केवल विस्तार किया था बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की अन्तर्निहित सामरिक सकल सामर्थ्य का भी अभूतपूर्व प्रदर्शन मजहब के नाम पर 1947 में भारत को तोड़ कर तामीर किये गये पाकिस्तान को बीच से दो हिस्सों में चीर कर किया था।
Advertisement
चाहे 1971 में बांग्लादेश का उदय हो या 1972 के करीब सिक्किम देश का भारतीय संघ में विलय अथवा 1974 में प्रथम पोखरन परमाणु परीक्षण इन्दिरा जी ने इसका श्रेय भारत की महान संकलित (कम्पोजिट) संस्कृति को दिया। परन्तु यह रुतबा उन्होंने सिर्फ प. नेहरू की बेटी होने भर से हासिल नहीं किया बल्कि अपने बलबूते और अपनी राजनैतिक इच्छा शक्ति और चातुर्य के बल पर 1969 में उसी कांग्रेस को विभाजित करके हांसिल किया।
Advertisement
जिसके शीर्ष नेता तब आजादी की लड़ाई की अगुवाई करने के पुण्य के प्रतिफलों पर ही आश्रित रह कर भारत की आम जनता का नेतृत्व करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने लगे थे। बेशक इन्दिरा जी ने 1975 में इमरजेंसी लगा कर अपने ‘प्रताप’ की ‘ऊष्मा’ को अपने विरोधियों के खेमें में संप्रेषित (ट्रांसमिट) कर दिया परन्तु इससे उनके उन कार्यों की महत्ता नहीं घटी जो उन्होंने भारत को मजबूत करने के लिए किये थे।
वर्तमान राष्ट्रीय सन्दर्भों में उनका स्मरण इसलिए जरूरी है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले के खिलाफ पुनर्विचार या पुनर्रीक्षण याचिका दायर करने का जो फैसला ‘मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड’ और ‘जमीयत-उल-उलेमा-हिन्द’ ने किया है, वह किसी भी दृष्टि से भारत की उस महान संस्कृति और परंपरा के अनुरूप नहीं है जिसमें भिन्न-भिन्न धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले लोग सदियों से एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करते हुए ‘हिल- मिल’ कर रहते आ रहे हैं।
इस संस्कृति की विशेषता एक-दूसरे समुदाय की धार्मिक मान्यताओं के लिए घृणा के स्थान पर श्रद्धा का भाव निहित रहना रहा है। 1947 में पाकिस्तान बन जाने के बावजूद 90 प्रतिशत से भी ज्यादा भारत के हिस्से में रहने वाले मुसलमानों का इसी ‘मादरेवतन’ के साये मे ‘फना’ होने के जज्बे के पीछे यही वजह थी.. मगर यह जज्बा भारत की ‘अजीम’ दिलकश रवायतों और परंपराओं ने ही इसमें रहने वाले हर धर्म के मानने वाले नागरिक में भरा था। यही वजह रही कि आजाद भारत में मुस्लिम धर्म की सम्पत्ति वक्फ बोर्डों के जरिये पूरे सरकारी संरक्षण में रही और इसकी देखभाल के लिए इसी सम्प्रदाय के लोगों की सरपरस्ती मुनासिब समझी गई।
मैं 1980 के लोकसभा चुनावों की याद दिलाना चाहता हूं जिसमें स्व. चौधरी चरण सिंह के लोकदल और इससे पिछले वर्ष ही स्व. इन्दिरा गांधी द्वारा पुनः कांग्रेस को विभाजित करने के बाद बची-खुची कांग्रेस में चुनावी गठबन्धन हुआ था और इन्दिरा जी की कांग्रेस ने अपने बूते पर ‘हाथ’ के निशान के साथ चुनाव लड़ा था। उस समय चौधरी चरण सिंह ही देश के प्रधानमन्त्री थे और वह ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय’ को ‘अल्पसंख्यक’ दर्जा देने के लिए ‘अध्यादेश’ तक जारी करना चाहते थे।
