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प्रणव दा को संघ का निमन्त्रण

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12:30 AM May 30, 2018 IST | Desk Team

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पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी द्वारा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का निमन्त्रण स्वीकार किये जाने को लेकर जो राजनीतिक भूचाल खड़ा हुआ है वह इस दौर के राजनेता (स्टेटसमैन) माने जाने वाले श्री मुखर्जी की पसन्दीदा उपमा ‘काफी के प्याले में तूफान’ की तरह ही है। अपने लम्बे शानदार संसदीय जीवन में प्रणव दा अक्सर इस उपमा का प्रयोग करके अपने विरोधियों की जबान पर ताला डाल देते थे। जो लोग उनके निमन्त्रण स्वीकार करने से परेशान हो रहे हैं उन्हें इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि उनके ही संविधान का संरक्षक रहते नरेन्द्र मोदी की भाजपा सरकार 2014 में बनी थी। यह सरकार बेशक संघ की विचारधारा की नाव पर बैठकर चुनावी नैया पार करके सत्ता पर काबिज हुई थी मगर श्री मुखर्जी के राष्ट्रपति रहते केवल और केवल संविधान से उपजे निर्देशों को ही प्रतिष्ठापित होते देखने का दायित्व उन्होंने बखूबी निभाया था। इस सन्दर्भ में एक ही उदाहरण काफी है कि जब 2015 में बिहार विधानसभा चुनावों से पहले उत्तर प्रदेश के दादरी कस्बे में गौमांस के अन्देशे में एक मुसलमान नागरिक ‘अखलाक’ की हत्या की गई थी तो राष्ट्रपति भवन से ही प्रणवदा ने गृहमन्त्री राजनाथ सिंह की उपस्थिति में यह एेलान किया था कि ‘‘भारत की हजारों साल पुरानी संस्कृति सभी धर्मों व सम्प्रदायों व वर्गों के लोगों को भाईचारे के साथ लेकर चलने की रही है।

वैचारिक मतभिन्नता और धार्मिक विविधता इस संस्कृति के मूल अंग रहे हैं। इस देश में तीन प्रमुख जातीय मूल आर्य, द्रविड़ और मंगोल के लोग कई सदियों से हिल-मिल कर सहिष्णुता के साथ रह रहे हैं। दूसरे के विचार से असहमति के आधार पर हिंसक रास्ते अपनाने से यह हमेशा दूर रही है बल्कि विरोधी विचार के साथ सह-अस्तित्व भाव से जीवन यापन करना इसकी शैली रही है। असहिष्णुता के लिए भारतीय संस्कृति में कोई स्थान नहीं है। इसके बाद क्या हुआ था। यदि आपको याद न आ रहा हो तो मैं याद दिलाये देता हूं कि तब बिहार में ही एक चुनावी रैली को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री ने कहा था कि ‘‘देश के सर्वोच्च शासक ने पूरे देशवासियों को आश्वासन दे दिया है कि किसी भी नागरिक के साथ धार्मिक आधार पर अन्याय नहीं होने दिया जायेगा। उनसे बड़ा तो कोई और नहीं है, इसके बाद बात खत्म हो जाती है।’’ दरअसल मुद्दा यह नहीं है कि श्री मुखर्जी संघ के मुख्यालय में 7 जून को होने वाले वार्षिक समारोह में क्यों जा रहे हैं बल्कि असली मुद्दा यह है कि वह अपने सम्बोधन में क्या कहते हैं। कांग्रेस पार्टी के कुछ लोगों ने जिस हड़बड़ी में प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं उनमें श्री मुखर्जी जैसे राजनेता की दूरदृष्टि को समझने की सलाहियत नहीं है।

श्री मुखर्जी तो वह नेता हैं जिन्होंने अमेरिका से होने वाले परमाणु करार के मुद्दे पर इस देश की तत्कालीन विदेश मन्त्री कोंडालिजा राइस को यह कहकर बैरंग लौटा दिया था कि पहले करार की शर्तों पर अपने देश की संसद (सीनेट व कांग्रेस) की मुहर लगवा लीजिये उसके बाद भारत इस पर दस्तखत करेगा। उनके निमन्त्रण स्वीकार करने पर दूसरी तरफ संघ को भी ज्यादा कूदने की जरूरत नहीं है क्योंकि श्री प्रणव मुखर्जी ऊपर से लेकर नीचे तक पूरी तरह क्रान्तिकारी गांधीवादी विचारों की प्रतिमूर्ति हैं। उनका राष्ट्रवाद हिन्दुत्व से नहीं बल्कि हिन्दोस्तान से तय होता है और भारत की उस असली ताकत से तय होता है जिसका मूलमन्त्र सर्वधर्म समभाव है। वह पं. नेहरू के इस सिद्धान्त को हमेशा अपने विचारों के केन्द्र में रखकर ही सशक्त भारत की परिकल्पना करते रहे हैं कि वही देश मजबूत होता है जिसके लोग मजबूत होते हैं और निडर व बेखौफ होकर लोकतन्त्र में अपने निजी विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं।

वह निजी हैसियत से ही संघ के कार्यक्रम में भाग लेने जा रहे हैं। अतः कांग्रेस को नहीं बल्कि संघ को सोचने की जरूरत है ! इसके साथ ही यह कैसे संभव है कि प्रणव मुखर्जी जैसा विद्वान और राजनैतिक मनीषी वर्तमान दौर की राजनीति के लगातार गिरते स्तर और इसके बाजारूपन और निजी आरोप-प्रत्यारोप के म्युलिस्पलिटीनुमा तेवरों का संज्ञान न ले रहा हो और संकुचित होते राष्ट्रीय मानकों के प्रति चिन्तित न हो ? सवाल संघ की विचारधारा से सहमत होने का बिल्कुल नहीं है बल्कि संघीय देश (यूनियन आफ इंडिया) भारत के उस विचार को उद्बोधित करने का है जिसकी वजह से यह देश आठवीं सदी तक विश्व गुरु बना रहा। श्री मुखर्जी का यह दृढ़ विश्वास रहा है कि जब हम जाति, धर्म, सम्प्रदाय और समुदाय को केन्द्र में रखकर टुकड़ों में सोचने लगते हैं तो एकीकृत भारत के विचार को त्याग देते हैं और पिछली सदियों में पहुंच जाते हैं। हम प्रतीकों पर झगड़कर इसी मानसिकता का प्रदर्शन करते हैं। गांधी जी से जब एक बार यह पूछा गया कि वह अपने विरोधी के विचारों को किस रूप में लेंगे तो उन्होंने उत्तर दिया था कि ‘वह उसके विचार उसे अपने से ऊंचे आसन पर बिठा कर सुनना पसन्द करेंगे।’ भारत और भारतीयता का मूल तत्व तो यही है। यह विचार भारत की सहिष्णु संस्कृति से ही निकलता है अतः इस निमन्त्रण स्वीकृति का हम सभी अपने-अपने तरीके से स्वागत कर सकते हैं मगर उस तरीके से नहीं जिस तरीके से भू-परिवहन मन्त्री नितिन गडकरी या गिरिराज सिंह ने स्वागत किया है?

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