परन्तु वह इस डर से यह काम नहीं कर सके कि कहीं तत्कालीन राष्ट्रपति स्व. नीलम संजीव रेड्डी उस पर दस्तखत करने से इसलिए इनकार न कर दें कि वह ऐसे प्रधानमन्त्री हैं जिन्होंने कभी लोकसभा में अपना बहुमत साबित ही नहीं किया और परिस्थितिवश मोरारजी सरकार टूटने पर उन्हें प्रधानमन्त्री पद की शपथ सदन के बाहर दिखाये गये ‘दस्तावेजी बहुमत’ के बूते पर दिला दी गई..तब चौधरी साहब ने अपनी पार्टी लोकदल के घोषणापत्र में  अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पर अपना वादा शामिल कर दिया।
मगर उनके प्रमुख विरोधी दल का नेतृत्व कर रही इन्दिरा गांधी ने उनके इस कदम की अपनी सार्वजनिक सभाओं में कड़ी आलोचना की। ठीक ऐसा ही मामला अयोध्या विवाद को लेकर तब बनता है जब मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड या जमीयत के रुख का समर्थन करने की जरा भी कोशिश कोई अन्य राष्ट्रीय राजनैतिक दल या संगठन करता है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला केवल एक 2.77 एकड़ की जमीन के टुकड़े पर नहीं आया है बल्कि भारत की मिट्टी की तासीर और इसके लोगों की सहनशीलता और सहिष्णुता पर भी आया है। ‘सहिष्णुता’ कभी एक पक्षीय नहीं हो सकती।
इस हकीकत को इन्दिरा गांधी बखूबी समझती थीं और उस जमाने में (1970 में) उन्होंने डाकखाने की मार्फत जाने वाली चिट्ठियों (पोस्टकार्ड) पर केवल एक पैसा अधिभार लगा कर उसे  पांच की जगह छह पैसे का बना दिया था जिससे बंगलादेश से भारत में आये लाखों शरणार्थियों की आर्थिक मदद हो सके  जिसे हर हिन्दू-मुसलमान हिन्दोस्तानी ने दिल से स्वीकार किया था। अतः जो लोग यह सोचते हैं कि अयोध्या में मस्जिद का ढहाया जाना पूरी तरह भारत की मान्यताओं के विरुद्ध था, वे बिल्कुल सही सोचते हैं क्योंकि यह कार्य हर दृष्टि से असंवैधानिक था।
इसी वजह से सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम पक्ष को पांच एकड़ जमीन ‘मुआवजे’ के तौर पर नहीं दी है बल्कि हिन्दू पक्ष के कृत्य के ‘दंड स्वरूप प्रतिकारी कदम’ के रूप में दी  है जिसकी पुनरावृत्ति किसी भी अन्य मामले में कोई नजीर या उदाहरण की तरह काम नहीं कर सकती। जो लोग कानून के जानकार हैं वे भली-भांति जानते हैं कि ‘रिट्रीब्यूशन’ के क्या मायने होते हैं। मुस्लिम पक्ष को पांच एकड़ जमीन इसी के तहत दी गई है इसके साथ ही फैसले में साफ कह दिया गया है कि 1991 में भारतीय संसद का बनाया गया यह कानून कि हर धर्म के पूजा स्थलों का संरक्षण करने के लिए सरकार बाध्य होगी जिसमे 15 अगस्त 1947 के आधी रात तक की उनकी स्थिति में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता है।
तो मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड या जमीयत भारतीयों के बीच क्यों अनावश्यक ‘कसैला पन’ घोलना चाहते हैं..जबकि अयोध्या मुकदमे के असली मुस्लिम पक्षकार ‘सुन्नी बोर्ड’ ने साफ कह दिया है कि वह अब इस मामले को यहीं बन्द करना समाज व देश हित में समझता है..इसलिए गुजारिश है कि अल्लाह के नाम पर अब आगे बढ़ा जाये।
‘‘हो गई है ‘पीर’ पर्वत सी पिघलनी चाहिए 
इस हिमालय से कोई ‘गंगा’ निकलनी चाहिए।’’
Advertisement
Author Image

Ashwini Chopra

View all posts

Advertisement
Advertisement
×